चुगली की गुगली
अनीता श्रीवास्तवलोगों का मानना है कि ’इनके’ पेट में बात नहीं पचती। ये बिल्कुल स्वाभाविक है। दूसरे दर्जे की हैसियत के कारण वे युगों से सुनती आ रही हैं। इस तरह सुनने की अति के कारण इन्हें अपच हो गया। दादी के नुस्ख़े में इसका यही इलाज बताया गया कि धीरे से इधर–उधर कह लिया जाय। बस यही उपचार गाँठ बाँध लिया। . . . और अपनी अपच का उपचार ख़ुद कर लिया। हाँ, ये और बात है कि आधी दुनिया का यह फ़ॉर्मूला शेष आधी ने चुगली नाम से प्रचारित कर दिया। कालांतर में वे चुगली में पारंगत होती गई। क्यों न होतीं? . . . विकासवाद का सिद्धांत यही है कि जिसका जितना अधिक उपयोग, उतनी अधिक पारंगतता। किंतु समय के साथ स्त्रियों की दशा बदली। ऐसा विद्वानों ने बताया। अपने आप कहाँ समझ में आया। वह शिक्षित हुई। फिर कामकाजी हुई। आधुनिकतावादियों ने उसकी शान में ऐसे क़सीदे पढ़े कि लगने लगा उसकी क़ौम का यह प्रकृति प्रदत्त गुण अब लुप्त हो जाएगा। किंतु धन्य हैं टीवी सीरियल; इन्होंने लुप्त होती संस्कृति को पुनः थाम लिया। यही तो उद्देश्य है इनका। एजुकेटेड स्त्रियों ने चुगली को अपडेट किया। गाँव की अँगूठा छाप गोरी की तरह फुसफुसा कर चुगली करना अब आउट ऑफ़ फ़ैशन है।
चैटिंग चलती रहती है। जो इसे गोरी की चुप्पी समझते हैं वे चीट होते रहते हैं। चुगली चलती रहती है। डयूटी पर। ऑफ़िस में। आते–जाते राहों में। ये चुगली का वर्चुअल फ़ॉर्म है। जहाँ तक रियल का सवाल है . . . चुगली का ग्राफ ऊपर–नीचे होता रहता है। बातों में रस तब और बढ़ जाता है जब वक़्ता थोड़ा कम वोल्यूम करके श्रोता की तरफ़ झुक कर कुछ कहता है। श्रोता की एकाग्रता इस वक़्त चरम पर होती है। ये तो हुई कामकाजी महिला की बात, अब ज़रा गृहणियों पर नज़रें इनायत हों।
इन लोगों के पास काम बहुत रहता है मगर लोगों को कुछ और ही लगता है। एक भरा-पूरा परिवार गृहणी के लिए युद्ध के मैदान सा है। दिनभर यहाँ उसने जो पराक्रम दिखाया, उसकी कमेंट्री कोई नहीं करता। घर के लोग उसके इस पराक्रम को चर्चा के योग्य समझते ही नहीं इसीलिए यह काम उसने ख़ुद स्वीकार किया है। आख़िर मॉरल ड्यूटी भी कुछ होती है! जैसे ही कोई पड़ोसन दिख जाती, वो तत्काल ठिठक जाती और उस दिन के कार्यों का लेखा प्रस्तुत करने लगती है। नाश्ते में क्या बनाया, सब्ज़ी क्या बनेगी, कपड़े मशीन में डाल दिए . . . वग़ैरह। इतना कुछ है बताने को कि अगर उधर से प्रश्न की प्रतीक्षा करने लगें तो काफ़ी समय बर्बाद हो जाएगा, लिहाज़ा वह ख़ुद ही मौक़ा देख कर स्विच ऑन हो जाया करती है . . . यहाँ एक पेंच है। अपने द्वारा सम्पादित कार्यों का बखान करते-करते वह अपनों के बारे में कुछ गोपनीय जानकारियाँ भी सम्प्रेषित कर देती है . . . मासूमियत से। इसमें ग़लत क्या है? ये एक प्रतिभा है जो क़ुदरती तौर पर हर स्त्री में होती है। चूँकि हरेक में होती है इसलिए यह स्त्री का आभूषण है।
