क्या आपने निंदा रस की डोज़ ली?
अनीता श्रीवास्तवमन उचाट था। किसी काम में लगता ही नहीं था। टहल कर देखा, छत पर। पड़ोसियों के घरों में झाँक कर भी देखा। राहत नहीं मिली। या यों कहिए राहत के लायक़ कुछ दिखा ही नहीं उन घरों में। मन और अधिक उदास हो गया। एक कप कॉफ़ी पी ली। न, मन नहीं बदला। टीवी? हाँ, चलाया। किन्तु बेचैनी में लगातार चैनल बदले जा रहे थे। न महँगाई के विरोध पर टिकने का मन किया। न लाउड स्पीकर ही कुछ कर पाया।
हाँ, बाबा का चैनल देख कर दिमाग़ एक नई दिशा में ज़रूर दौड़ने लगा था। कहीं किसीने मेरे ऊपर उच्चाटन विद्या का प्रयोग तो नहीं किया! टनों उच्च विचार आते हैं मन में। क्रियान्वित करने की जब बारी आती है, मैं अपने आपको बाइज़्ज़त बरी कर देती हूँ। यह काम तो फलाने का है। और यह! यह ढिकाने का। मेरा क्या है? कुछ नहीं। फिर ख़ाली पन। फिर बोरियत। मन उदास।
तभी एक चमत्कार हुआ। बड़े-बूढ़ों के आशीर्वाद से चमत्कार होते रहते हैं। पड़ोसन आई। बड़ी जल्दी में थी। बोलीं, “प्रेस ख़राब हो गई है। जब सुधरेगी तब सुधरेगी। अभी तो काम न रुके! आपकी प्रेस ख़ाली है?”
मैंने चिहुँक कर कहा, “प्रेस ख़ाली है भाभी जी। बल्कि प्रेस की तरह हम ख़ुद भी ख़ाली हैं।”
बाद वाली लाइन मन ही मन बोली। डर था भाभी जी ने सुन लिया तो कहीं कपड़े ही न धर जाएँ। वे जल्दी में थी फिर भी जाते-जाते उन्हें याद आया, “निधि भाभी सेल से साड़ी लाई हैं।”
“अच्छा . . . “
“दाम पूछ कर देखिएगा “
“क्यों?”
“हज़ार से कम न बताएगी, लिख कर दे सकती हूँ।”
“. . . और है कितने की?”
“दो सौ की।”
सुन कर मेरी आँखें फटी की फटी रह गई। वे चप्पल पहनते-पहनते थोड़ा और बोलीं, “वो तो यह भी न बताएँगी कि सेल की है। किसी शो रूम का नाम बताएँगी।”
“इससे क्या होगा।”
“आदत है उनको, बढ़-चढ़ कर बताने की।”
सुन कर मुझे भी निंदा रस के सेवन की तलब लगी, “उनकी तो आदत है अपनी हर चीज़ को अच्छा और दूसरों से बेहतर बताने की। अपने बच्चों के रिज़ल्ट भी ख़ूब बढ़ा-चढ़ा कर बताती हैं। मैं तो उन्हें ज़रा भी भाव नहीं देती।”
बात-चीत में जैसे-जैसे प्रगति हो रही थी मैं अपनी तबीयत में फ़र्क़ महसूस कर रही थी। वास्तव में निंदा रस बड़ा गुणकारी है। जैसे बुखार के रोगी को पैरासीटामोल देने से धीरे-धीरे तापमान कम होता है, कुछ वैसा ही मामला है।
वैसे यह लाभ भी नसीब वालों को ही मिलता है क्योंकि लोग खांमखां व्यस्त रहते हैं।
वैसे आजकल ख़ुद को व्यस्त दिखाने का फ़ैशन सा है। पिछले दिनों मेरे घर एक महिला अतिथि आई थी। उनकी यहाँ ट्रेनिंग थी। बोलीं हॉस्टल में रुकने के बजाय आपके यहाँ रुकना पसंद किया। इसी बहाने आप लोगों से मिलना भी हो जाएगा। मुझे उनकी मिलनसारिता ने प्रभावित किया। मन गद्गद् हुआ तो थोड़ा बढ़-चढ़ कर मेहमान नवाज़ी करने की सोच ली। पनीर मँगा लिया। बच्चों को अपने साथ बुला कर, बहला-फुसला कर उनका कमरा अतिथि के हवाले कर दिया। वे हाथ मुँह धो कर कमरे में अपना सामान व्यवस्थित करके फिर आ कर मेरे सामने सोफ़े पर बैठ गईं।
“भाईसाब कैसे हैं?” मैंने प्याज़ काटते हुए पूछा।
“ठीक हैं,” मेरी ओर देखे बग़ैर ही उसने कहा, “उनको क्या होना है?”
उसके उत्तर से लगा मैंने अनावश्यक प्रश्न पूछ लिया। भाईसाब तो ठीक रहने के लिए ही बने हैं। उनका आना यूँ तो अच्छा ही था मगर बात-चीत में रुचि लेने के बजाय उन्हें मोबाइल ज़्यादा रुचिकर लग रहा था।
बहरहाल उनकी मिलनसारिता के प्रभाव को मैं झुठला नहीं पा रही थी। मुझे अब भी उम्मीद थी—तुम्हारी सासो माँ का गठिया कैसा है?
“सब कुछ बैठे-बैठे ही मिल जाता है इसलिए बढ़िया है। काम करना पड़े और अस्थि-पंजर हिले-डुले तो दर्द का पता चले . . .” उसने मोबाइल एक तरफ़ रख दिया।
मैं समझ गई, इस बार सही बटन दबाया है। इसके बाद उसने अपनी सासो माँ की खान-पान की आदतों, आराम तलबी और चटोरेपन की पोथी ही बाँच डाली। सुन कर मुझे भी प्रेरणा मिली किन्तु अधिक न बोल सकी; घर में नंद की मौजूदगी के कारण। मगर फिर भी उसकी बातें सुन कर मन हल्का हो गया था।
. . . तो आप भी समय निकाल कर निंदा रस का पर्याप्त डोज़ लेते रहें। जी अच्छा रहेगा। मित्रता प्रगाढ़ होगी और समय का औषधीय उपयोग होगा सो अलग।
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