मैं ढूँढ़ रही हूँ उस अपने को,
जो मेरे सामने रहता है।
मेरे पास होकर भी,
जो कोसों दूर रहता है।
क्यों वो अपनापन,
वो अहसास नहीं दिखता है,
जिसे देखने का सपना,
मेरी आँखों मे रोज़ पलता है।
मैं ढूँढ़ रही हूँ उस पल को,
जो मेरे दिल में रहता है।
एक नज़र उसे आज देखा,
वो पराया सा लगता है।
क्यों वो पहले जैसा,
लगाव नहीं दिखता है।
जिसे देखने का ख़्वाब,
मेरी आँखों में रोज़ पलता है।
मैं ढूँढ रही हूँ, उस साथ को,
जो मेरी सोच में रहता है।
जिसके साथ क़दम मिलाकर,
मुझे एक लगाव सा लगता है।
क्यों वो पहले जैसा ,
रास्ता नहीं दिखता है।
बढ़ती राहों पर ही ,
हर हमराही मुड़ता है।