सेक्युलरिज़्म का ऑपरेशन करता एक उपन्यास
विजय कुमार तिवारी
समीक्षित कृति: सेक्युलर्टाइटिस (व्यंग्य उपन्यास)
उपन्यासकार: मनोज ज्वाला (एम.के. पाण्डेय)
मूल्य: ₹500/-
प्रकाशक: लेखनी प्रकाशन, नई दिल्ली
व्यंग्य-लेखन समाज में व्याप्त विसंगतियों पर प्रहार है। यह साहित्य की एक ऐसी पैनी विधा है जो हालातों पर सीधे आक्रमण करती है तो पाठकों-श्रोताओं को वस्तु-स्थिति समझते देर नहीं लगती। व्यंग्य साहित्य वस्तुतः लक्षित मुद्दों-मसलों का आंत्य-परीक्षण कर देने वाला एक ऐसा तीक्ष्ण साहित्यिक उपकरण है जिसकी धार से वे मुद्दे-मसले तार-तार हो जाया करते हैं। जीवित व्यक्तियों एवं वास्तविक घटनाओं पर व्यंग्य-उपन्यास लेखन का प्रयोग तो अत्यंत जोखिमपूर्ण होता है क्योंकि इससे पाखण्डों का खण्डन हो जाने पर पाखण्डियों को आक्रामक होते देखा जाता है।
ऐसा ही एक व्यंग्य उपन्यास है—‘सेक्युलर्टाइटिस’ जिसके माध्यम से इसके लेखक मनोज ज्वाला जो मूलतः पत्रकार हैं ने ‘सेक्युलरिज़्म’ का ‘पोस्टमार्टम’ कर के रख दिया है। लेखक ने सेक्युलरिज़्म (धर्मनिरपेक्षता) के प्रचलित अनर्थों की शल्य-क्रिया कर के उसे वास्तविक अर्थ प्रदान किया है, जिसके अनुसार यह एक राजनीतिक बीमारी का वायरस और छद्म-साम्प्रदायिकता का पर्याय प्रमाणित हो चुका है; जबकि धर्मनिरपेक्ष तो हुआ ही नहीं जा सकता है। सेक्युलर्टाइटिस एक भीषण व्यंग्य-ध्वनि है, जिससे एक ऐसी राजनीतिक व्याधि का बोध होता है कि उससे राष्ट्रानुरागी मन मानस अशान्त-क्लांत व कुण्ठित हो कर बौद्धिक आघात झेलते रहता है।
प्रायः सच्ची घटनाओं व जीवित-वास्तविक पात्रों (नेताओं-दलों) पर आधारित ‘सेक्युलर्टाइटिस—गुजरात से दिल्ली तक’ नामक इस उपन्यास में २४ अध्याय हैं जिसकी शैली-व्यंग्यात्मक, भाषा आक्रामक व लहजा पत्रकारितापूर्ण है। इसका कालखण्ड भारतीय संसद की लोकसभा का वह ‘चुनाव-काल’ है जिसमें पहली बार मोदी-भाजपा बनाम सोनिया-कांग्रेस-नीत गठजोड़ के बीच मुक़ाबला होता है और नरेन्द्र मोदी अप्रत्याशित रूप से प्रधानमंत्री बन जाते हैं; किन्तु उपन्यास जिस राजनीतिक अनर्थकारिता पर केन्द्रित है उसकी जड़ें १५ अगस्त १९४७ तक पूरी गहराई में व्याप्त हैं। बकौल उपन्यासकार—अँग्रेज़ों से आज़ादी विषयक सत्ता-हस्तान्तरण का सौदा सम्पादित कर लेने के पश्चात सत्तारूढ़ दल के नेताओं द्वारा चिरकाल तक सत्तासीन बने रहने के लिए ऐसी-ऐसी चालबाज़ियाँ अपनायी जाती रहीं कि आज़ादी का अर्थ ही खो गया; राजनीति वेश्यावृति बन गई तो संसद उसकी मण्डी हो गई; हिंसा आतंक व्याभिचार भ्रष्टाचार आदि अवांछित आचार शिष्टाचार में तब्दील हो गए; नीति शील सिद्धांत बेकार हो गए, नेता व्यापारी बन गए, मंत्री मालदार व संत-सज्जन लाचार, तो ज़ाहिर है—धर्म अछूत हो गया और धर्मनिरपेक्षता सबका आदर्श। लेखक ने इन बदले अर्थों व बढ़ते अनर्थों से युक्त एक सियासी शब्दकोश खोज निकाला है और उसे राजनीति के शिखण्डियों एवं मीडिया के ढोलचियों-तबलचियों द्वारा अनाधिकारपूर्वक गढ़ा हुआ बताया है। इसके साथ ही उसने इस अनर्थकारी शब्दकोश के दुष्प्रभाव से जनमानस की सोच व लोकजीवन की दृष्टि में आई विकृतियों को आधार बना कर उपन्यास की पृष्ठभूमि का निर्माण किया है। इस पृष्ठभूमि पर आप पाएँगे कि ऐसे अनर्थकारी सियासी शब्दकोश के प्रचलन में आने के दुष्परिणाम-स्वरूप राम-कृष्ण-शंकर दंगाई तत्व हो गए और अयोध्या-मथुरा-काशी विवादित स्थल तथा राष्ट्रीयता साम्प्रदायिकता हो गई एवं सम्प्रदायवादिता हो गई धर्मनिरपेक्षता; तब लेखक की अनुभूतियों में समूचा देश आन्दोलित हो उठता है, पाषाण-प्रस्तर भी जीवंत हो उठते हैं एवं देश की समस्त जनता के बापू कहे जाने वाले महात्माजी भी राजघाट से गुप-चुप कूच