ग़ज़लों के आकाश पर 'आरज़ू-ए-फूलचंद'
विजय कुमार तिवारीसमीक्षित कृति: आरज़ू-ए-फूलचंद (ग़ज़ल संग्रह)
ग़ज़लकार/शायर: डॉ. फूलचंद गुप्ता
प्रकाशक: मानव प्रकाशन, कोलकता
मूल्य: रु 300/-
हिन्दी काव्य लेखन में फूलचंद गुप्ता जी एक सुपरिचित नाम हैं। वैसी ही चर्चा उनके ग़ज़ल लेखन को लेकर भी होती है। उन्होंने स्वयं लिखा है, “एम.ए. की पढ़ाई करते समय मैंने भी कुछ मित्रों की देखा-देखी ग़ज़लें लिखीं। कुछेक तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुईं।” हर लेखक या कवि अपने भीतर की हलचल को अभिव्यक्ति देना चाहता है, उसके सामने साहित्य की विधाओं के द्वार खुलने लगते हैं। चुनाव उसे ही करना है कि किस विधा में स्वयं को अभिव्यक्त करे। इस सन्दर्भ में भी उन्होंने लिखा है, “शीघ्र मैंने ग़ज़लें लिखनी बंद कर दी। इसलिए नहीं कि ग़ज़लें लिखना मुझे पसंद नहीं था या इस विधा के प्रति कोई पूर्वाग्रह था या है, बल्कि इसलिए कि मुझे अभिव्यक्ति के लिए कविताएँ अधिक अनुकूल लगी हैं।” यह उनके शुरूआती दौर की बातें हैं। बाद के दिनों, महीनों और वर्षों में उन्होंने ग़ज़ल लेखन की ज़रूरत को संजीदगी से महसूस किया और ख़ूब लिखा। इस सन्दर्भ में उनकी लिखी स्वीकारोक्ति को रेखांकित करना उचित ही होगा, “इस बार ग़ज़ल लेखन स्वस्थ रचनात्मक दबाव का नतीजा है।” ऊपर्युक्त बातें उनके प्रथम ग़ज़ल संग्रह 'ख्वाबख्वाहों की सदी है' से मैंने उद्धृत किया है जो शायद 2009 में छपी थी। 'आरज़ू-ए-फूलचंद' उनका दूसरा ग़ज़ल संग्रह है जो आकार-प्रकार में बड़ा है। इसमें कुल 116 ग़ज़लें संगृहीत हैं और ग़ज़लों के प्रेमी लोगों ने हाथों-हाथ लिया है। 'आरज़ू-ए-फूलचंद' में उन्होंने कोई भूमिका या आत्म-कथ्य जैसा कुछ भी नहीं लिखा है, सोचने-विचारने, पसंद-नापसंद सब कुछ तय करने की ज़िम्मेदारी पाठकों पर है। इस तरह देखा जाय तो समीक्षकों की ज़िम्मेदारी को उन्होंने बढ़ा दिया है।
मिट्टी लगी है देह में तो इसलिए जनाब
मिट्टी सदा से आरज़ू-ए-फूलचंद थी
मिट्टी से जुड़े रहने की भावना रचनाकार को महत्त्वपूर्ण बनाती है। उनकी स्वीकृति वरेण्य है, ऐसा नहीं कि मैंने कभी सच कहा नहीं परन्तु झूठ की आवाज़ बुलंद थी, सच दबा रह गया। उसने बुलंदी से हाँक लगाई तो उसका कोयला बिक गया और हुंकार मंद थी तो मेरा हीरा भी नहीं बिका। कहीं कुछ चूक तो अवश्य हुई कि नापसंद ज़िन्दगी जीता रहा पूरी ज़िन्दगी। तहजीब पर प्रश्न उठाती पंक्तियाँ देखिए, सब अपने ही थे जिन्होंने एक-दूसरे को छला है:
तहज़ीब का यह कौन सा मक़ाम आ गया
जिसके बहुत क़रीब था वो उसको खा गया
अगली ग़ज़ल में स्वयं को नाना रूपों में देखना और सामाजिक सरोकारों से जोड़ते हुए प्रश्न करना अद्भुत है। ग़ज़लकार की अनुभूति देखिए:
हज़ारों बार पुरखों ने हमारे, जान दे दी है
मुसीबत में अगर तहज़ीब है, एक बार फिर दे दूँ
यह हौसला किसी भी व्यक्ति को बड़ा बनाती है। पुरुषार्थ, हौसला और समझदारी देखिए:
चला तो था मगर कुछ दूर पर मैं गिर पड़ा था, ज़रा-सी देर में तैयार होकर फिर खड़ा था
