संवेदनाओं का सागर वंशीधर शुक्ल का काव्य - डॉ. राम बहादुर मिश्र

24-08-2017

संवेदनाओं का सागर वंशीधर शुक्ल का काव्य - डॉ. राम बहादुर मिश्र

डॉ. सुरंगमा यादव

पुस्तक का नाम: वंशीधर शुक्ल का काव्य 
लेखक: डॉ. सुरंगमा यादव
समीक्षक: डॉ. डॉ. राम बहादुर मिश्र
पृष्ठ सं.:137
मूल्य:175/-
प्रकाशक: मनसा पब्लिकेशन्स 
2/256, विराम खण्ड गोमतीनगर, लखनऊ, 
संस्करण: 2016

पढ़ीस, वंशीधर शुक्ल और रमई काका आधुनिक अवधी साहित्य की वह त्रयी हैं जिसने गोस्वामी तुलसीदास के बाद अवधी को सर्वाधिक प्रतिष्ठा दिलायी। आधुनिक अवधी काव्य आख्यानात्मकता, गीतात्मकता और विवरणात्मकता के माध्यम से विकसित हुआ है। ये तीनों ही कवि इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। वंशीधर शुक्ल अद्भुत प्रतिभा के धनी कवि थे। वे कवि से आगे जननायक बन गये थे। कोई कवि तभी जननायक बनता है जब वह समाज या राष्ट्र की वेदना को अपनी वेदना समझे। इस दृष्टि से देखा जाय तो शुक्ल जी सच्चे अर्थों में जनकवि होने के साथ जननायक भी थे। राष्ट्र की शर्मनाक गुलामी के प्रति जनमानस को सम्बोधित रचना "उठ जाग मुसाफिर भोर भयी अब रैन कहाँ जो सोवत है" क्रान्तिकारियों का अभियान गीत बन गयी थी। शुक्ल जी ने जन जागरण व जन क्रान्ति के अधिकांश गीतों का सृजन प्रायः खड़ी बोली में किया, क्योंकि स्वाधीनता आंदोलन के राष्ट्र व्यापी फलक को देखते हुए ऐसा करना आवश्यक था। तथापि उन्होंने अपनी मातृभाषा अवधी के माध्यम से महत्वपूर्ण साहित्य की सर्जना की। पं. वंशीधर शुक्ल का जिस स्तर पर मूल्यांकन होना चाहिए था, वह अभी तक नहीं हो सका। सुखद सूचना है डॉ. सुरंगमा ने वंशीधर शुक्ल का काव्य नामक पुस्तक लिखकर श्रद्धेय शुक्ल जी के पद्य साहित्य का सम्यक् मूल्यांकन करने का स्तुत्य प्रयास किया है। यद्यपि यह पुस्तक शोध प्रविधि पर आधारित है फिर भी यह उल्लेखनीय और स्तुत्य प्रयास है। सम्पूर्ण पुस्तक को आठ अध्यायों में प्रस्तुत किया है, ये हैं- व्यक्तित्व एवं कृतित्व, मानवीय संवेदना, राष्ट्रीय चेतना, हास्य व्यंग्य, ग्राम्य परिवेश एवं प्रकृति, काव्य कला, उपसंहार और परिशिष्ट। मानवीय संवेदना संज्ञक अध्याय सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। डॉ. सुरंगमा के शब्दों में "आधुनिक काल में अवधी के शीर्षस्थ कवि वंशीधर शुक्ल ऐसे कवि हैं जिन्होने दीन दुखी, निर्बल, निर्धन, ग्रामीणों, किसानों तथा मजदूरों की व्यथा को अभिव्यक्ति देने के लिए ही काव्य रचना की है। उनकी कवितायें हृदयस्पर्शी हैं क्योंकि उनमें मानवीय भावों की प्रधानता है।" डॉ. यादव ने अपने कथन की पुष्टि हेतु एक महत्वपूर्ण रचना का संदर्भ भी दिया है-

हम बन बागन के पंछी हन हमका मारेउ तउ का मारेउ।
दुइ हांड़ मांस की गुरियन का छुरियन काटेउ तउ का काटेउ।।

वस्तुतः शुक्ल जी का यह स्वर सामंतवादी व्यवस्था पर करारी चोट है। शोषक और शोषित, शासक और शासित, राजा और प्रजा के संबंधों पर शुक्ल जी की लेखनी ने बड़ी बेबाकी से अपना युगधर्म निभाया है। यह कृति निश्चित रूप से शुक्ल जी के काव्य के मूल्यांकन का अभिनव प्रयास है।

समीक्षक-
डॉ. राम बहादुर मिश्र
संपादक- ’अवध ज्योति’
त्रैमासिक पत्रिका
हैदरगढ़, बाराबंकी

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