भ्रष्टाचार पर प्रहार और सफ़ेदपोशों को बेनक़ाब करती कहानियों का संग्रह ‘यत्र तत्र सर्वत्र’

01-01-2023

भ्रष्टाचार पर प्रहार और सफ़ेदपोशों को बेनक़ाब करती कहानियों का संग्रह ‘यत्र तत्र सर्वत्र’

विजय कुमार तिवारी (अंक: 220, जनवरी प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

समीक्षित कृति: यत्र तत्र सर्वत्र (कहानी संग्रह) 
कहानीकार: संजीव जायसवाल ‘संजय’
मूल्य: ₹350/-
प्रकाशक: ज्ञान विज्ञान एजूकेयर, नई दिल्ली
विजय कुमार तिवारी

यह दावा लेखक या प्रकाशक की ओर से ही है और सच है, “भ्रष्टाचार पर प्रहार और सफ़ेदपोशों को बेनक़ाब करती ये कहानियाँ हमें उद्वेलित, आक्रोशित और आंदोलित करेंगी और सम्भवतः सर्वव्यापी भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए कमर कसने के लिए प्रेरित भी।” जब ऐसी कोई बात रचनाकार स्वयं कहता है तो तय है उसके चिन्तन की जड़ें बहुत गहरे तक गई हैं। यहाँ एक ख़तरा भी हो सकता है, कभी-कभी निश्चित उद्देश्य के साथ लेखन उस स्वाभाविकता को, प्रवाह या बहाव को प्रभावित करता दिखने लगता है। तय तो लेखक को ही करना है, जो दिख रहा है वह लिखा जाय या जो चाहता है, वह लिखे। संजीव जायसवाल ‘संजय’ बहुचर्चित, प्रतिष्ठित और अनेक पुरस्कारों से सम्मानित रचनाकार हैं। उनके अब तक 13 कहानी संग्रह, 12 उपन्यास, 2 व्यंग्य संग्रह, 29 चित्र कथाएँ तथा 1100 से अधिक कहानियाँ/व्यंग्य प्रकाशित हुए हैं। उनकी अनेक कहानियों, नाटकों एवं भेट वार्ताओं का प्रसारण रेडियो और टीवी पर हुआ है। उनके उपन्यासों और चित्र कथा का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ है। 

मेरे लिए सुखद है, उन्हें पढ़ने, समझने और उनके लेखन पर विचार करने की शुरूआत उनके हाल ही में प्रकाशित नवीनतम कहानी संग्रह ‘यत्र तत्र सर्वत्र’ से हो रही है। इससे पहले उन्हें छिटपुट पत्र-पत्रिकाओं या सामाजिक मीडिया पर पढ़ा है। उम्मीद जगाती रचनाएँ उनके बारे में बहुत कुछ बताती हैं, पक्ष में भी या उसके इतर। किसी भी रचनाकार की दृष्टि, भाव-चिन्तन और साहित्य को समझने के लिए उनके रचना संसार में उतरना पड़ता है। सार्थकता तभी है, यदि लेखन समाज का यथार्थ चेहरा पूरी संवेदना के साथ दिखा पाता है। किसी के भी साहित्य में व्यापक दृष्टिकोण, उनकी सोच, करुणा-संवेदना और मानवीय पहलू महत्त्वपूर्ण होते हैं। रचनाकार समाज को उसका आईना तो दिखाता ही है साथ ही उसके सशक्त, भव्य स्वरूप का चित्र भी खींचता है। 