ज़रूरी तो नहीं मैं जीत जाता हर लड़ाई, ज़रूरत पर सभी अपनी लड़ाई ख़ुद लड़ा था
हौसला देखिए:
सूरज से स्वयं रूबरू जाकर कहूँगा मैं
तू रात में विश्राम कर, जलता रहूँगा मैं
त्याग, तपस्या और पुरुषार्थ देखिए:
धरती हमारी रह सके सुख-ओ-सकून में
जिल्लत तमाम उम्र तक हँसकर सहूँगा मैं
ग़ज़लकार के भीतर का अन्तर्विरोध खुलकर सामने आता है, फिर भी उनका अपना जज़्बा है:
ईश्वर से लड़-झगड़कर राहें जुदा चुनीं
राहों में जो बबूल हैं, उनको लहूँगा मैं
जीवन में सफलता मिले या ना मिले, अपनी ख़ुद्दारी से जीना है, चाहे कोई कुछ भी कहे। वे हुंकार भरते हैं कि मैं कभी किसी के सामने नहीं झुका। हो सकता है लोग मेरे इस कृत्य को अच्छा नहीं कहें। संघर्ष के दिन हैं, रोज़गार अच्छा नहीं चल रहा है फिर भी मैंने अपने विचारों, उसूलों से कभी समझौता नहीं किया। कई बार सफल भी हुआ परन्तु उसके नशे में आकर शोर नहीं मचाया। ग़ज़लकार जीवन के हर रंग-रूप में अपने सिद्धान्त को बचाए रखता है। अगली ग़ज़ल में सर्वत्र भय का माहौल है, सब कुछ डरा-डरा सा है। पाठक तय कर लेंगे, सच में ऐसा है क्या? विचारधाराओं का मामला है, सभी स्वतंत्र हैं। अगली ग़ज़ल में पूँजीवाद पर प्रश्न खड़ा हुआ है और उसका चेहरा क्रूरतम माना गया है। ततैया और तितलियों के क्रम में संवेदना देखने, समझने योग्य है। ग़ज़ल की पंक्तियों में व्यंग्यात्मक तरीक़े से उसे झूठा और फटेहाल कहा गया है:
तेज़ है आवाज़ पर तू शख़्स झूठा है, तू नहीं दीवार, चिथड़े हाल पर्दा है
पास आता है किसी हमदर्द की मानिंद, और गरदन में फंसाता सख़्त फँदा है
यह तो तेरी नीतियों का ही नतीजा है, ताल में सैलाब है, पर कंठ सूखा है
व्यंग्य और हौसले उनकी ग़ज़लों में है, संवेदना है और व्यापक परिदृश्य भी। आसमान से ऊँचा कुछ भी नहीं है परन्तु पंख से ऊँचा आसमान भी नहीं है। पंक्तियाँ देखिए:
वो जो कुत्ते हैं, आदमी की जाति में जन्मे
किसी तरफ़ कभी, उनका ख़ानदान नहीं होता
दुख, दर्द, पीड़ा के साथ मार्मिकता की अनुभूति और ग़ज़ल की पंक्तियों में उतार लाने का हुनर देखिए:
दर्द छाया है दिलों में धूप की मानिंद, यूँ
'फूल' से बेहतर दर्द का बयान नहीं होता।
ग़ज़लकार केवल व्यवस्था में बदलाव नहीं बल्कि पूरी सोच में बदलाव चाहता है। गगनचुम्बी इमारत में आँगन खोजना व्यवस्था पर व्यंग्य है। राजनीति और नेतृत्व पर व्यंग्य देखिए:
वे रहनुमा थे, हाँक लाए कारवाँ तप्त सहरा में
चिलकती धूप में अब सावन की बात करते हैं
सद्भावना या सबके लिए सुख की कामना लिए ग़ज़ल सम्पूर्ण मानवता की चिंता करती है। सभी बेख़ौफ़ सोयें, बेख़ौफ़ जागें। बस्तियाँ, खेत, खलिहान और कारखाने हों परन्तु बाज़ार न हो। बंदरों के बीच बिल्लियाँ सुरक्षित हों, रोटियाँ पर्याप्त हों कि कोई तकरार न हो। संसार में रोशनी हो, रोशनी घर हो और बेहतरीन सोच देखिए:
चाँद भी रोशन रहे स्वयमेव ही
रोशनी पर सूर्य का अधिकार न हो
