पतंगों वाला बचपन 

01-02-2020

पतंगों वाला बचपन 

ममता मालवीय 'अनामिका' (अंक: 149, फरवरी प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

"न जाने वक़्त के साथ ,
त्योहार की रंगत कहाँ चली गई।
तिल गुड़ के लड्डू की मिठास,
मानो गुम ही हो गई।
अब गली में पतंग के,
शोर-शराबे नहीं मिलते।
ज़िंदगी की भागदौड़ में उलझे,
अब वो यार नहीं मिलते।"

आज छत पर खड़ी होकर उन चंद उड़ती पतंगों को देख रही थी, जो ख़ुशी से उस खुले आसमाँ की बुलन्दी को छुए जा रहीं हैं। लेकिन वो मन भावन उमंग आज गुम सी थी, हाँ वही उमंग जो मकर संक्रांति आने के एक महीने पहले से बच्चों के चेहरे पर छा जाती थी।

बात कुछ ही सालों पहले की है, जब में महज़ दस-ग्यारह बरस की थी। उस वक़्त पतंग ख़रीदने से ज़्यादा मज़े, कटी पतंग लूटने में आते थे। गली में एक महीने पहले से बच्चों का शोर, मानो इस बात का संसूचक था कि त्योहार आने वाला है। घर के अंदर भी ख़ुशियों की फुलवारी महक सी उठती थी। एक तरह माँ तिल गुड़ के लड्डू बनाने लग जाती, तो एक तरफ़ पापा नई पतंग दिला कर हमारा दिल ख़ुश कर देते।

उस वक़्त नई चकरी या धागा ख़रीदने की बजाय, किसने कितना धागा लूटा है- इस बात की होड़ होती थी। और जिसने जितनी ज़्यादा पतंग और धागा लूटा है, उसकी ख़ुशी तो मानो उस आसमाँ में उड़ती पतंग जितनी हो जाती।

सवेरे-सवेरे चिड़िया ओर कौए के साथ काट्टा है.........काट्टा है........, के वो मधुर आलाप जैसे ही कानों पर पड़ते, तो उसी वक़्त लड़कों की टोली उस एक पतंग के पीछे भागती थी। वो दृश्य कितना मनभावक हुआ करता था। एक तरफ़ जहाँ बच्चे इस उन्माद में मग्न हुआ करते थे, तो दूसरी तरफ़ यही ख़ुशी उस गली की नुक्कड़ पर बैठे बुज़ुर्गों में भी देखने को मिल जाती थी। जो बैठे-बैठे बस यही अनुमान लगाते कि अब लाल पतंग कटेगी या सफ़ेद...…!

सारे लड़के जहाँ अपने दोस्तों के साथ पूरा दिन पतंग उड़ाते थे, तो वहीं हम लड़कियाँ अपनी सहेलियों को छोटे-छोटे गिफ़्ट देने उसके घर पहुँच जातीं थीं।

मकर संक्रांति का पूरा दिन बस इसी तरह की चहल-पहल में बीत जाता था।

लेकिन आज वो ख़ुशी ओर वो नज़ारे इस भागती ज़िंदगी की दौड़ में न जाने कहाँ छूट गए! अब ना तो गली में बच्चों का शोर है, और ना ही उन यारों का साथ। तिल गुड़ के लड्डू की जगह भी, अब रेडीमेड गजक आ गई और पतंग उड़ाने से ज़्यादा मज़े आजकल के बच्चों को घर मे बैठ कर वीडियो गेम में आने लगे हैं।


धीरे-धीरे हमारे पर्वों और त्योहारों की रौनक़ विघटन की ओर बढ़ती जा रही हैं। हम सभी का कर्तव्य है कि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को अपनी संस्कृति से जोड़े रखें। उन्हें सारे त्योहार और पर्व उत्साह से मनाने की सीख सिखायें। जिससे उनमें आपसी भाईचारा बढ़े, और नई पीढ़ी हमारी अमूल्य संस्कृति की धरोहर को आगे बढ़ाती रहे।

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