ये आँखें तरसती हैं

15-11-2022

ये आँखें तरसती हैं

दीपमाला (अंक: 217, नवम्बर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

ये आँखें अब तरसती है
किसी अपने की झलक पाने को, 
दो घड़ी उसके साथ बतियाने को। 
ये आँखें तरसती हैं। 
 
जो घिरे होते थे कभी दफ़्तर में
सहकर्मियों से, 
घर आते-आते रुकता नहीं था
नमस्कार और हालचाल पूछने वालों का सिलसिला। 
घर में आते ही पत्नी व बच्चों की
गर्मजोशी से भरी आवाज़ें 
ये आँखें अब तरसती हैं
उन आवाज़ों के लिए। 
 
सुबह की शुरूआत
गर्म चाय की प्याली के साथ। 
फिर वह दफ़्तर जाने की भागमभाग, 
पत्नी व बच्चों की आवाज़ें
ख़ुशनुमा बनाती थी उस सुबह को
अब मौन और उदास है हर सुबह। 
ये आँखें तरसती हैं
उस सुबह के लिए। 
 
मोहल्ले के हमउम्र दोस्तों के साथ
दफ़्तर के बाद शाम को बतियाना, 
अचानक से फिर देश और राजनीति पर
चर्चा छिड़ जाना और कभी-कभी
इस कारण छोटी मोटी बहस हो जाना। 
कहाँ है वह सारे दोस्त और साथी? 
ये आँखें तरसती हैं
उन दोस्तों के लिए। 
 
ए ज़िन्दगी लौटा दे फिर से, 
वह पहले वाली सुबह और पहले वाली शाम। 
घर में अपनों की आवाज़ें
और दफ़्तर में ढेर सारा काम। 
अब नहीं सहा जाता ख़ालीपन, 
व्यस्त कर दे ज़िन्दगी फिर से
ये आँखें तरसती हैं
उस व्यस्तता के लिए, 
उसी पहले वाली ज़िन्दगी के लिए। 
 
ये आँखें तरसती हैं। 

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