बड़के को मिले अच्छे संस्कार
अनीता श्रीवास्तव
वे दोनों इस बात पर एक मत थे कि उन्होंने बेटे को अच्छे संस्कार दे दिए हैं। अब चिंता की कोई बात नहीं है। वैसे अच्छे संस्कार की कोई शास्त्रीय परिभाषा उनके पास थी नहीं; लिहाज़ा वे उन सभी बातों को अच्छे संस्कार मानते थे जिनसे बालक उस ट्रेन की एक अच्छी सवारी बनता है, जिसका इंजन पिताजी, और गार्ड माता जी हैं। इस ट्रेन में सुरक्षित यात्रा की अनिवार्य शर्त है—माता-पिता की मानना और उनकी हाँ में हाँ मिलाना। तो यह ट्रेन अपनी इकलौती सवारी बड़का को ले कर उसकी ज़िंदगी के युवावस्था नामक स्टेशन पर पहुँच गई थी।
समाज में कैसे सिर ऊँचा करके जीना है, कैसे रिश्तेदारों के बीच अपनी ठसक बनाए रखना है, घर की बात घर ही में रहे, अपन औरों जैसे थोड़ी हैं, वग़ैरह सब एकदम शानदार तरीक़े से सिखा दिया गया था बड़का को। सिखाना पड़ता है भाई। ज़माना देख रहे हैं! आगीलगे इस ज़माने को। सोशल मीडिया में बगरा ज्ञान। प्रेरक गुरुओं की जगाने वाली बातें। तिस पर आजकल की पढाई-लिखाई। सब मिल कर लड़के को बहका न दें। इसलिए संस्कार देना ज़रूरी होता है।
बाल्यकाल में कहानियों में से सच और झूठ, नैतिक और अनैतिक पर तर्क कर-कर के पिटाई का हक़दार बनने वाला बड़का अब चुपचाप सहमत होने वाल संस्कारी युवक बन गया था। बड़का, अब सच–मुच का बड़ा हो गया था। शादी लायक़ हो गया था। माता जी आश्वस्त थी कि समझाने को अब कुछ नहीं बचा है। बड़का सब समझने लगा है। बचपन से अनवरत दिए जा रहे अच्छे संस्कार जो कि उसमें समय“समय पर कूट-कूट कर भर दिये गए थे, अब तक बढ़िया सेट हो गए थे जैसे पानी के बाद सीमेंट हो जाता है।
अब आप ये मत पूछिएगा कि अच्छे संस्कार क्या होते हैं! आप ख़ूब जानते हैं। जो सबसे अच्छा वाला है हम यहाँ केवल उसी की चर्चा करेंगे। यह कुछ इस प्रकार है—लड़कियों की तरफ़ आँख उठा कर नहीं देखना है। देख भी लिया तो बात नहीं करना है। बात कर भी ली तो उन्हें बहन मानना है। टीन एज तक बड़का भी इसे उच्च कोटि का धर्म समझता रहा। मेरे ख़्याल से जो भी ऐसा समझते हैं वे टीन एजर ही हैं। इसका मतलब यह नहीं कि आप भी ऐसा समझने लगें। लेकिन छोटे चाचू की शादी में जब जम कर नक़दी और दहेज़ मिला तब जा कर बड़के ने इस संस्कार का मर्म जाना कि लड़कियों से बचना क्यों ज़रूरी है। माता-पिता दूर की सोच लेते हैं। इसीलिए अच्छी बातें बचपन से ही घोंट कर पिला देते हैं। गधे थोड़ी हैं! उनका धर्म है लड़के को बहकने से बचाना। यही सब सोच कर बड़के की मम्मी फोन पर, बाहर के खाने-पीने की तरह ही लड़कियों की दोस्ती से भी बचने की सलाह देती रहीं थी।
यूँ ही गोलगप्पे में भरे पानी की तरह, ज़िंदगी में मिला समय बीतता गया। बड़के ने पढ़ाई-वढ़ाई, जित्ती कम लागत में हो सकती है, कर ली। आजकल बड़के की नौकरी लग गई है। इतना होते ही बाक़ायदा उसके लिए रिश्ते भी आने लगे। इंटरनेट वाले भी और रिश्तेदारियों के बीच से भी। पंडित जी भी पत्रा सहित जन्मकुंडली ले कर जब-तब पधार जाते हैं। वैसे वे इधर कम ही आते थे। किन्तु जबसे पुत्र विवाह योग्य हुआ, उन्हें अपनी सम्भावना का द्वार खुला दिखने लगा। परंपरा का सम्मान करते हुए, पुत्र को सुपुत्र ही समझा जाय। सच भी तो यही है कि माता-पिता ने उसे सुपुत्र बनाने में कोई कोर-कसर बाक़ी नहीं छोड़ रखी थी।
अभी मम्मी जी, जो फोटो लिए बैठी हैं वह उनकी भाभी के मायके तरफ़ से आई है। पास सरक कर पापा जी को दिखाई। वे “हूँ” से अधिक कुछ न बोले। “हूँ” भी इसलिए कि कुछ न कुछ तो बोलना था।
“लड़के को दिखा लो।” पहले पायदान पर इतना कहना काफ़ी है।
लड़की के रूप सौंदर्य पर, उनकी कोई टिप्पणी नहीं थी। पता नहीं रूप सौंदर्य मुद्दा था भी या नहीं। इस बाबत जब भी कोई प्रश्न उठा उनका मत था एक नाक दो आँख सबकी होती है सो इनकी भी होगी।
मम्मी ने लड़के को फोटो दिखाने के लिए उसके कमरे की तरफ़ क़दम बढ़ाए। तभी उन्हें याद आया अपनी भाभी से लड़की के पिता की माली हालत के बारे में कुछ दरियाफ़्त कर लें। इधर दूसरी लड़की के पिता भी प्रयासरत हैं। वे बाबू हैं। ये वाले मास्टर हैं। तो क्या करें? जो भी लड़के को पसंद आए वही फ़ाइनल करें। कोई गधा हो तो यही करे। लेकिन ऐसे गधेे न तो पापा हैं, न मम्मी ही हैं। तो कैसे गधेे हैं! आप ख़ुद ही देखिये।
वे दोनों रास्ता बदल कर अपने कमरे में आए। सारी दुनिया से निर्लिप्त हो कर आमने सामने बैठ गए।
दोनों आदमी टेंशन में हैं। बेटे को कौन सी फोटो दिखाएँ। मास्टर की लड़की की या बाबू की लड़की की। बेटा संस्कारी है जो भी दिखाएँगे फटाक से पसंद कर लेगा।
दोनों में बातचीत शुरू हो गई—
“आप क्या सोचते हैं . . . मतलब कौन सी लड़की सही रहेगी?”
