माँ

डॉ. सुनीता जाजोदिया (अंक: 181, मई द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

लिफ़्ट से बाहर निकलते ही जेब में रखा फोन घनघना उठा। फोन उठाया तो उधर से निशा कह रही थी, "सुनो, सूप का थरमस तो ऊपर ही छूट गया।"

"ठीक है। मैं ऊपर आ जाता हूँ।"

"अरे, नहीं . . . नहीं . . . मैं लेकर आ रही हूँ। तुम वहीं रुको। कहीं 'डंजोवाला' चला ना जाए।"

’होम टू होम’ पैकेज भेजने वाले एप्प जब निकले थे तो परेश अक़्सर भुनभुनाता था, "पहले ये सारे फल, मिठाई, बायने बाँटने के काम घर के बच्चे दौड़-दौड़ कर लेते थे। इस बहाने सारा गाँव उन्हें जानता था। मगर आजकल के बच्चे अपने समय को लेकर कितने केलकुलेटिव हो गए हैं।और बाज़ारवाद की घुसपैठ तो देखो जहाँ भी गैप मिला, वहीं सेंध मार ली। इनके कारण शहरों में रिश्ते निभाना तो अब और भी मुश्किल हो जाएगा।"

"ज़माने के हिसाब से सब बदलता रहता है। इसमें हर्ज ही क्या है, शहरों में घर आसपास भी तो नहीं होते," निशा उसे समझाती। 

आज वह सोच रहा था कि यदि ये एप्प नहीं होते तो आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित कोरोना संक्रमित बेटे-बहू को घर का पौष्टिक आहार कैसे मिलता? यह तो अच्छा हुआ कि बुख़ार-ख़ाँसी के हल्के लक्षण उभरते ही बहू ने सात वर्षीय नकुल को अपनी सहेली रितु के यहाँ भेज दिया और डॉक्टर की सलाह पर दोनों ने ख़ुद को होम क्वारंटाइन कर लिया। बेटे-बहू दोनों ने माँ के पैरों के दर्द का हवाला देते हुए लाख मना किया कि रितु पूरा खाना भेज देगी मगर निशा न मानी। आख़िर उसने नाश्ते और लंच का ज़िम्मा ले ही लिया। बेटे की कंपनी से मिलने वाले बंगले की वज़ह से उन्हें अलग घर बसाना पड़ा था। और अपने हाथों से बसाए घर को छोड़ने के लिए परेश और निशा दोनों ही तैयार नहीं हुए थे।

हेलमेट, मास्क और दस्ताने पहने डिलीवरी देने वाले बाइक सवार को अपने सामने देखकर वह सोच रहा था कि जान जोखिम पर डालकर कभी दवाई, तो कभी फल, कभी खाना तो कभी ज़रूरत की चीज़ें इधर से उधर पहुँचाने वाले ये नौजवान भी तो इस महामारी की जंग के सिपाही हैं। दूसरी लहर में तो युवा वर्ग में ही संक्रमण ज़्यादा है। 'हे ईश्वर इनकी रक्षा करना।' उसने मन ही मन प्रार्थना की।

लिफ़्ट का दरवाज़ा खुला और निशा तेज़ क़दमों से उसकी ओर लपकी। फ़्लास्क देते समय उसके चेहरे पर संतोष के भाव देखकर परेश सोच रहा था कि इन दिनों अक़्सर चिड़चिड़ी और थकी-थक, साठ की दहलीज़ पर खड़ी पत्नी में उसे बुढ़ापा दिखाई देने लगा था किंतु पिछले दो दिनों से दुगुनी फ़ुर्ती से उसे काम करते देखकर एहसास हो रहा था कि माँ कभी बूढ़ी नहीं होती।

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