14 - स्वागत की वे लड़ियाँ

21-02-2019

14 - स्वागत की वे लड़ियाँ

सुधा भार्गव

3 मई 2003

गृह प्रवेश

शीतल जब-तब सुप्रसिद्ध महादेवी वर्मा की पंक्तियाँ गुनगुनाती रहती है-

चारु चंद्र की चंचल किरणें खेल रही हैं नभतल में
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अंबर में।

शायद उसने पहले से ही निश्चित कर रखा था- बेटी हुई तो अवनि नाम रखा जाएगा। बेटा होने पर उसे अम्बर कहेंगे। इसलिए उस फ़रिश्ते को जन्म के बाद से ही उसे अवनि कहा जाने लगा।

जैसे ही नन्हें से शिशु को लेकर चाँद और शीतल घर में घुसे उनके स्वागत के लिए हम दोनों दरवाज़े की ओर दौड़ पड़े और दिमाग़ के तंतुओं ने आपस में ही टकराना शुरू कर दिया-

अवनि, प्यारी बच्ची, तुम तीन दिन अस्पताल रहीं पर कह नहीं सकती तुम्हें देखे बिना ये तीन दिन कैसे कटे? लगता था मेरे शरीर का कोई अंग छिटक कर दूर जा पड़ा है। अस्पताल में ही तुम्हारे पापा ने फोटुएँ खट-खट खींचनी शुरू कर दी थीं। चेहरे पर बस बड़ी-बड़ी आँखें ही नज़र आईं। एकदम अपने बाबा पर गई हो। उनकी आँखों में गज़ब का आकर्षण है। बड़े होने पर तुम्हारी आँखें भी उनकी तरह हँसती और बोलती लगेंगी।

तुम्हारे पापा के तो अंग-अंग से उल्लसित किरणेँ फूट-फूट पड़ रही हैं। थका हुआ है फिर भी एक मिनट मिलते ही डिजिटल कैमरे के तार टी.वी. से जोड़ दिए हैं और तुम्हारी अपनी मम्मी के साथ प्यारी-प्यारी फोटुएँ स्क्रीन पर आ जा रही हैं पर मेरी तो हँसी फूट रही है – 24 घंटे के बच्चे की इतनी सतर्क निगाहें और खुला मुँह। तुम्हें देख तुम्हारे पापा का बचपन याद आ रहा है। उसका भी सोते समय मुँह खुल जाता था। मैं तो उसकी टुड्ढी के नीचे तह किया रुमाल रख देती थी कि कोई मक्खी–मच्छर न घुस जाए। देखो तो- मेरे बेटे से कितनी मिलती है मेरी "पोती” चिल्ला-चिल्लाकर यह कहने को मन करता है जिससे दसों दिशाएँ जान जाएँ कि तुम मेरे बेटे की बिटिया हो। मेरा वंश बढ़ रहा है।

*

आत्मीयता का सैलाब

पोती के जन्म पश्चात एक सुबह मैंने चाय का प्याला मुँह से लगाया ही था कि चाँद और शीतल सीढ़ियाँ उतरकर जल्दी से आए। बेटा बोला, "माँ, हमें बचा लो- हमें बचा लो।"

"क्या हुआ?" मैं घबरा उठी ।

"आज करीब दस लोग मिलने आएँगे। मेरी छाती पर मूँग दल कर जाएँगे। मूँग-बेसन की पकौड़ियाँ बना दो माँ, बचा लो माँ।"

उसके कौतुक देख मेरी हँसी फूट पड़ी।

मेहमानों की आवभगत के लिए पूरा परिवार फिरकनी की तरह नाचने लगा। किसी ने रसोई सँभाली, किसी ने अवनि को नहला-धुलाकर नन्ही परी बना दिया, कोई घर की साज-सँवार मेँ लग गया।

समय के पाबंद डॉ. दत्ता ने ठीक 11 बजे दरवाज़े पर दस्तक दे दी। घर मेँ प्रवेश करते ही उनकी पत्नी ने भारतीय मिठाइयों का डिब्बा मेरे हाथों मेँ थमा दिया, जिसे देखते ही मुँह मेँ पानी भर आया। खोलकर देख लेती तो न जाने क्या दशा होती। जबसे भारत छोड़ा हल्दीराम, नाथूराम, गंगूराम की मिठाई सपने की बात हो गई।