कर जाते हैं अपनी बेटी (जनता) के पास और सत्तासीन राजनेताओं के विरुद्ध मोर्चा खोल देते हैं चुपचाप। उपन्यास में व्यंग्य के साथ हास्य का भी पुट है ज़बर्दस्त। लेखक लिखता है—जिन महात्मा को जीवन-पर्यंत राजपाट के प्रति नहीं रहा कोई आग्रह, जो शान्ति व अहिंसा के लिए करते रहे जीवन भर सत्याग्रह, उन अधनंगे गाँधी की वैशाखी के सहारे सत्तासीन हुए कांग्रेसी हुक्मरानों ने मरणोपरांत उन्हें राजघाट पर स्थापित कर दिया और जिस राजनेता ने राजपाट हासिल करने के लिए हिंसा व अशान्ति से कभी परहेज़ नहीं किया, बल्कि देश का विभाजन कर ख़ून की नदियाँ बहवा दी, उसे मरणोपरांत ‘शान्ति वन’ में स्थापित कर दिया। बकौल उपन्यासकार—ऐसी-ऐसी अनर्थकारी विडम्बनाओं से मर्माहत हो कर जन-चेतना भिन्न-भिन्न रूपों में भिन्न-भिन्न स्थानों पर प्रतिकार करने लगती है।
कथा-क्रम आगे बढ़ता है, तो देश भर में अनर्थ बरपाने वाली सत्तारूढ़ पार्टी (कांग्रेस) और उसके सहयोगी दलों व उनके नेताओं के विरुद्ध आन्दोलन छिड़ जाता है—कहीं बाबा रामदेव के नेतृत्व में, तो कहीं अन्ना हजारे के नेतृत्व में; कहीं महात्मा गाँधी के हमशक्ल बापू के नेतृत्व में, तो कहीं अन्य साधु-संतों के साथ मुख्य विपक्षी दल हिजपा (भाजपा) के नेतृत्व में। आन्दोलन का तरीक़ा गाँधीवादी होने से ऐसा प्रतीत होने लगता है—जैसे महात्मा गाँधी ही भिन्न-भिन्न रूपों में सत्ता के विरुद्ध संघर्षरत हों। उसी दौरान आम चुनाव की घोषणा हो जाती है, तो सत्तासीन पार्टी (कांग्रेस) के नेतागण विरोधियों के अभियान से निबटने के लिए उन्हें साम्प्रदायिक घोषित कर उनके विरुद्ध महात्मा गाँधी को ही अपने नेता के तौर पर चुनाव-मैदान में उतार देने का निर्णय ले लेते हैं। इस निमित्त राजघाट पर महात्माजी की समाधि के समक्ष प्रार्थना-सभा का आयोजन किया जाता है, जिसका कोई परिणाम नहीं निकलता; उल्टे यह मालूम होता है कि महात्माजी बहुत पहले ही राजघाट से गुम हो चुके हैं। एक काल्पनिक कथाक्रम से शासन को जब यह जानकारी मिलती है कि महात्माजी पीड़ितों-विस्थापितों के साथ किसी मुक्तिधाम आश्रम में रहते हैं तब आनन-फ़ानन में सरकारी प्रतिनिधि के तौर पर कांग्रेसी नेता धिग्गी बाबू वहाँ पहुँचते हैं और शरणार्थियों के महात्मानुमा नेता को सचमुच का गाँधी मान उन्हें कांग्रेस का स्थायी तारणहार होने का वास्ता दे कर कांग्रेस बनाम हिजपा की चुनावी जंग को धर्मनिरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता की लड़ाई घोषित करते हुए उन्हें जनजागरण-अभियान चलाने का प्रस्ताव देते हैं। उधर बीस जनपथ (दस जनपथ) को भी सूचना दे देते हैं कि महात्माजी अब राजघाट नहीं लौटेंगे, क्योंकि वे ‘हिन्द-स्वराज’ पाना चाहते हैं तथा वे पुनर्जन्म पा चुके महात्मा गाँधी से चुनाव-प्रचार के बाबत सम्पर्क स्थापित कर चुके हैं और इस आधार पर मैडम के दरबार में अपना ओहदा और ऊँचा कर चुके होते हैं। उनके सहयोगी दलों के नेताओं को विश्वास नहीं होता है, तब वे उन सब को ले कर मुक्ति-धाम पहुँच जाते हैं, जहाँ महात्मा जी ‘कृष्ण-धुन’ गा रहे होते हैं। वहाँ लेखक सभी धर्मनिरपेक्ष नेताओं का परिचय धिग्गी बाबू (दिग्विजय सिंह) के मुख से कराता है। लेखक ने तमाम पार्टियों और उनके नेताओं के नाम इस तरह से बदल रखा है कि आप अनायास ही समझ जाएँगे उनके असली नाम।
