शब्द: तेरे कितने रूप
पं. विनय कुमार
हर बार मेरे शब्द बदलते गए
और शब्दों की लंबी फ़ेहरिस्त
मेरे हिस्से आती गयी
मैंने शब्दों से ही जाना
उसका अर्थ
और जीवन की दिशा-दशा।
जीवन में नया चिंतन
बसता गया
सुबह से शाम बीती
और एक नई थकान आती गई मेरे मन में
शरीर उससे
भिन भिनाता रहा
हर बार परंपरा और धर्म
रीति रिवाज़ की अनिवार्यता
मेरे हिस्से आकर
मेरे भीतर दस्तक देता रहा।
शब्दों का विपर्यय
मुझे सालता रहा
और मैं हर बार हारता रहा
अपने आप से।
मेरी समस्याओं को
किसी ने महत्त्व नहीं दिया
और
बसंत से बना जीवन
पतझड़ में तब्दील हो गया
शब्द आए और गए
अर्थों की पुनरावृत्ति होती रही
जीवन हारता रहा
हर बार।
बचाने कोई ना आया
हर बार बचना?
एक सपना था
जन्म से लेकर मृत्यु तक
दिखती रहीं समस्याएँ दर समस्याएँ
इच्छाओं का मायाजाल
मेरा पीछा करता रहा
संतोष जैसे
उड़ गया था
ख़ुश्बू की तरह!
बार-बार विचार आ रहे थे
मन में
लेकिन सावधान हुआ नहीं जा सका
दुर्घटनाएँ तो होनी ही थी
बचाया किसी को नहीं जा सका
जहाँ केवल शब्दों और अर्थों का फेर था
वहाँ लंबे-लंबे वाक्य धर दिए गए
जहाँ पढ़ने वाला कोई नहीं था
सुनने वाला कोई नहीं था
महसूस करने वाला कोई नहीं था
जहाँ एक आदेश था—लिखित
जहाँ एक आदेश दिया गया था
केवल मौखिक
जहाँ हर एक आदेश
बवंडर की तरह फैल रहा था
चारों ओर—
लेकिन चारों ओर—प्रकृति थी
आनंद और उत्साह था
हवाओं में खनक थी
भीतर जैसे बसंत में
सराबोर होता जा रहा था
मन का एक कोना अभी भी सूखा था
वह अभी भी बात करना चाह रहा था
उसके भीतर के शब्द सूख गए थे
चिंतन की परत जैसे खो गयी थी
प्रकृति में
संभवतः पंचतत्व में
और उनसे बनी हुई
काया और माया में
शब्द तो मैंने बहुत देखे और सुने
महसूसा भी भीतर तक
हर बार एक नया शब्द आकर
दग़ा दे गया!
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