ये डॉक्टर साहब बाल विशेषज्ञ थे। उनके आते ही अवनि के बारे मेँ बातें शुरू हो गईं। मालिश किस तेल से हो, कब नहलाया जाए आदि–आदि। प्रश्नों का अंबार लग गया। उन्होंने अपने अभ्यस्त हाथों से अवनि को फ़ुर्ती से उठाया और नाल देखने लगे, पर मेरा तो दिल धडक उठा –कहीं नाल हिल न जाए और छोटी सी जान को कष्ट हो। अभी तो वह सूखकर गिरा भी नहीं है।

डॉक्टर दत्ता ने बड़े अपनेपन से शिशु पालन संबंधी बातें बताईं। बच्ची को बहुत देर तक गोद मेँ लिए बैठे रहे। उनके व्यवहार मेँ चुम्बकीय अदा थी। हम भी उनकी ओर खींचे चले गए। अब तो अवनी ज़रा छींकती भी तो दत्ता अंकल याद किए जाते।

दत्ता साहब के जाने के बाद मिठाई का पैकिट खोला गया और बच्चों की तरह उसे चखा जाने लगा। हाथ के बने नुक्ती के लड्डू, काजू की बर्फी खाकर हम मिसेज दत्ता की प्रशंसा किए बिना न रहे। भारतीय स्टोर और टोरोंटों मेँ मिठाइयाँ मिलती तो हैं पर उनको चखते ही मुँह का स्वाद कड़वा हो जाता है इसी वजह से भारतीय घर मेँ मिठाई-नमकीन बनाकर पाक कला मेँ ख़ूब निपुण हो गए हैं। पुरुष भी इन कामों मेँ महिलाओं की ख़ूब मदद करते हैं।

पिछले तीस वर्षों से दत्ता परिवार ओटवा मेँ बसा हुआ है पर हिन्दी, बंगाली और संस्कृत भाषा व भारतीय संस्कृति से, रीति-रिवाज़ों व त्यौहारों से बेहद जुड़े हैं। विदेश मेँ भी रहकर अपनी मिट्टी से उन्हें बहुत प्यार है। उनका घर मुझे ज़रूर म्यूज़ियम नज़र आता है। परंतु भारत के हर राज्य की झाँकी उनके विशालकाय भवन मेँ देखने को मिल जाएगी। उसे देख एक सुखद अनुभूति भी होती है।

*

नर्स का नज़रिया

उसी शाम को स्वास्थ्य विभाग से एक नर्स आई। उसने हमारे घर आए नवजात शिशु की जाँच की और नए बने माँ–बाप को पालन-पोषण संबंधी तथ्य बताए। 2 घंटे तक समस्याओं का समाधान करती रही। मैं इस व्यवस्था को देख बहुत संतुष्ट हुई। पर एक बात मुझे बहुत बुरी लगी।

नर्स ने पूछा, "घर मेँ कोई सहायता करने वाला है?"

"हाँ, मेरे सास-ससुर भारत से आए हैं," बहू शीतल बोली।

"कब तक रहेंगे?"

"3-4 माह तक।"

"क्या वे तुम्हारी वास्तव मेँ सहायता करते हैं?"

"सच मेँ करते हैं।"

"पूरे विश्वास से कह रही हो?"

"इसमें कोई शक़ की बात ही नहीं है। "

"ठीक है, तब भी शरीर से कम और दिमाग़ से ज़्यादा काम लो।"

नर्स के शंकित हृदय की बहुत देर तक थाह लेती रही, कंकड़ों के अलावा कुछ न मिला।

न जाने ये पश्चिमवासी सास–बहू के रिश्ते को तनावपूर्ण क्यों समझते हैं? जिस माँ की बदौलत मैंने प्यारी सी पोती पाई उसे क्यों न दिल दूँगी। इसके अलावा माँ सबको प्यारी होती है। बड़ी होने पर जब अवनि देखेगी कि मैं उसकी माँ को कितना चाहती हूँ तो वह ख़ुद मुझे प्यार करने लगेगी। उसके प्यार के लिए मुझे तरसना नहीं पड़ेगा। दादी अम्मा कहकर जब वह मेरी बाँहों मेँ समाएगी तो ख़ुशियों का असीमित सागर मेरे सीने मेँ लहरा उठेगा। शायद उस नर्स ने कभी साफ़ नीला आकाश देखा ही नहीं । उसकी न्ज़र केवल धुँधले बादलों पर ही टिकी रहती है।

क्रमशः-

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