उपन्यास में व्यंग्य की भाषा पात्रों के गुण व स्वभाव के अनुसार बड़े ही तार्किक ढंग से गढ़ी हुई है। जैसे-कमानिष्ट नेतागण महात्माजी के ‘गाँधी’ होने पर सवाल खड़ा करते हुए कहते हैं कि “सचमुच के महात्मा गाँधी तो रामधुन गाया करते थे, लेकिन ये तो कृष्ण-धुन गा रहे हैं”; तब महात्माजी उन्हें जवाब देते हुए कहते हैं कि “जब रावण-रूपी विदेशी आतताई अँग्रेज़ों से लोहा लेने के लिए राम के आदर्श की ज़रूरत थी, तो रामधुन आवश्यक थी; किन्तु अब चूँकि देशी शिखण्डियों से ही पंगा लेना है, इसीलिए अब कृष्णधुन अपरिहार्य है।” फिर कमानिष्ट नेतागण महात्माजी को कांग्रेस का ‘परमानेण्ट इम्पलाई’ बताते हुए उन्हें कांग्रेस के पक्ष में चुनावी प्रचार करने हेतु विवश करने लगते हैं, तब महत्माजी किसी पार्टी-विशेष के पक्ष में जाने से इंकार करते हुए साम्प्रदायिकता के विरुद्ध अभियान चलाने को तो सहमत हो जाते हैं, किन्तु स्वयं धार्मिक होने के कारण धर्मनिरपेक्षता के प्रति अनभिज्ञता जताते हुए यह शर्त लगा देते हैं कि धर्मनिरपेक्षता क्या है यह बताने-समझाने के लिए कांग्रेस आदि तमाम धर्मनिरपेक्ष दलों को किसी सार्वजनिक स्थान पर ‘धर्मनिरपेक्षता-प्रदर्शनी’ आयोजित करनी होगी। प्रतिद्वंद्वी हिजपा से निबटने की मजबूरीवश वे सभी नेतागण ‘मैडम’ के आदेशानुसार महात्माजी की यह शर्त मान लेते हैं, तब गुजरात के गोधरा में एक भव्य पण्डाल के नीचे तमाम धर्मनिरपेक्ष दलों के प्रवक्ता-कार्यकर्ता अपने-अपने नेताओं की आदमक़द तस्वीरों के साथ अपनी-अपनी दुकानें सजा लेते हैं, जिनमें उनकी तरह-तरह की धर्मनिरपेक्षताओं की प्रोफाइलें अर्थात् धर्मनिरपेक्ष करतूतों की मिसालें सजी होती हैं और सामने दर्शक दीर्घा से आम जनता के साथ संवाद करते हुए महात्माजी उन सबका अवलोकन व अनुश्रवण कर रहे होते हैं। लेखक ने महात्मा गाँधी को पुनर्जीवित करने तथा उनके पुनर्जीवन का औचित्य सिद्ध करने और देश में एक अभूतपूर्व आन्दोलन खड़ा करने मात्र के लिए कल्पना का सहारा लिया है; किन्तु उपन्यास का जो लक्षित विषय है, उसके विश्लेषण में, अर्थात् धर्मनिरपेक्षता को प्रदर्शित व परिभाषित करने में तत्सम्बन्धी सच्ची घटनाओं को ही तर्कों-तथ्यों के साथ उद्धृत किया हुआ है। न केवल घटनायें, बल्कि उनके पात्र भी जीवन्त एवं वास्तविक हैं और तर्कों तथ्यों प्रमाणों से युक्त एवं हास्य-व्यंग्य की चाशनी से संपृक्त हैं। इतना ही नहीं, लेखक ने भिन्न-भिन्न दलों के विभिन्न धर्मनिरपेक्ष कारनामों को क़िस्म-क़िस्म की धर्मनिरपेक्षताओं का नाम देते हुए उनका नामकरण भी बड़े तार्किक ढंग से ऐसे किया है कि उससे पाठकों में हँसी-ठिठोली की गुदगुदी पैदा हो जाती है तथा हास्यपूर्ण जिज्ञासा-भाव से वह उनके बारे में जानने के लिए आगे पढ़ने-बढ़ने से अपने को रोक नहीं पाता है और पढ़ लेने पर उसे विस्मित कर देने वाली ऐसी-ऐसी जानकारियाँ मिलती है जिनके बारे में मीडिया में कभी कोई चर्चा तक नहीं हुई होती है। जैसे देखिए—इस्लाम के विस्तार हेतु शरीअत के अनुसार लेन-देन करने वाले इस्लामिक बैंक की स्थापना के बाबत इण्डियन बैंकिंग रेग्युलेशन एक्ट-१९४९ व इण्डियन कॉपरेटिव सोसायटी एक्ट-१९६१ आदि क़ानूनों का उल्लंघन करते हुए अल बरकाह फाइनेन्शियल सर्विसेज़ लिमिटेड नामक संस्था को केरल स्टेट इण्डस्ट्रियल डेवलपमेण्ट कॉरपोरेशन के ज़रिये सरकारी ख़जाने से भारी-भरकम पूँजी उपलब्ध कराने वाली कांग्रेसी करतूत को लेखक ने ‘नगदी धर्मनिरपेक्षता’ का नाम दिया है। उपन्यास में कांग्रेस को दुनिया की सबसे समृद्ध धर्मनिरपेक्ष पार्टी बताया गया है, जिसके पिटारे में एक से एक विचित्र-विचित्र धर्मनिरपेक्षतायें हैं; मसलन-स्कूल-कॉलेजों की पाठ्यपुस्तकों में धार्मिक देवी-देवताओं व हिन्दू-महापुरुषों का चरित्र हनन करने तथा मुस्लिम-आक्रान्ताओं को महान घोषित करने एवं हिन्दू-भावनाओं के विरुद्ध झूठी बेहूदी बातों के लेखन-फिल्मांकन की छूट देने एवं मुस्लिम-मज़हबी मान्यताओं का सच लिखने-फ़िल्माने पर भी रोक लगा देने वाली ‘सफ़ेद धर्मनिरपेक्षता’; संस्कृत के उन्मूलन की छद्म-व्यवस्था क़ायम