थकान

पं. विनय कुमार (अंक: 289, दिसंबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

थकान का आकर 
ठहरना मेरे भीतर 
एक नया आश्चर्य है जो
जीवन को बार-बार ऊर्जस्वित करता रहता है, 
मन में थकान की 'रौ' गूँजती है 
एक थपेड़े-जैसा भाव 
मन के भीतर पैदा होता है 
और वह आता-जाता रहता है अक्सर 
मैं सोचता हूँ 
अपने विचारों के बारे में 
कि क्या मेरे विचारों से 
बदल जाती होगी विचारों की दुनिया 
क्या मेरी वजह से 
शुष्क हो जाया करती है यह धरती? 
हर बार एक सवाल आता-जाता रहता है
निरन्तर 
जब ऐसा लगता है 
कि प्रगति में प्रकृति सन्निहित है 
बसी हुई है प्रगति जो जीवन को
चलाती रहती है निरंतर, 
हर बार 
एक नया भाव जगता है मन में 
लेकिन कोई शुष्कता नहीं रहती, 
कोई मानसिक फिसलन नहीं होती मन के भीतर
क्योंकि मैं हर बार हारता रहा, 
थकता रहा, 
केवल अपने विचारों की वजह से, 
क्योंकि मेरे विचार निरंतर शुष्क पड़ते रहे
और हमारे भीतर 
एक अजीब शक्ति 
मुझे धकाती रही, 
हर बार मैं एक पराजित योद्धा-सा
गिरता रहा भूमि पर! 

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