संजीव जायसवाल ‘संजय’ में एक तरह का आक्रोश है। देश, समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर उनके मन में गहरी पीड़ा है। वे अपने “दो शब्द” में इसका विस्तार से उल्लेख करते हैं, भ्रष्टाचार की पहचान बताते हैं, उसे परिभाषित करते हैं और अपनी कहानियों में रेखांकित करते हैं। भ्रष्टाचार के विरुद्ध शंखनाद करने के लिए वे साहित्यकारों का आह्वान करते हैं। संजय जी संग्रह प्रस्तुत करते हुए अपने विचार पर ज़ोर देकर स्वयं लिखते हैं, “इस विचार के साथ भ्रष्टाचारियों की करतूतों को उजागर करती 11 कहानियों का यह संग्रह आपके सामने प्रस्तुत करने का दुस्साहस कर रहा हूँ। सफ़ेदपोशों के चेहरों को बेनक़ाब करने का यह किंचित सा प्रयास मात्र है।” उम्मीद है ये कहानियाँ आँखें खोलने और दिशा दिखाने में सार्थक होगी तथा समाज में व्याप्त जड़ता दूर होगी। 

कहानी और कहानी लेखन को लेकर साहित्यिक मर्मज्ञों में उठापटक होती रहती है। मूल समस्या है विधाओं को समझना, समझाना और हर विधा की तात्विक विवेचना करना। कहानी की परिभाषा, कहानी के तत्वों पर विवेचना करना सहज नहीं है। आज लिखी जा रही कहानियों में कहानी है या नहीं या कुछ भी कहानी नहीं है। 

‘मिड-डे-मील’ में हास्य है, व्यंग्य है, शिक्षा में व्याप्त भ्रष्टाचार के दृश्य हैं, बहुत कुछ है जो संजीव जायसवाल ‘संजय’ के कहानी लेखन पर प्रकाश डालता है। यह कहानी पाठकों को डराती है, शिक्षा-व्यवस्था पर प्रश्न खड़ा करती है और कहानीकार के भीतर के आक्रोश की झलक दिखाती है। कहानी के सारे पात्र अपना-अपना चरित्र निभा रहे हैं, लगता है सर्वत्र लोभ, लालच, बेईमानी और पतन है। संजीव जायसवाल जी को इतना कुछ दिख गया है, यह विशेष ध्यान देने योग्य है और उनकी लेखकीय दृष्टि की सराहना की जानी चाहिए। ‘यत्र तत्र सर्वत्र’ जायसवाल जी के लेखन के उड़ान की चमत्कृत करने वाली कहानी है। एक साथ सारे के सारे रस, हास्य-व्यंग्य के सारे नमूने, और लेखन की सम्पूर्ण कलाएँ इस कहानी में उपस्थित हैं। शायद ही दुनिया में कहीं ऐसा कोई प्रसंग सम्भव हुआ हो जिसमें आर्यावर्त, जम्बू द्वीप, भारत देश, साधु-संत, ईमानदार मंत्री, उसका ईमानदार गुर्गा, थाना का सम्पूर्ण तंत्र, मीडिया, पत्रकार, एंकर, एडीटर सभी ख़ुश, सभी संतुष्ट और सभी कृत-उपकृत हुए हों। ऐसा संयोजन कोई समर्थ, दक्ष और पहुँचा हुआ रचनाकार ही कर सकता है जो लेखन के साथ-साथ व्यवस्था के सभी अंग-प्रत्यंग की जानकारी रखता हो। कोई अपने आसपास के समाज और लोगों के जीवनानुभवों के आधार पर बड़ा-बड़ा आख्यान रच डालता है, यहाँ संजीव जायसवाल जी ब्रह्माण्ड तक की गतिविधियों पर साधिकार लिखने की क्षमता रखते हैं। यह कहानी हमारी व्यवस्था का वीभत्स चेहरा दिखाती है और सोचने पर मजबूर करती है। कहानीकार के लेखन में भाषा-शैली और शब्दों का चुनाव महत्त्वपूर्ण है। 