कर देने व अरबी-उर्दू आदि मज़हबी भाषाओं के संवर्द्धन पर करोड़ों रुपये का सरकारी अनुदान देने वाली ‘भाषिक धर्मनिरपेक्षता’; महाराणा प्रताप व शिवाजी आदि योद्धाओं को साम्प्रदायिक खलनायक बताने और हुमायूँ-अकबर आदि मुग़ल शासकों को भारत की ऐतिहासिक पहचान घोषित करने वाली ‘सांस्कृतिक धर्मनिरपेक्षता’; पूरी तरह से वैध स्थान पर बने मंदिरों को मुस्लिम समाज की तुष्टि के लिए धवस्त कर देने एवं निहायत अवैध स्थान पर सरकारी ख़जाने से मस्जिदों व हज हाऊसों का निर्माण करते रहने तथा दरगाहों व क़ब्रिस्तानों की सुरक्षा के बाबत चारदीवारियाँ निर्मित करते रहने वाली ‘निर्माणकारी धर्मनिरपेक्षता’; आतंक-जिहाद-सम्पन्न मुस्लिम समाज के समान हिन्दू समाज को भी आतंकी सिद्ध करने के लिए भगवा-आतंक की व्यूह-रचना करने वाली ‘समानतावादी धर्मनिरपेक्षता’; गौ-हत्या को बढ़ावा देने वाली दुधारू व दुधारी धर्मनिरपेक्षता। इन सब धर्मनिरपेक्षताओं को भिन्न-भिन्न कांग्रेसी-वामपंथी-समाजवादी करतूतों के उदाहरणों द्वारा व्यंग्यात्मक तरीक़े से हास्य भरे तीखे-चुटीले शब्दों में समझाया गया है। बतौर कांग्रेसी प्रवक्ता—उसकी ‘वैदेशिक धर्मनिरपेक्षता’ की तासीर बड़ी गरम है, जिसकी चार-चार क़िस्में हैं: पहली—विदेशी रोहिंग्या-बांग्लादेशी मुसलमानों को भारत में बसाने वाली; दूसरी—पाकिस्तान से पीड़ित हिन्दुओं को भारत में नहीं आने-बसने देने वाली; तीसरी—विभाजनोपरान्त पाकिस्तान चले गये मुसलमानों को उनकी ज़ब्त हो चुकी भारतीय सम्पत्ति लौटा देने का प्रावधान करने वाली धर्मनिरपेक्षता, जिसके लिए अवैध आव्रजक निर्धारक अधिनियम एवं शत्रु-सम्पत्ति विधेयक में कई बार अवांछित संशोधन व न्यायिक निर्देशों का उल्लंघन कर चुकी है कांग्रेस। इसकी चौथी क़िस्म है—अमरनाथ (तिब्ब्त-चीन) एवं कटासरज (पाकिस्तान) की तीर्थयात्रा पर जाने वाले हिन्दुओं से टैक्स वसूलने तथा उनकी सुरक्षा के बाबत उन्हें ही ज़िम्मेवार ठहराने और मक्का-मदीना (सऊदी अरब) हज पर जाने वाले मुसलमानों को सरकारी अनुदान के साथ-साथ सुरक्षा की भी गारण्टी देने वाली धर्मनिरपेक्षता। इस धर्मनिरपेक्षता के बाबत कांग्रेसी प्रवक्ता आगे जब यह बताता है कि “भारत में रह सकते हैं दुनिया भर के मुसलमान, किन्तु पाकिस्तान के हिन्दू नहीं रह सकते, जिन्हें धर्मान्तरित-प्रताड़ित करते रहते हैं पाकिस्तानी हुक्मरान”; तब दर्शकों में आक्रोश फूट पड़ता है और कोई यह कहते हुए कांग्रेसी काउण्टर पर लट्ठ पीटने लगता है—धड़ाम-धड़ाम! कि ‘बन्द करो ऐसी धर्मनिर्पेक्षता की यह दुकान’ तो महात्माजी सबको शान्त करते हैं और कांग्रेस की अन्य नरम-नरम धर्मनिरपेक्षताओं का अवलोकन करने लगते हैं। उन्हें मालूम होता है कि स्कूलों-कॉलेजों में सरस्वती-पूजा-वन्दना व भारतमाता की जयकार एवं योग-ध्यान पर रोक लगा देने तथा नमाज व अज़ान की खुली छूट प्रदान कर देने वाली ‘सात्विक धर्मनिरपेक्षता’ का आविष्कार भी कांग्रेस ने ही किया है। दर्शक इस तरह की धर्मनिरपेक्षतओं से ऊबने लगते हैं, तब उन्हें नए करतब दिखाते मदारी की भाँति उछल कर एक अन्य कांग्रेसी प्रवक्ता ख़ास तरह की धर्मनिरपेक्षता दिखाते हुए कहता है कि यह ‘लाभदायक’ भी है व ‘पुण्यदायक’ भी। कांग्रेस ने इसका निर्माण सन १९७० में किया है, जिसके तहत ‘हज गुड्विल डेलिगेशन’ नामक प्रतिनिधि-मण्डल में देश भर से चुन-चुन कर ख़ास-ख़ास मुसलमानों को शामिल कर उन्हें प्रति सदस्य अठारह-अठारह लाख रु० के साथ सरकारी ठाट-बाट से सऊदी अरब भेजा जाता रहा है प्रति वर्ष, जहाँ वे पूरे एक महीना रहते हैं और अपने मन-माफिक मज़हबी धंधे के लिए धन-उगाही करते हैं, अर्थात् पुण्य व लाभ दोनों कमा लेते हैं। कोई इससे सरकारी धन के अपव्यय की