विषपान
अनीता श्रीवास्तवदेख हलाहल कलयुग में, ये सोच रहे शिव शंकर
मैं पी कर दूँ अभय इन्हें, या छोड़ूँ इनकी इन पर।
हवा पेड़ नदियाँ सागर, सब ज़हरीला कर डाला
कितना मैं विषपान करूँ, सब ही में विष भर डाला।
मन मंदिर में लालच लिप्सा, और कपट को ध्याता
सोचा करता यहीं रहेगा, सदियों तक मदमाता।
शिव शंकर को दया बहुत, आती है अब मानव पर
किंतु तनिक हों सावधान, सो दिखलाते तांडव कर।
कहीं बाढ़ भूकम्प कहीं, कहीं रोग संक्रामक
थर्राते गर्राते फिर भी, हुए प्रभु आक्रामक।
तभी मात गौरी ने आकर, भोले को समझाया
अपनी ही संतान है मानव, क्षमा करो कर दाया।
तब से भोले भारत पर तो, कृपा सदा ही करते
मगर समझ ले मानव, अब विषपान नहीं शिव करते।
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