बड़े भाईसाब की टेंशन

01-11-2023

बड़े भाईसाब की टेंशन

अनीता श्रीवास्तव (अंक: 240, नवम्बर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

वे क़तई गंभीर थे। एक भौंह ऊपर चढ़ी थी। अंगुली से दाढ़ी खुजा रहे थे। कभी–कभी सिर भी खुजा लेते थे ताकि नीचे ऊपर संतुलन बना रहे गोया उन्हें सबको साध लेने का हुनर आता है। 

“काहे इत्ती टशन पाले हैं?” छोटे भाई साब ने बड़े से कहा तो बड़े को याद आया उन्हें निश्चिंत दिखना है। वह जो हैं, दिख कैसे गए! उनका अभिनय कौशल इतना कमज़ोर कैसे पड़ गया! वह भी ऐन चुनाव के वक़्त। कम्बख़्त विरोधी पार्टियों का इतना दबाव है कि वे अपना असली स्वरूप ही ‘माया के भुलाए जीव’ की भाँति भूलने लगे हैं। 

“हमें घोषणा पत्र के लिए वादे चाहिएँ।” बड़े भाईसाब ने ऐसे कहा जैसे गृहणियाँ कहतीं हैं ‘हमें अचार के लिए आम चाहिएँ।’

“हाँ तो वादों की कहाँ कमी है! दिमाग़ पर ज़ोर डालने की बजाय पुराने घोषणा पत्र से देख लेते हैं। पिछले चुनाव में भी तो अपन ने यही किया था।” 

“और उसके पहले वाले में भी अपन ने यही किया था,” बड़े भाईसाब ने खिसिया कर, छोटे की बात में, अपनी बात चिपका दी। फिर उनकी तरफ़ जैसे देखा, उसका मतलब था पुराने अचार के बचे तेल–मसाले में नया अचार डालना ठीक नहीं। इससे चटोरी जीभ को नए अचार का मज़ा नहीं मिलेगा। 

तो नए वादे सोचे जाएँ। दोनों नेता सोचने लगे। बड़के–छुटके। दोनों। बड़के कुर्सी के दबाव में रह कर कुर्सी पर दबाव बनाए रहे इसलिए थूल-मथूल काया के धनी हो गए, लिहाज़ा सोचने का काम वे बैठ कर ही कर रहे हैं। जबकि छोटे भाईसाब की नेताई बड़े और उन जैसे अन्य बड़ों के आगे पीछे घूमते ही चमकी है, लिहाज़ा वे सोचते हुए चहलक़दमी करने लगे। एकाएक उनके दिमाग़़ में मोबाइल में नोटिफिकेशन की तरह 'टप्प’ से एक आइडिया टपका।

“अपन भी इस बार कुछ फ़्री का बाँट देते हैं। मतलब बाँटने का वादा कर देते हैं,” यह एक अच्छा वादा था, मगर विरोधी पार्टी पहले ही इसे अमल में ला चुकी है। तो कुछ और। तभी बड़े का मुखड़ा सड़क किनारे लगी हेलोजन लाइट की तरह चमका। वे बोले, “आजकल चंद्रयान का बड़ा हल्ला है।” 

“भाईसाब हल्ला तो हो ही जाता है। चंद्रयान कोई मज़ाक थोड़े है!” 

“तो फिर वादा करो, जनता से।” 

“अगर हम जीते तो हम उसे चंदा मामा की सैर कराएँगे—यही ना! मान गए भाईसाब। ये बिल्कुल नया क़िस्म का वादा है। क़सम से जनता पगला जाएगी।” 

“अरे नहीं रे! जनता अब बबुआ-बबली जैसी भोली नहीं रही कि चंदा मामा की सैर का वादा सुन कर बाबरी हो जाए और हमें वुटिया दे। हम जनता को पहले यहाँ के प्रदूषण, महँगाई, भ्रष्टाचार, बलात्कार आदि की भयानक चुड़ैल टाइप तस्वीर दिखाएँगे। फिर उसे चाँद पर बस्ती बसाने का सब्ज़-बाग़ दिखाएँगे।” 

इतना सुनते ही छोटे ने बड़े के पैर ऐसे पकड़ लिए जैसे युवाओं ने पाश्चात्य संस्कृति के पकड़ लिए हैं। 

ख़ुशी-ख़ुशी छोटे ने घोषणा पत्र की भाषा बनानी शुरू की। उसने चाँद पर प्लॉट बेचने से ले कर वहाँ सड़क, बिजली, पानी, स्कूल, अस्पताल और पुलिस इत्यादि सब कुछ बनाने का वादा कर दिया। बड़े भाईसाब ने पढ़ा। वैसे लिखा बढ़िया था, तो भी, उनका माथा ठनका; यह है तो वही जो सत्तर सालों से चला आ रहा। ससुरा पुराना वाला ही है। आगे भी चल जाता मगर जनता ज़रा समझदार हो गई है। ज़्यादा नहीं, बस, गधी से घोड़ी हो गई है। उसके लिए हमें मजबूरी में ग्रह बदलना पड़ रहा है। वैसे है सब वही। और सब वही क्यों न हो! जब ज़रूरतें वही हैं तो वादे भी वही हैं। आप कह सकते हैं बदलाव, वादे बदलने से नहीं, उन्हें पूरा करने से आएगा। किए गए वादे अमल होने की राह उदास भारत माँ की तरह देख रहे हैं। 

आप ऐसा कहेंगे ही। कह ही रहे हैं। क्यों न कहें, आप नेता-वेता कुछ तो हैं नहीं! बड़े भाईसाब का दुख आप नहीं समझ सकते। इसीलिए उन्होंने ग्रह बदलने का नया वादा किया। देखते हैं कित्ता असर करता है। 

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