‘हमाम में सभी–’ भ्रष्टाचार में लिप्त ऊपर से नीचे तक के सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों की कहानी है। जायसवाल जी ने बहुत कुछ अपनी आँखों से देखा है, अपने सरकारी सेवा काल में। पात्रों का ओहदा, पद और ग़ुरूर का जीवन्त चित्र उभरा है इस कहानी में। सचिवालय के आयात-निर्यात विभाग का यथार्थ वर्णन करते हुए कहानीकार की ख़ुशी का आकलन कीजिए, पाठकों को भी आनंद आयेगा। मुखर्जी बाबू सुविधा शुल्क लिए बिना किसी फ़ाइल को आगे नहीं बढ़ाते। मामला ‘दीनानाथ एण्ड संस’ की फ़ाइल का है। मिसेज नीना कुलकर्णी, आईएएस, वहाँ की बाॅस हैं और दीनानाथ एण्ड संस के मालिकों से रिश्तेदारी है। संजीव जायसवाल ने पूरी कहानी कुछ इस तरह बुनी है, हमारे सचिवालयों के काम-काज, आपसी सम्बन्ध, दाव-पेंच और सुविधा शुल्क आदि का रहस्य खुलता है। कहानी का संदेश यही है कि हमाम में सभी एक ही राग-रंग के हैं। जायसवाल जी लिखते हैं, “जब हमाम में सभी नंगे हों तो कोई किसी को कुछ नहीं कहता, सभी एक-दूसरे को देखकर आँख बंद कर लेते हैं।”

‘मुठभेड़’ भ्रष्टाचार की एक और कहानी है। अक़्सर ऐसे प्रसंग सुनने को मिलते हैं कि पुलिस ने बहुत बहादुरी के साथ किसी दुर्दान्त अपराधी को मुठभेड़ में मार डाला है। यह मुठभेड़ किंचित भिन्न है और बहुत सारे प्रश्न खड़े होते हैं। जायसवाल जी सुबह का दृश्य चित्रित करते हैं, ग़रीब लकड़हारा जंगल जाता है। उसे दस्यु सम्राट अभय गर्जन की लाश दिखाई देती है। भागा-भागा थाने में सूचना देता है। पुलिस अपनी योजना पर काम करती है, लकड़हारे को भी मार देती है और कोई नई कहानी गढ़ती है। ऐसे फ़र्ज़ी मुठभेड़ की कहानी लिखने में जायसवाल जी ने चमत्कृत किया है और वीभत्स भ्रष्टाचार उजागर हुआ है। ‘वृक्षारोपण’ देशव्यापी सरकारी भ्रष्टाचार पर सशक्त कहानी है। अध्यापक पद से सेवामुक्त पं. दीनानाथ जी वृक्षारोपण की सरकारी योजना में लग जाना चाहते थे। उनके लड़के ने रोकना चाहा, तर्क दिया परन्तु वे नहीं माने। अपनी योजना लेकर वे वृक्षारोपण विभाग पहुँच गये। कर्मचारी ने आधे-आधे सुविधा शुल्क की बात की। अनुभाग अधिकारी ने अपने तरीक़े से दौड़ाया। उप-निदेशक के अपने तर्क और कारण थे। हारकर पं. दीनानाथ जी धरने पर बैठ गये। स्थिति जटिल होती देखकर उप-निदेशक ने कहा, “मेरे विचार से इसे थोड़ा-बहुत अनुदान देकर मामला ख़त्म कर देना चाहिए।” लिपिक ने अपनी बुद्धि लगाई। उन्हें 5 रुपये प्रति पेड़ की दर से 1000 वृक्ष के लिए 5000/- रुपये का चेक मिला। शेष रुपये किश्तों में देने की बात की गयी। उन्होंने 10,000/- रुपये अपनी ओर से बाड़ लगाने में ख़र्च कर दिये और आये दिन वृक्षारोपण विभाग का चक्कर लगाते रहते हैं। ‘खेती आँकड़ों की’ कहानी में जायसवाल जी सरकारी प्राणियों के चार प्रकार बताते हैं—बड़े साहब, छोटे साहब, साहब और चौथा मातहत कर्मचारी। उन सब की परिभाषाएँ और अधिकार-कर्म भी सुझाते हैं। विभाग की कार्यशैली, लेटलतीफ़ी, एक-दूसरे पर काम को टालना हमारे सरकारी कार्यालयों की दिनचर्या में शामिल है। सारे संवाद, एक-दूसरे पर दोषारोपण और ऊपर से नीचे तक फैला मकड़जाल का विवरण यथार्थतः जायसवाल जी ने चित्रित किया है। सारा दारोमदार उस मातहत कर्मचारी पर है। वह ढीठ प्रकृति का है जबकि शेष सभी चाटुकारिता के भाव में रहते हैं। सरकार ने एडल्ट लिटरेसी पर आँकड़े माँगे थे और एडल्ट्रेसी पर आँकड़े भेज दिये गये। अब फिर से आँकड़े भेजने हैं। मातहत कर्मचारी ने आँकड़े तैयार किए। इस काम में ओवरटाइम का खेल होता है। आँकड़े तैयार करने का तरीक़ा अद्भुत है। जायसवाल जी भ्रष्टाचार की चर्चा हास्य-व्यंग्य के साथ करते हैं। 