बात उठाता है, तब प्रवक्ता बताता है कि उस धन की भरपाई के लिए कांग्रेस ने सन १९५१ में ही ‘दी हिन्दू रिलीजियस टेम्पल एण्ड चैरिटेबल एण्डोमेण्ट एक्ट’ नाम से एक क़ानून क़ायम कर धनार्जनकारी धर्मनिरपेक्षता का भी ईजाद कर रखा है, जिसके सहारे मन्दिरों का अधिग्रहण कर उसकी आय को मस्जिदों-चर्चों के रंग-रोगन और हाजियों के हज-प्रबन्धन पर ख़र्च करती है सरकार। इस धर्मनिरपेक्षता के प्रभाव से तिरुपति बालाजी मन्दिर व सिद्धि विनायक मन्दिर सहित समूचे देश भर के लाखों समृद्ध मन्दिर सरकार के क़ब्ज़े में आ गए हैं। लोगों को इस पर अविश्वास न हो, इसके लिए उपन्यासकार ने स्टीफ़न कन्नाप नामक एक विदेशी अँग्रेज़ी लेखक की पुस्तक—‘क्राईम अगेन्स्ट इण्डिया एण्ड ए नीड टू प्रोटेक्ट एन्शिएण्ट वैदिक ट्रेडीशन’ प्रवक्ता के हाथों महात्माजी के सामने प्रस्तुत किया है, जिसमें विस्तार से यह वर्णन है कि मन्दिरों की आय से कैसे होता है हज का उपाय। इस धर्मनिरपेक्षता से लोग-बाग फिर इतने आक्रोशित हो जाते हैं कि उनमें से कोई चिल्ला उठता है—माल महाराज के मिर्ज़ा खेले होरी . . .! यह धर्मनिरपेक्षता है या हरामख़ोरी? तब महात्माजी स्थिति विस्फोटक होने से सम्भालते हैं और लोगों को संयत करते हुए अन्य धर्मनिरपेक्षताओं का अवलोकन करने लगते हैं, तो उन्हें मालूम होता है कि बच्चों को अक्षर-ज्ञान कराने वास्ते सरकारी स्कूलों में ‘ग’ से गणेश या गाय के बजाय गदहा पढ़ाये-सिखाये जाने और सरस्वती-पूजा व सूर्य-नमस्कार पर प्रतिबंध लगाने और पृथ्वी व नदी को माता नहीं कहने का संदेश देने वाली धर्मनिरपेक्षता भी कांग्रेस की ही देन है। इस पर नाराज़ होते हुए महात्माजी हठात् बोल उठते हैं, “ये लोग तो सचमुच गदहा हैं जी” और अन्य दलों की धर्मनिरपेक्षताओं का अवलोकन करने आगे बढ़ जाते हैं। उधर त्रिमूली कांग्रेस (त्रिणमूल कांग्रेस) की प्रवक्ता अपनी दीदी (मोमता बानो अर्जी) की ‘मासिक धर्मनिरपेक्षता’ का बखान करने लगती है, तो सभी चौंक पड़ते हैं—कोई भी स्त्री ‘मासिक धर्म’ से निरपेक्ष भला कैसे हो सकती है? इस तीखे व्यंग्य से प्रवक्ता शर्मसार होती हुई बताती है कि मस्जिदों के मौलानों को राज्य के सरकारी ख़जाने से मासिक मानधन देने का प्रावधान करने वाली दीदी के इस कारनामे का नाम है—‘मासिक धर्मनिरपेक्षता’।
इसी तरह से उपन्यास में इस प्रकार की अनेक धर्मनिरपेक्षताओं का तो विस्तार से वर्णन हुआ ही है; किन्तु गोधरा-गुजरात काण्ड-२००२ पर विभिन्न कोणों से व्यापक व्यंग्य-चर्चा हुई है। देखिए कतिपय तथ्यों-सत्यों पर आधारित इसके वे सूत्र-समीकरण, जिसके आधार पर तीन चरणों में निर्मित इस धर्मनिरपेक्षता का विश्लेषण किया गया है—गोधरा हुआ अकारण . . . गुजरात कराया मोदी शासन; गोधरा में हिन्दू मरे तो वे स्वयं दोषी . . . गुजरात में मुसलमान मरे तो नरेन्दर मोदी; गोधरा के लिए हिन्दू ज़िम्मेवार . . . गुजरात के लिए हिजपाई सरकार . . .। इस गोधरी धर्मनिरपेक्षता के कारण अनेक शब्दों के अनर्थ क़ायम हुए बताये गए हैं; यथा: गोधरा का अर्थ हुआ दुर्घटना का परिणाम; गुजरात मतलब ख़तरे में मुसलमान; जबकि भाषा-व्याकरण के अनेक नियमों एवं अभिव्यक्ति-कला व साहित्य के मान्य प्रतिमानों को ध्वस्त हो जाने और नये-नये मुहावरों का जन्म हो जाने की सूचना दी गई है; यथा: गोधरा-गुजरात शब्द संज्ञा से क्रिया में हो गए परिवर्तित, जबकि नरेन्द्र मोदी नाम ख़तरनाक विशेषण के तौर पर हो गया स्थापित।
