06 - पतझड़ से किनारा

21-02-2019

06 - पतझड़ से किनारा

सुधा भार्गव

17 अप्रैल 2003

आज हम बेटे के मित्र आलोक के यहाँ दावत उड़ाने गए। वहाँ अन्य जोड़े भी थे। किसी का बच्चा किंडरगारटन में जाता था तो किसी का नर्सरी में। बातों ही बातों में एक ने मुझे बताया – आंटी यहाँ का क़ायदा मुझे बहुत पसंद आता है। केवल किताबी ज्ञान न देकर शिष्टाचार, सद्व्यवहार और मानवीय कोमल भावनाओं को उजागर करने पर अधिक बल दिया जाता है पर मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं रही! ये नियम–क़ानून, यह सोच कहाँ विलीन हो गए थी जब इसी धरती के एक कोने में इराकी मासूम बच्चों को सदैव के लिए मौन किया जा रहा था।

मेरी कुछ स्मृतियाँ भी पुनर्जीवित होने लगीं और आलोक की बात पर विश्वास न कर सकी। बात ही कुछ ऐसी थी। कुछ साल पहले की ही तो बात है मेरे मित्र श्रीमन के बेटी–दामाद अपने प्यारे बच्चे रूबल के साथ चार साल के लिए लंदन गए। परंतु सास-ससुर की अस्वस्थ्यता के कारण बेटी सुलक्षणा को दामाद जी से 6 माह पहले ही भारत लौटना पड़ा। बड़ा अरमान था कि बेटे को कुछ साल तक वहीं पढ़ाएँगे। उसने नर्सरी से निकलकर कक्षा 2 उत्तीर्ण भी कर ली थी और रूबल वहाँ बहुत ख़ुश था। जब उसे पता चला कि भारत जाने का उसका टिकट खरीदा जा चुका है तो उखड़ पड़ा।

तमतमाए चेहरे से उसने प्रश्न किया – "माँ, किससे पूछकर आपने भारत जाने का मेरा टिकट कराया?"

सुलक्षणा को इस प्रकार के प्रश्न की आशा न थी। वह हँसते हुए बोली – "अरे, तुम मेरे बिना कैसे रहोगे?"

"पापा तो यहीं रहेंगे!"

"तुम्हारे पप्पू तो अस्पताल में मरीज़ों को देखते रहेंगे, तुम्हारी देखभाल कौन करेगा?"
"मैं अपनी देखभाल करना अच्छी तरह जानता हूँ।"

"कैसे?"

"स्कूल में हमें बताया गया है जिनके माँ–पापा अलग रहते हैं या उनका तलाक़ हो जाए तो उन्हें अपने काम अपने आप करने चाहिएँ।"

तलाक़ शब्द इतने छोटे बच्चे के मुँह से सुनकर सुलक्षणा का माथा भन्ना गया। फिर भी उसके कौतूहल ने सिर उठा लिया था।

उसने पूछा, "मैं भी तो सुनूँ... मेरा लाड़ला क्या–क्या, कैसे-कैसे करेगा?"

"घर में अकेला होने पर जंक फूड, प्रीकुक्ड फूड, फ़्रोज़न फूड खाकर और दूध पीकर रह लूँगा। मेरे पास इन्टरनेट से लिए रेस्टोरेंट के फोन नंबर भी हैं। डायल करने से वे तुरंत घर में सबवे सेंडविच पी ज़ा पहुँचा देंगे। माँ, नो प्रोब्लम!"

माँ को झटका सा लगा – वह अपने बच्चे को जितना बड़ा समझती थी उससे कहीं ज़्यादा बड़ा हो गया उसका बेटा।

बुझे से स्वर में बोली – "बेटा तुम्हें मेरी याद नहीं आएगी?"

"आएगी मम्मा पर टी.वी. मेरा साथी जिंदाबाद!"