ऐसा नहीं कि पुरुष चुगली विहीन होते हैं . . . होती है, आदत उनमें भी होती है किंतु यह उनका आभूषण नहीं है . . . क्यों? क्योंकि एक तो वे आभूषण पहनने के लिए नहीं बने हैं, वे आभूषण बनवाने और उनकी रखवाली के लिए बने हैं। दूसरे, चुगली उन पर वैसी फबती नहीं जैसी स्त्रियों पर। . . . इसीलिए जब कोई पुरुष चुगली करता है तो उसे अधिक 'सोशल' कहा जाता है जो कि उसकी सामान्य तौर पर बनी गम्भीर छवि से ज़रा हटके है। मेरे साथ भी चुगलीपरक घटनाएँ घटती रहती हैं। कल ही की बात है। पड़ोसन अपनी सास के बारे में बहुत कुछ बता कर गई। फिर बोली आपको अपना जान कर बता दिया। मैंने भी उसे निराश नहीं किया . . . कह देने से मन हल्का हो जाता है। बुरा तब लगा जब मेरी सास के बारे में सुने बग़ैर ही वो वहाँ से चली गई। चुगली जब अपने शबाब पर पहुँच जाती है तो चुगलीकर्ता का समापन वाक्य होता है– किसी से कहना मत या फिर, मेरा नाम न लेना। हम चुगलीकर्ता को चुगलख़ोर नहीं कह सकते, जो कहते हैं उन्हें अपनी नकारात्मक सोच को बदलना होगा क्योंकि चुगलख़ोर शब्द हरामख़ोर, घूसख़ोर के साथ तुकबंदी रखता है। जो क़तई आभूषण नहीं कहे जा सकते। न तो स्त्री के, न पुरुष के, यहाँ तक कि थर्ड जेंडर के भी नहीं।
चुगली आदिकाल से मानव सभ्यता का 'पार्ट' रही है। नारद जी ने इसे देवताओं के बीच आज़माया। सब तरफ़ उनकी प्रतीक्षा होती थी और स्वागत को हाथ जुड़े रहते थे। उनकी करतल वीणा साक्षी है बड़े-बड़े युद्ध इसी प्रतिभा के कारण ही उन्होंने करवाए या टलवाए। इसी तारतम्य में मन्थरा का प्रसंग याद करना ज़रूरी है। क्यों? . . . वह पावन ग्रंथ रामायण का अंग है जिसके प्रति हम श्रद्धा रखते हैं। चलन यही है कि जिनके प्रति श्रद्धा है उनसे जुड़े हर व्यक्ति और प्रसंग पर श्रद्धा हो। जुड़े हुओं का अलग से मूल्यांकन नहीं किया जाता वे तो समग्र में समाहित हैं ही। राज्य में ज़िलों और ज़िलों में गाँव तहसील की तरह। इस तरह जुड़े हुओं की बाक़ायदा 'चेन' होती है। मन्थरा के मामले में ये कुछ ऐसी थी– राजतिलक भरत का, राजमाता कैकेई और मंथरा प्रमुख दासी। यह कार्य उसने भगवत-प्रेरणा से किया . . . गई गिरा मति फेरि।
ये अनुमान अपने आप लग गया कि चुगली समाज में समरसता बनाए रखने में सहायक है। कैसे? जो बातें मुँह पर कह देने से झगड़े का डर होता है वे यदि चुगली के माध्यम से संबंधित तक पहुँचा दी जाएँ तो लाठी भी नहीं टूटती और साँप भी मर जाता है। आज के डिजिटल भारत में चुगली भी हाईटैक हो गई है। यह अपडेट हो कर अब शेयर फ़ॉरवार्ड में समाहित है। तो इतना जानने के बाद संचार की इस विधा पर आपकी राय ज़रूर बदलेगी और इसे लिंग भेद से मुक्त रखने का प्रयास करेंगे। वैसे है ये केवल गाइड लाइन।
1 टिप्पणियाँ
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हा.....हा....हा खूब व्यंग्य
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