“मुझे लगता है, मास्टर की बेटी ठीक है लेकिन . . .”
“दिखने में अच्छी है।”
“पढ़ाई लिखाई भी बढ़िया है। लेकिन . . .”
“लेकिन क्या?”
“दूसरे वाले की इनकम अधिक है।”
“तो फिर उसी की फोटो दिखाओ। वही ठीक रहेगी।”
“मैं तो कहती हूँ दूसरी वाली फ़ाइनल ही कर दो।”
“मगर लड़का . . .”
“लड़का अपना संस्कारी है। जहाँ कहेंगे कर लेगा।”
“मगर होना तो यह चाहिए कि जहाँ लड़का कहे वहाँ हम तैयार हो जाएँ।”
“वो तो किसी फ़क़ीर की बेटी को पसंद कर लेगा तो क्या हम राज़ी होंगे?”
“हाँ ये तो है। हम पहले ही पैसे से मज़बूत पार्टी देखेंगे। फिर लड़की का फोटो उसे दिखाएँगे।”
“बिल्कुल। फोटो तो वह पसंद कर ही लेगा। हमने संस्कार ही ऐसे दिए हैं।”
बड़के को फोटो दिखाई गई।
दोनों परिवारों की मीटिंग तय हुई।
आमने-सामने बैठ कर बात होने लगी।
लड़की की पढ़ाई।
हॉबी।
फ़्यूचर प्लान वग़ैरह।
सब बढ़िया।
अब बड़के के पापा ने बड़के की मम्मी को देखा। फिर बड़के को। फिर लड़की के पिता पर तीर के माफिक नज़रें गड़ा कर बोले, “कितने तक की करेंगे शादी?”
लड़की का पिता अकबका कर इधर-उधर देखने लगा।
बड़का अब उठ कर बाहर चला गया, ताकि बात-चीत खुल कर हो जाए।
ये होते हैं अच्छे संस्कार।
आप क्या चाहते हैं। यह रिश्ता होना चाहिए या नहीं?
2 टिप्पणियाँ
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तंज़ अच्छा है। यह रिश्ता तो क्या ऐसे घर के संस्कारी लड़के के साथ किसी भी 'संस्कारी' लड़की को ब्याहना उसे नरक में ढकेलने जैसा होगा।
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अनीता श्रीवास्तव जी का व्यंग्य आलेख 'बड़के को मिले अच्छे संस्कार' में मध्यम वर्ग की चालाकी को व्यंग्य के माध्यम से व्यक्त किया गया है। हमारे समाज में संस्कारों की आड़ में ऐसा वितान रचा जाता है कि खुद की संतान तक को भनक नहीं लग पाती है। बेटे के बचपन से लेकर शादी तक उनके लिए संस्कार ही मुख्य रहते हैं। बेटे के बाहर खाने-पीने का निषेध हो या किसी लड़की की तरफ आंख उठाकर देखने वाली बात हो सभी पर पैनी नजर। इतनी पैनी नजर तो किसी देश का जासूस दुश्मन देश पर न रखता होगा। बेटा जीवन के चौथाई हिस्से को मां-बाप के संस्कारों का पट्टा बांधे यूं ही निकाल देता है। और जब माता-पिता के संस्कारों की बात आती है तब असली संस्कार समझ में आते हैं। भारतीय समाज ऐसे ही संस्कारों पर टिका अपनी खाल उतरवाता है और दूसरे की भी बेरहमी से उतारता रहता है। आपका यह व्यंग्य आलेख हम सबको आइना दिखा देता है कि हम जैसे दिखते हैं वैसे है नहीं। अंदर से पूरी तरह से घाघ और घुन्ना हैं। कोई हमें ऐसा-वैसा न समझे। बढ़िया व्यंग्य आलेख के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई।
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