प्रायः सभी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के प्रवक्तागण ‘गोधरा काण्ड’ को महज़ एक दुर्घटना घोषित कर दंगाई-मज़हबियों का बचाव करते एवं गुजरात-हिंसा को सुनियोजित दंगा बताते हुए हिजपा (भाजपा) व मोदी को हिंसक-साम्प्रदायिक सिद्ध करने की मशक़्क़त करते दिखते हैं तथा साथ ही इस धर्मनिरपेक्षता के आविष्कार का श्रेय अपनी-अपनी पार्टियों को दिलाने के दौरान इसके लिए परस्पर लड़ने-भिड़ने भी लगते हैं और उस अफ़रा-तफ़री में कांग्रेस व राजद के बीच एनजीओ एवं मानवाधिकारवादी-संगठन के लोग भी पेलिया कर ‘वाम-राग’ आलापने लगते हैं। फलतः लेखक के उक्त संवाद-चातुर्य से गोधरा-गुजरात मामले के उन तमाम तथ्यों का पर्दाफ़ाश हो जाता है, जिन्हें छिपाते हुए फ़र्ज़ी कहानियाँ रच-गढ़ कर झूठे गवाहों एवं बनर्जी आयोग व मीडिया के सहयोग से नरेन्द्र मोदी व भाजपा का राजनीतिक भविष्य बर्बाद कर देने का अभियान चलाया गया था। मौक़े पर वामपन्थी पार्टियों के प्रवक्ता अपनी करतब दिखाने लगते हैं, जिससे दोनों दलों में टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। मामला शांत होने पर कांग्रेसी प्रवक्ता ‘सुल्तानी धर्मनिरपेक्षता’ प्रदर्शित करता है, जिससे मुसलमानों को समूचे समाज का सुल्तान और हिन्दुओं को उनका ग़ुलाम बना देने के बाबत प्रस्तावित ‘साम्प्रदायिक व लक्षित हिंसा रोधी विधेयक’ (जिसे क़ानून का रूप नहीं दे सकी कांग्रेस) तार-तार हो जाता है। इसी तरह से हिजपा के साथ गठबंधन के बावजूद जडयु-नेता (बिहार के मुख्य मंत्री) द्वारा मोदी को अछूत मान पटना में उनके साथ की तस्वीरों से युक्त पोस्टरों को उखड़वा-फेंकवा देने तथा बिहार को बाढ़ राहत हेतु गुजरात की मोदी-सरकार द्वारा भेजी गई सहायता-राशि का बैंक ड्राफ्ट वापस भेजवा देने और मोदी को हिजपा द्वारा चुनाव-अभियान की कमान सौंप देने के विरुद्ध आसमान सिर पर उठा लेने वाले अनीतीश बाबू की ‘आसमानी धर्मनिरपेक्षता’ पर पाठक ख़ूब मौज लेते हैं। हज़ारों टन पशु-चारा खा कर पेट का इलाज कराने वास्ते जेल में भर्ती होते रहने वाले और धर्मनिरपेक्षता को मथ-मथ कर उसमें से राबड़ी निकाल उसे बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रख देने वाले अराजद के गालू यादव की ‘शानदार’ ‘मलाईदार’ व ‘हवाईदार’ धर्मनिरपेक्षता के चटपटे स्वाद का क्या कहना!
जबकि, बकौल अराजद प्रवक्ता, “हमारे यहाँ सिर्फ़ प्रोसेसिंग व मैन्युफ़ैक्चरिंग होती है, कच्चा माल दूसरे दलों का होता है।” लेखक ने छोटे-मझोले क्षेत्रीय दलों की धर्मनिरपेक्षताओं को उनके नेताओं की कथनी-करनी के इर्द-गिर्द घूमती हुई दिखा कर उन्हें भी एकबारगी नंगा ही कर दिया है। जैसे—मसाजवादी पार्टी (समाजवादी पार्टी) के मुलायमुद्दीन यादव (मुलायम यादव) द्वारा अयोध्या में कारसेवक-रामभक्तों को गोलियों से भुनवा देने तथा रामजन्मभूमि से सम्बद्ध चौरासी कोसी परिक्रमा-यात्रा पर प्रतिबंध लगा देने का पराक्रम करने वाली ‘पराक्रमी धर्मनिरपेक्षता’ और राज्य की विभिन्न जेलों में बन्द कुख्यात जिहादी आतंकियों पर से तमाम हिंसक-आपराधिक मुकदमे वापस ले कर उन्हें जेलों से रिहा करा देने एवं उनमें से दुर्दांत मज़हबियों को राज्यसभा का सदस्य बनवा देने वाली ‘कठोर धर्मनिरपेक्षता’। इस पार्टी का प्रवक्ता जालीदार टोपी पहने अपने नेता की तस्वीर के गले में लटकती हुई तख़्ती पर लिखे शब्दों को बाँचते हुए कहता है, “ये ऐसी धर्मनिरपेक्षतायें हैं कि इनका ईजाद करने के लिए पार्टी-सुप्रीमो ख़ुद को मुल्ला-मौलवी के रूप में रूपान्तरित कर लेते हैं और मुलायम के बजाय मुलायमुद्दीन कहे जाने पर फ़ख़्र महसूस करते हैं। फिर तो पूरी प्रदर्शनी में ही सभी पार्टियों के प्रवक्ता अपने-अपने नेताओं की मुस्लिम-परस्ती व जेहदी-मज़हबी मनोवृति को ही धर्मनिरपेक्षता घोषित-प्रदर्शित करने की होड़ मचा देते हैं। कभी कोयम्बटुर में भाजपाई नेता लालकृष्ण आडवाणी की सभा पर भीषण बम विस्फोट कर ५८ व्यक्तियों की जान ले