"तुम बीमार हो गए तो मैं बहुत परेशान हो जाऊँगी।"

"अरे आप भूल गईं! आपने ही तो बताया था एक फोन नम्बर जिसे घुमाते ही एंबुलेंस दरवाज़े पर आन खड़ी होगी।"

"लेकिन बेटा तुम्हें तो मालूम है कि पापा थक जाने के बाद चिड़चिड़े हो जाते हैं। अगर तुम्हें डाँटने लगे तो तुम्हें भी दुख होगा और मुझे भी।"

"देखो माँ! डाँट तो सह लूँगा क्योंकि पैदा होने के बाद डाँट खाते–खाते मुझे इसकी आदत पड़ गई है पर मार सहना मेरे बसकी नहीं। मुझे स्कूल में अपनी रक्षा करना भी बताया जाता है।"

"अपनी रक्षा!"

"मतलब, अपने को कैसे बचाया जाए!"

"तुम अपनी रक्षा कैसे करोगे? मेरे भोले बच्चे के हाथ तो बहुत छोटे–छोटे हैं।" प्यार से सुलक्षणा ने रूबल के हाथों को अपने हाथों में ले लिया।

ममता को दुतकारते हुए रूबल ने अपना हाथ छुड़ा लिया – "अगर पापा मुझ पर हाथ उठाएँगे तो मैं पुलिस को फोन कर दूँगा। वह पापा को झट पकड़ कर ले जाएगी या उन्हें जुर्माना भरना पड़ेगा। यहाँ बच्चों को मारना अपराध है। मैं आप के साथ भारत नहीं जाऊँगा, वहाँ मेरे चांटे लगाओगी।"

सुलक्षणा की इस बात में दो राय नहीं थीं कि उसका बेटा कुछ ज़्यादा ही सीख गया है। उसने लंदन छोडने में ही भलाई समझी। उसे एक–एक दिन भारी पड़ रहा था। बेटे के व्यवहार से विद्रोह की बू आ रही थी लेकिन डॉक्टर होने के नाते वह यह भी जानती थी कि उसकी सोच को एक उचित मोड़ देना होगा।

सुलक्षणा भयानक अंधड़ से गुज़र रही थी। यह कैसा न्याय! ग़लती करने पर माँ–बाप को दंडित करने की समुचित व्यवस्था है परंतु माँ–बाप से जब संतान बुरा आचरण करे तो उन्हें सज़ा देने या समझाने का कोई विधान नहीं।

अपने को संयत करते हुए सुलक्षणा ने बेटे को समझाने का प्रयास किया – "बच्चे हम अपने देश में तुम्हारे दादी–बाबा के साथ रहते हैं और एक दूसरे से बहुत प्यार करते हैं। वे तुम्हारे बिना नहीं रह सकते।

"बाबा का तो कल ही फोन आया था। पूछ रहे थे, हम कब वापस आ रहे हैं।" उनकी याद आते ही बच्चे की आँखें छलछला आईं। आख़िर जड़ें तो रूबल की भारतीय थीं।

अब रूबल दूसरी ही दुनिया में चला गया जहाँ रिश्तों की महक से वह महकता रहता था। कुछ रुक कर बोला – "दादी तो ज़्यादा चल नहीं सकतीं। बाबा को ही सारा काम करना पड़ता होगा। आप भी तो यहाँ चली आईं। मेरे दोस्तों के दादी–बाबा तो यहाँ उनसे अलग रहते हैं। बूढ़े होने पर भी उन्हें बहुत काम करना पड़ता है। कल मम्मा, आपने आइकिया (IKEA) में देखा था न, वह पतली–पतली टाँगों वाली बूढ़ी दादी कितनी भारी ट्रॉली खींचती हाँफ रही थी। उसकी सहायता करने वाला कोई न था।" रूबल का मन करुणा से भर गया।

छ मिनट पहले बहस की गरमा-गर्मी शांत हो चुकी थी। हरिण सी कुलाचें मारता रूबल का मन अपनी जन्मभूमि की ओर उड़ चला था।

"मम्मी जब आप लखनऊ में अस्पताल चली जाती थीं तो दादी माँ मुझे खाना खिलातीं, परियों की कहानी सुनातीं। ओह! बाबा तो मेरे साथ फुटबॉल खेलते थे। अब तो वे अकेले पड़ गए हैं। अच्छा मम्मी! मैं भी चलूँगा आपके साथ। मैं अभी ई मेल बाबा को कर देता हूँ।"

अपने अनुकूल बहती बसंती बयार में सुलक्षणा ने गहरी साँस ली। उसको लगा जैसे पतझड़ उसके ऊपर से गुज़र गया।

क्रमशः-

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