लिखना
पं. विनय कुमार
बार-बार कुछ लिखने के बाद
बदल जाता है मन का भाव
जिसमें होते हैं विचार
जिसमें होती हैं सोची गई कल्पनाएँ
हर एक कल्पना में होता है सृजन का भाव
और जो भीतर तक हमें बाँधता रहता है
अपने चिंतन में
मन के भीतर चलती रहती हैं
अनेकशः भाव धाराएँ
मन के धरातल पर चलते हुए
अनेकशः विचार और द्वन्द्व
हर एक परिस्थितियों के साथ
एकालाप करता हुआ
हमें खींचता है अपनी ओर
अपने लिए
एक नए संसार का
सृजन करता मन-
थकता भी है और हारता भी है
हर बार मन पूछता है एक सवाल
अनगिनत और अनुत्तरित,
हर सवाल के पीछे छिपा होता है
एक और मन का भाव
हर बार एक नया सवाल
पूछता है मुझसे
मेरी कल्पनाओं के बारे में
जब मेरे भीतर की कल्पनाएँ
लौटकर पूछती हैं
मेरे मन के बारे में
एक नई थकान के साथ . . .
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