माँ का नहीं होना
पं. विनय कुमार
(1)
प्रायः हर रोज़ ही माँ याद आती है
विशेष कर जब ख़ाली होता हूँ तो
विशेषकर पर्व-त्योहारों में
जब किसी समस्या से घिर जाता हूँ तब
लेकिन
माँ महसूस होती रहती है
अपने आस-पास ही
मन के भीतर भावों और विचारों में भी
माँ—
नहीं है
अब विश्वास होने लगा है
हाँ—
माँ याद आती है हर रोज़
जब कुछ सूझ नहीं पड़ता
जब—
हमारी कोई मदद नहीं करता
जब मेरे पास कोई नहीं रहता
माँ की बोली
कानों में गूँजती है संगीत की तरह
अक्सर मानसिक समस्याओं में
उसकी आवाज़ कौंधा करती है
बिजली की तरह
और झटके से
एक नया उजाला
भर देती है अंदर
बार-बार सोचकर
लिखते हुए जब रुकने लगती है क़लम
एक नया विचार बनकर आ जाती है
मेरी क़लम के अंदर
हाँ वह माँ ही तो है
जिसके साथ बिताये गए क्षण
मन के भीतर
बार बार स्फूर्त होती हैं हवाओं की तरह।
मुझे याद है आज भी
जब माँ का कहना नहीं माना था
नहीं कराया था इलाज उसका
क्योंकि तब जेब में पैसे नहीं रहते थे पर्याप्त
क्योंकि तब मुझे नौकरी करते हुए
छुट्टी नहीं मिल पाई थी जब।
हर मौक़े पर माँ का मार्गदर्शन काम आता था
संजीवनी बूटी की तरह।
(2)
माँ नहीं है इसीलिए
मेरे भीतर शक्ति नहीं है
कई तरह की शक्तियाँ—
मानसिक, शारीरिक, बौद्धिक
और मैं हर बार
हर परिस्थितियों के सामने
अपने आप को
थका-हारा महसूस करता हूँ
जैसे जल के बिना
पौधे हो जाते हैं उदास।
जैसे सूरज के बिना
घर हो जाता है अँधेरा
और डरावना।
माँ होती थी तो देती थी नई शक्ति
विचारों की शक्ति
भावनाओं की शक्ति
संवेदनाओं की शक्ति।
और मैं अपने आप को
विजयी महसूस किया करता था तब!
क्योंकि अब मेरे भीतर
सारी शक्ति नष्ट हो गई है
और चेतना भी जैसे
लुप्त हो गई है
हवाओं में
ख़ुश्बू बिखर जाने की तरह!
जैसे शून्य में
विलीन हो जाती हैं हवाएँ
और कही गई हर एक बात!