लेने एवं सैंकड़ों को अपाहिज बना देने के आरोप में जेल भुगत रहे कुख्यात जिहादी-आतंकी नसीर मदनी को प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति के सरकारी डॉक्टरों से देह मालिश कराने वाली ‘असली धर्मनिरपेक्षता’ वैसे तो राम को पीयक्कड़ घोषित करने वाले द्रमुक-नेता दरुवानिधि (करुणानिधि) के प्रवक्ता द्वारा प्रदर्शित की जाती है, किन्तु उसके ईजाद में चूँकि कांग्रेस कम्युनिष्ट एवं दमुक व अन्नाद्रमुक भी शामिल रहे हैं, इसलिए सब के प्रवक्ता आपस में भिड़ जाते हैं। अंततः वाक-बल से सम्पन्न वामपंथी उन सबको पछाड़ कर अपनी धाक जमाते हुए दर्शकों को ‘लाल तम्बू’ में ले जाते हैं और बताते हैं कि “हमारे यहाँ राजनीति की अनेक प्रयोगशालायें स्थापित हैं, जिनमें फासिज़्म-टेररिज़्म-कैपटलिज़्म-सोसोलिज़्म एवं कॉमुनलिज़्म के साथ-साथ सेक्युलरिज़्म (धर्मनिरपेक्षता) पर भी क़िस्म-क़िस्म के प्रयोग-परीक्षण व चिन्तन-मंथन होते रहते हैं।” लेखक ने तमाम वामपंथी नेताओं को राजनीति विज्ञान के स्वयंभूव वैज्ञानिक बताते हुए उन्हें ‘रंग बदलने’ में सिद्ध-हस्त ‘रंग-मर्मज्ञ’ क़रार दिया है और उन्हें गुजरात को ‘संज्ञा’ के बाजाय ‘क्रिया’ सिद्ध करने वाले ‘धर्मनिरपेक्ष व्याकरण’ एवं लाल रंग को क्रांतिकारी व भगवा रंग को साम्प्रदायिक होने का अर्थ प्रदान करने वाले ‘अनर्थकारी शब्दकोश’ का निर्माता बता कर उनकी ख़ूब छीछालेदर की है। वामपंथी प्रवक्ता जब यह कहते हैं कि “सभी तरह की धर्मनिरपेक्षताओं का निर्माण वामपंथ की प्रयोगशाला में ही हुआ है, जिसके बाबत वामपंथी विचारक वर्षों से देश के तमाम शैक्षिक-बौद्धिक संस्थानों व मीडिया-प्रतिष्ठानों में सक्रिय रहे हैं”, तब कांग्रेसी प्रवक्ता वामपंथियों के इस बड़बोलेपन को बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं और उन्हें कांग्रेस के टुकड़ों पर पलने वाले दलाल कहते हुए उनसे दो-दो हाथ करने लगते हैं, तो पुलिस को फिर हस्तक्षेप करना पड़ता है।
उपन्यास में धर्मनिरपेक्षता का प्रदर्शन अन्ततः धर्मनिरपेक्ष नेताओं के चरित्र-चित्रण में तब्दील हो जाता है और उस दौरान विभिन्न दलों के प्रवक्ताओं में अपने-अपने नेताओं को मनसा-वचसा-कर्मणा सर्वतोभावेन एक-दूसरे से अधिकाधिक मज़हबी दिखने-दिखाने का घमासान मचा हुआ दिखाया गया है। कोई प्रवक्ता अपने किसी नेता को जालीदार टोपी के साथ लम्बा कुर्ता-छोटा पजामा पहने होने के कारण अधिक धर्मनिरपेक्ष बता रहा होता है, तो कोई किसी को नमाज पढ़ते या किसी दरगाह पर चादर चढ़ाते दिखा-दिखा कर उसे असली धर्मनिरपेक्ष क़रार दे रहा होता है। उसी घमासान के बीच कांग्रेसी प्रवक्ता अपने तमाम बड़े नेताओं के आदमक़द कटाउट्स की ओर इंगित करते हुए जब यह बताता है कि “हिन्दू होने के बावजूद इन सबने सुन्नत भी कर ली है . . . पजामे के भीतर का इनका फोटोग्राफ्स देखिए”, तो यहाँ लेखक का व्यंग्य-वाण पराकाष्ठा की सीमा लाँघ कर इतना तीक्ष्ण हो जाता है कि उससे दर्शक-पाठक भी नैतिक रूप से आहत हो जाते हैं और आगे देखने-जानने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं, सो अपनी हथेलियों से आँखें बन्द कर इंकार के स्वर में चिल्ला उठते हैं, “. . . रहने दीजिए . . . रहने दीजिए!” व्यंग्य की ऐसी तीक्ष्णता अत्यंत जोखिमपूर्ण है; लेकिन यह जानते हुए भी लेखक अपनी लेखनी को धार देता रहा है, जो आगे तब उस्तरा ही बन जाती है, जब उस अफ़रा-तफ़री में धर्मनिरपेक्षता की धारणा को दिल-दिमाग़ पर ले लेने के कारण गिरने-लुढ़कने से मूर्छित हो असामान्य हरकतें करते लोगों को स्वास्थ्य शिविर में भर्ती कर उनकी रुग्णता के बाबत जाँच-पड़ताल की जाती है। उपन्यासकार की लेखनी मरीज़ों के मर्ज़ की तह में चीर-फाड़ कर बतौर निष्कर्ष-चिकित्सकीय प्रतिवेदन में यह लिख डालती है कि इस बीमारी का नाम ‘सेक्युलर्टाइटिस’ है, जो हेपेटाइटिस व एड्स की तरह लाईलाज है; किन्तु फिजिकल-सेक्सुअल नहीं, बल्कि ‘धर्मनिरपेक्षता’ कहे जाने वाले ‘सेक्युलरिज़्म’ के संक्रमण से उपजा हुआ घोर पॉलिटिकल व सेण्टिमेण्टल है।
