11 - अली इस्माएल अब्बास
सुधा भार्गव
25 अप्रैल 2003 इन दिनों सत्ता वैभव की उत्कंठा से रचे अमरीका–ईराक़ के चर्चे हर ज़ुबान पर हैं। युद्ध विरोधी प्रदर्शनों के होते हुए भी बुश–ब्लेयर जोड़ी ईराक़ पर तबाही बरसाने की ख़ूनी प्यास को नहीं रोक सकी। आज टी.वी. में सुना कि ईराक़ में पुन:निर्माण का शुभारंभ हो चुका है। बिजली व्यवस्था, टेलीफोन व्यवस्था, दूरदर्शन व्यवस्था, आवास व्यवस्था न जाने कितनी व्यवस्थाएँ पुन: होंगी। यही नहीं अपितु अंधे को आँख, लूले को हाथ, लँगड़े को पाँव मिलेगा। युद्ध की भीषण लपटों में झुलसे ईराक़ में न कोई अपाहिज रहेगा और न ही अनाथ। अस्पताल में रातों-रात योग्य डॉक्टर, सुप्रबंधित ऑपरेशन थियेटर, आधुनिक जंतर-मंत्र की भरमार हो गई है। ऊँह बड़े लोगों की बड़ी बातें। असंभव को भी संभव करने का लंबा–चौड़ा प्रचार सुनकर मेरे माथे पर बल पड़ गए और निरर्थक – बे-सिरपैर की बातों के प्रसारण के समय मैंने कंधे झटक दिए। संसार इस बात का गवाह है कि ईराक़ी नागरिकों पर खुले दिल से बम बौछार करने के परिणामस्वरूप न जाने कितने ईश्वर को प्यारे हो गए। क़ुवैत के अस्पताल में एक बच्चे को देखकर सर्जन ने कहा, "तुम तक़दीर के बली हो, तुम बच गए।" "क्या नाम है तुम्हारा?" "नूर अली।" "उम्र?" "बारह। मेरे हाथ…!" तभी दिल दहलाने वाली एक चीख निकली। "अमेरिका की फौज जब तुम्हारे शहर पर मिसाइल से बम बरसा रही थी तब तुमने अपने हाथ खो दिए।" "और मैंने क्या-क्या खोया?" "माँ-बाप, भाई, चची और तीनों चचेरे भाई। सबको हमेशा के लिए खो दिया।" बच्चा शून्य में ताकता रहा, सुनता रहा। "घबराओ नहीं, हम आशावादी हैं। हम तुम्हारे अच्छी से अच्छी क़िस्म के अंग लगवा देंगे।" "और क्या करवा दोगे?" "तुम्हारे घाव भर देंगे, जलने के निशान मिटा देंगे।" "और क्या दोगे?" "और क्या चाहिए?" "बहुत कुछ चाहिए। क्या दे सकोगे मेरे अब्बा और अम्मी। प्यारे-प्यारे भाई जान जिनको देखते ही मैं अपना सारा दुख भूल जाता था। उनके बिना मैं कैसे रहूँगा? मेरा सब कुछ तो छीन लिया।" अली अपने माँ–बाप की याद में बिलख बिलख कर रोने लगा। सर्जन निरुपाय सा बालक की ओर देखता रह गया जो रिश्तों की डोर के बिना कटी पतंग की तरह पड़ा था। बाद में इस किशोर के कृत्रिम अंग लगवा दिए गए और इसके इलाज का ख़र्च क़ुवैत सरकार ने उठाया। युद्ध के दौरान इस्माइल की तस्वीरें "डेली मिरर" आदि अख़बारों में ख़ूब छपीं। टी.वी में डरी-सहमी आँखों वाले अली की पीड़ा ने मुझे रुला दिया। इस किशोर की दर्दनाक तस्वीरें अमेरिका-ईराक़ के संघर्ष में नागरिकों को पहुँच रही पीड़ाओं की प्रतीक बन गई हैं। वाह री तांडव लीला! क्रमशः- |
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- डायरी
-
- 01 - कनाडा सफ़र के अजब अनूठे रंग
- 02 - ओ.के. (o.k) की मार
- 03 - ऊँची दुकान फीका पकवान
- 04 - कनाडा एयरपोर्ट
- 05 - बेबी शॉवर डे
- 06 - पतझड़ से किनारा
- 07 - मिसेज़ खान का संघर्ष
- 08 - शिशुपालन कक्षाएँ
- 09 - वह लाल गुलाबी मुखड़ेवाली
- 10 - पूरी-अधूरी रेखाएँ
- 11 - अली इस्माएल अब्बास
- 12 - दर्पण
- 13 - फूल सा फ़रिश्ता
- 14 - स्वागत की वे लड़ियाँ
- 15 - नाट्य उत्सव “अरंगेत्रम”
- 16 - परम्पराएँ
- 17 - मातृत्व की पुकार
- 18 - विकास की सीढ़ियाँ
- 19 - कनेडियन माली
- 20 - छुट्टी का आनंद
- 21 - ट्यूलिप उत्सव
- 22 - किंग
- 23 - अनोखी बच्चा पार्टी
- 24 - शावर पर शावर
- 25 - पितृ दिवस
- 26 - अबूझ पहेली
- 27 - दर्द के तेवर
- 28 - विदेशी बहू
- 29 - फिलीपी झील
- 30 - म्यूज़िक सिस्टम
- 31 - अपनी भाषा अपने रंग
- 32 - न्यूयोर्क की सैर भाग- 1
- 33 - न्यूयार्क की सैर भाग-2
- 34 - न्यूयार्क की सैर भाग - 3
- 35 - न्यूयार्क की सैर भाग - 4
- 36 - शिशुओं की मेल मुलाक़ात
- 37 - अब तो जाना है
- 38 - साहित्य चर्चा
- 39 - चित्रकार का आकाश
- 40 - काव्य गोष्ठी
- लोक कथा
- विडियो
-
- ऑडियो
-