मानवीय संवेदनाएँ
दीपमाला
कभी-कभी सोचती हूँ कि अत्यंत संवेदनशील होना भी दुखद है अपने आप में। मानवीय संवेदनाएँ ज़रूरी हैं मनुष्य होने के लिए . . . संवेदना विहीन मनुष्य को मैं इंसान नहीं मानती। चूँकि मैं ख़ुद बहुत संवेदनशील हूँ इसलिए अपने अनुभव से यही पाया है कि अगर हम संवेदनशील हैं तो दूसरों के दुख . . . उनकी भावनाओं को अच्छे से समझ सकते हैं।
पर यह संवेदनाएँ कभी-कभी मन को बहुत आहत कर जाती हैं जब हमारे आस-पास के लोग या हमारे अपने . . . हमारे मन, हमारी भावनाओं को उस तरह से नहीं समझ पाते जैसे हम उनकी समझते हैं। भावनात्मक रूप से उतना नहीं जुड़ पाते, जितना हम जुड़े हैं उनसे।
तब कहीं ना कहीं वह कोमल और संवेदनाओं से भरा मन आहत होता है कि काश . . . सामने वाला भी महसूस कर पाता जैसे हम कर सकते हैं . . . पर यह हमेशा सम्भव नहीं क्योंकि सबकी संवेगों को समझने की क्षमता अलग-अलग है ऐसे में भावुक हृदय के व्यक्ति को निराशा ही हाथ लगती है और फिर जैसे तैसे वह समझा लेता है अपने मन को . . . सबके साथ सामंजस्य बिठाने के लिए क्योंकि उसके लिए इंसान के, रिश्तों के और संबंधों के मायने बहुत महत्त्वपूर्ण है। इन्हीं भावों के रहते मनुष्य के हृदय में दया, करुणा और परोपकार जैसे गुणों का अस्तित्व क़ायम है नहीं तो ये जीवन जीने योग्य नहीं रह पाता।
1 टिप्पणियाँ
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इस चिंतन में बात सोलह आना सच कही गई है। संवेदनशील व्यक्ति तो मन को जैसे-तैसे समझा-बुझाकर निबाह लेता है। परन्तु 'अत्यंत' संवेदनशील व्यक्ति अपने द्वारा की गई हर भली बात के बदले अपने से हर छोटे-बड़े व्यक्ति से अपेक्षा रखने लगता है, और उसके पूरे न होने पर वह अपने ही मन को दुखी करने का कारण बन जाता है। साधुवाद।
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