लेखक सिर्फ़ मर्ज़ ही नहीं दिखाता है, बल्कि मर्ज़ की दवा भी बताता है; जिसके लिए उसने धर्मनिरपेक्षता शब्द के अर्थ विलोमर्थ समानार्थ निहितार्थ व यथार्थ की विशद व्याख्या करते हुए उसकी शल्य-क्रिया कर देने के पश्चात महात्माजी के नेतृत्व में राष्ट्रव्यापी एकात्मता जागरण अभियान चलाया है और यह सत्य स्थापित कर दिया है कि धर्मनिरपेक्षता असल में छद्म-साम्प्रदायिकता है, जो विभेदकारी व विभाजनकारी है और इसका निदान ‘राष्ट्रीय एकात्मता’ है; जबकि धर्मनिरपेक्ष तो हुआ ही नहीं जा सकता है; क्योंकि समस्त विश्व-वसुधा धर्म की ही परिणति व अभिव्यक्ति है तथा राजनीति की तो उत्पत्ति ही धर्म से हुई है और यह भी कि साम्प्रदायिकता का समाधान धर्मनिरपेक्षता नहीं, अपितु राष्ट्रीय एकात्मता है। इसके साथ ही उसने हिजपाइयों (भाजपाइयों) को भी इस बाबत आड़े हाथों लिया है कि वे भी धर्मनिरपेक्ष होना—दिखना चाहते हैं, जिसके लिए वे इस अनर्थ को ‘छद्म-साम्प्रदायिकता’ कहने के बजाय इसे ‘छद्म-धर्मनिरपेक्षता’ कहते हैं। उपन्यास के अन्त में राजघाट पर बंग्लादेशी मुस्लिम घुसपठियों को बसाने हेतु पाकिस्तानी हिन्दू विस्थापितों को खदेड़े जाने से दुखी महात्मा के मौन सत्याग्रह एवं रोमांचक चुनावी घटनाक्रम के ज़रिये बड़ी शिद्दत से यह दिखाया गया है कि इस जन-जागरण अभियान के परिणामस्वरूप धर्मनिरपेक्षतावादियों की क़रारी हार हो जाने और मोदी-भाजपा की जीत सुनिश्चित हो जाने से बौखलाई हुई सत्ता की पुलिस महात्माजी को साम्प्रदायिकता फैलाने के झूठे आरोप में गिरफ़्तार करने लगती है, तब उनका विराट रूप सर्वव्याप्त हो जाता है . . . सड़कों पर जन-ज्वार फूट पड़ता है और लेखक नेपथ्य से बोल उठता है—ख़बरदार! शब्दार्थ व भावार्थ नहीं बदल सकती है कोई भी सरकार! फिर तो हिजपा (भाजपा) ही सत्तासीन हो जाती है, जिसे साम्प्रदायिक बताते रहे थे सारे धर्मनिरपेक्ष नेता बार-बार।
दिल्ली के लेखनी प्रकाशन से प्रकाशित लगभग ३०० पृष्ठों के इस उपन्यास में जिस तर्क व अर्थ से धर्मनिरपेक्षता को छद्म-साम्प्रदायिकता घोषित-प्रमाणित किया गया है और उसके विरुद्ध जिस दमदार तरीक़े से राष्ट्रीय एकात्मता का पक्ष-पोषण किया गया है, उससे देश के राजनीतिक फलक पर एक नयी बहस ज़रूर खड़ी हो गई है कि क्या सचमुच ही धर्मनिरपेक्षता और छद्म-साम्प्रदायिकता दोनों एक ही हैं? और, क्या सचमुच ही धर्मनिरपेक्ष हुआ ही नहीं जा सकता? इस उपन्यास के सभी पात्र प्रायः जीवित-वास्तविक हैं, जो धर्मनिरपेक्षता के आर-पार विभिन्न राजनीतिक दलों, मीडिया प्रतिष्ठानों, एन०जी०ओ० संस्थानों से सम्बद्ध हैं। धर्मनिरपेक्षता पर लिखते-बोलते रहने वाले बौद्धिक-साहित्यिक विद्वानों और कलाकारों को भी लेखक ने इस बहस में शामिल किया हुआ है। इनमें से अनेक लोगों को लेखक द्वारा अभिहित किया जाना और कतिपय राजनेताओं को ‘सेक्युलरोसिस’ नामक वायरस फैलाने वाले विषाणु के रूप में उपन्यास के आवरण पर चित्रित किया जाना किसी को आपत्तिजनक लग सकता है, किन्तु तथ्यों की प्रामाणिकता इतनी पुष्ट है कि वे तिलमिला कर चुप रहने के सिवाय और कुछ कर ही नहीं सकते।
1 टिप्पणियाँ
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यह तो होना ही है क्योंकि झूठ को बहुत समय तक छिपाया नहीं जा सकता था। अब सच सामने आ रहा है।
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