संजीव जायसवाल जी अपनी कहानियों के माध्यम से कोई नयी बात नहीं कहते हैं, सब कुछ लोग जानते हैं। भ्रष्टाचार हर महकमे में घुसा हुआ है, हर विभाग, हर व्यक्ति लिप्त है और आम व्यक्ति पीड़ित-प्रताड़ित है। वे विस्तार से, उदाहरणों के साथ कहानी बुनते हैं और एक-एक विभाग की नंगई दिखा देते हैं। अगली कहानी “ग़रीब दूर करो” के शीर्षक में ही व्यंग्य है, लोग हँसेंगे भी। यह उनके लेखन की शैली है। भयानक और वीभत्स बातें इसी शैली में परोसते हैं, “बड़े-बड़े वादे। उससे भी बड़ी घोषणाएँ। घोषणाओं से भी बड़ी योजनाएँ। उनसे भी बड़ी परियोजनाएँ। शून्य से भरी आँखों में रंगीन सपने घुसेड़ने की क़वायद, किन्तु परिणाम शून्य।” आँकड़ों में जनता ख़ुशहाल। जनसेवक मालामाल। बँट रहा माल। सभी ख़ुशहाल। ग़रीबदास को ग़रीबी दूर करनी है। वही दफ़्तर का चक्कर, पहले चपरासी फिर बड़ा बाबू, खद्दरधारी, फिर अफ़सर, फिर अख़बार। समाज सुधारकों व नैतिकता के ठेकेदारों का खेल शुरू। बंदरबाँट ही तो होनी थी, हुई। ग़रीबदास लुढ़क गये। उनकी ग़रीबी तो दूर नहीं हुई, वे ख़ुद ही दूर हो गये। 

‘हड़ताल’ किसी सरकारी कार्यालय की जीती-जागती तस्वीर की कहानी है। जायसवाल जी हर पात्र की नस पहचानते हैं और यह भी जानते हैं, कैसे बात का बतंगड़ बनाया जाता है। कार्यालय में सभी एक-दूसरे को गिराने में लगे होते हैं, गाँव वाला या जाति वाला होने से पक्षपात होता है। यूनियन का खेल और अंत में हड़ताल, यही बीमारी पूरे देश में है। हास्य, व्यंग्य और सारा तमाशा, सब है इस कहानी में। अंत में सबको ख़ुश और संतुष्ट करने का खेल होता है। भ्रष्टाचार, व्यभिचार के अनेक रूप हैं दुनिया में। ‘शहादत’ भी ऐसी ही कहानी है। जायसवाल जी का अनुभव संसार बहुत व्यापक है और उन्हें कहानी बनाकर पाठकों के सामने रखने की अद्भुत क्षमता भी। पुरुष की मनोवृत्ति, सुखद संयोग के साथ सुखद कल्पना और अंत में भयावहता, इस कहानी को वीभत्स बना देती है। इसमें भ्रष्टाचार है, व्यभिचार है और देश, समाज के लिए चुनौती भी। किसी सहज घटना को कहानी बनाने की अद्भुत कला है संजीव जायसवाल जी में और उसका प्रस्तुतिकरण भी अच्छा है। 

‘मुक्ति’ को जायसवाल जी ने धार्मिक भ्रष्टाचार की कहानी कहा है। ‘पंडित-मियाँ का अड्डा’ पहले दोस्ती और प्रेम की मिसाल था। पं. गिरिजा प्रसाद और झुम्मन मियाँ साथ-साथ एक-दूसरे की मदद करते थे। सामने पॉवर हाउस बन जाने के कारण ज़मीन मूल्यवान हो गयी। दोनों ने मिलकर ज़मीन ख़रीद ली। एक लाख में ख़रीदी ज़मीन 50 लाख की हो गयी। ज़मीन के नीचे भगवान शंकर जी प्रकट हुए और दूसरी ओर पीर औलिया। एक ओर शिवलिंग मिला तो दूसरी ओर टूटा हुआ तावीज़ और माला के टूटे दाने। उसके बाद जो हुआ, कहानी में है। अंत में जायसवाल जी लिखते हैं—थोड़े से लालच ने दोस्तों को अलग कर दिया था, मौत ने उन्हें पुनः हमसफ़र बना दिया। ऐसी कहानियाँ हमारे सामने बहुत से प्रश्न खड़ा करती हैं और भ्रष्टाचार का नया-नया दृश्य उपस्थित करती हैं। जायसवाल जी की कहानी का हीरो कार्यालय में सबको काम में जुटे देखता है, समझ जाता है, निश्चित ही माहौल सामान्य नहीं है। इस कहानी का चाल-ढाल, कथ्य-कथानक जायसवाल जी के इसी संग्रह की कहानी ‘हमाम में सभी–’ की तरह है। सारे सरकारी कार्यालयों का ढाँचा एक ही तरह का है और पात्र भी एक जैसे हैं। जो फ़ाइल निबटाता है, वह तेज़-तर्रार, मक्कार, चालाक होता है, फँसाने का रास्ता जानता है और बचाने का भी। गुप्ता जी की पहुँच में सब कुछ है, मीडिया, होटल, सारी फ़ाइलें, सारे रजिस्टर और सारे दस्तावेज़। उन्हें वर्तमान, भूत और भविष्य सबका ज्ञान है। वे हर स्तर पर, हर कार्यालय, मंत्रालय की कार्यशैली जानते हैं। इसलिए ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध सामूहिक प्रयास भी सफल नहीं होते और अन्त में “भाईचारा” निभाना ही पड़ता है। 

संजीव जायसवाल ‘संजय’ के सृजन की विविधता, उनका भाषा ज्ञान, विषय की पकड़ और हास्य-व्यंग्य का अभिनव प्रयोग चमत्कृत करता है। कहानियाँ सपाट तौर पर लिखी गयी हैं, कोई बनावटीपन नहीं है और सच्चाई के क़रीब है। पूरा का पूरा सिस्टम भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हुआ है। हर कहानी अलग-अलग विभाग की दुर्दशा बयान कर रही है। कहानियों में सम्यक और रोज़मर्रा के विषय उठाये गये हैं परन्तु भटकाव भी कम नहीं है। हर व्यक्ति, हर विभाग सुविधा शुल्क उगाहने में लगा है। कहानियाँ चौंकाती कम हैं क्योंकि भ्रष्टाचार को सबने स्वीकार कर लिया है। जाति सूचक नामों का उल्लेख भ्रम पैदा करते हैं, बचना चाहिए। हास्य-व्यंग्य, जुमले और मुहावरे कहानियों को रोचकता प्रदान करते हैं। यह जायसवाल जी की ख़ास प्रभावशाली शैली है। हिन्दी, उर्दू, भोजपुरी और अँग्रेज़ी के शब्द ख़ूब प्रयुक्त हुए हैं। कहीं-कहीं भोजपुरिया टोन अलग तरीक़े से आकर्षित करती है। कहानियाँ हँसाती हैं, चिढ़ाती हैं, आक्रोशित करती हैं और वीभत्सता पैदा करती हैं। जायसवाल जी के बिम्ब असरदार हैं। उनका होंठों को कानों तक खींच ले जाने का उदाहरण अद्भुत है। कुल मिलाकर उनका कहानी लेखन उनकी प्रसिद्धि के अनुरूप है। 

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