ग़ज़ल की ख़ूबसूरती है कि चंद पंक्तियों में बड़ी-बड़ी बातें कह दी जाती हैं। अपनी सोच से लोग चलते हैं और दुनिया को चलाना चाहते हैं। ऐसे में सब कुछ मनोनुकूल नहीं होता, तब विरोध होता है, भय और संशय होता है। सैलाबे-शहर का, इश्क़ के क़िस्से के खुलने का डर है और अंत में पंक्तियाँ देखिए:
कभी अँधेरों, सन्नाटों से डर लगता था, अब
मंदिर के नाद, नमाजे-फजर से डर लगता है
तख़्ता पलटने और राज करने की तमन्ना सबको होती है क्योंकि कहीं गोदाम में अनाज सड़ रहा है और कहीं एक जून के भोजन के लाले पड़े हैं। बदलाव की उम्मीद है-हम ख़ुद करेंगे राज अब अपने जहान पर। अनेक लोग अवसर की ताक में है और सम्भावना तलाश रहे हैं। जो संहार के लिए ज़िम्मेदार थे, उन्हें ब्रह्मास्त्र दे दिया गया है। निम्न पंक्तियाँ उम्मीद जगाती हैं:
ख़ूबी यही समाज में लाएगी रोशनी
विश्वास बस बना रहे इंसा की जात में
सामाजिक चेतना जगाती ग़ज़ल की पंक्तियाँ ध्यान देने योग्य हैं:
जनाजे में गर आप हाज़िर नहीं हैं
तो ऐसा नहीं लाश सिर पर नहीं है
लोगों को चाँद-तारे दिखाए गये परन्तु रोटियाँ भी मयस्सर नहीं है। बहुत देर से दरवाज़े पर खड़ा है, उसे पता नहीं कि कोई अंदर नहीं है। लोगों के स्वभाव में क्रूरता बढ़ी है और क़त्ल भी कम नहीं हो रहे हैं। बहुत अँधेरा है, सँभल कर पैर बढ़ाओ, कोई चिराग़ जलाओ। मशाल उठाओ, शहर, गाँव, बस्ती सब जगह कोई साया है। आग दिखाओ, गुहार लगाओ, शोर मचाओ और हाथ बढ़ाओ, बहुत अँधेरा है। सरल, सहज और अर्थपूर्ण ग़ज़ल है। समाज में फैले मानवता के दुश्मनों की बड़ी व्यापक पहचान है गुप्ता जी को और अपनी धारदार भाषा में आगाह करते हैं:
किसी रेशम की चादर-सा लिपट जायेगा सीने से
बड़ी कमज़ोर खूँटी पर टँगा हैवान होता है
आज के हालात पर उनकी ग़ज़लें बहुत सटीक और व्यापक रोशनी डालती हैं, जो सामने दिखता है, वह सच नहीं है, सच बड़ा कठोर है। मार्मिक पंक्तियाँ देखिए:
अमूमन रोज़ मरते हैं रियाजे-क़त्ल में लाखों
कोई निर्दोष होता है, कोई नादान होता है
हौसला, बुलंदी और कुछ कर गुज़रने की चाहत, गुप्ता जी की ग़ज़लों की विशेषता है। टूट कर भी दुनिया को बेहतर कर जाने की कोशिश रहती है। बैठकर रोते रहना ग़ज़लकार को पसंद नहीं है, वे बताते हैं कि इतिहास के पन्ने पलटकर देख लो, जो सीढ़ियाँ चढ़ते हैं, वही शिखर पर पहुँचते हैं। उनकी उपदेशात्मक ग़ज़लें यथार्थ चित्रण करती हैं और सही मार्ग दर्शाती हैं:
फूल है या चंद है या फूलचंद है
काम भी तो देख लो, बस नाम न देखो
हर मुलाक़ात का मक़सद ही मुहब्बत हो, बड़ी ऊँची बात है। तितलियाँ फूल पर सलामत रहें, हर किसी की ज़रूरतें पूरी हो और सभी अपने मुक़ाम तक पहुँचे। कमज़ोर, लाचार की वास्तविकता लोग समझते नहीं है, कुछ भी कहते, समझते हैं। ग़ज़ल-23 ही नहीं, उनकी बहुत सी ग़ज़लें समाज का, सोच का, स्थिति-परिस्थिति का बहुत सही चित्रण लिए हुए हैं:
ज़िन्दगी जीता रहा वह यातनाओं में
जान लाखों में बसी थी, मरता नहीं था
सभी तलाश में हैं, सभी बेचैन, बेबस, लाचार हैं, सभी के प्रश्न हैं, सभी कुछ सोच रहे हैं और सबके पास कुछ शब्द हैं जैसे साज़िशें, भेड़िए, ख़ूँख़ार आदि। उम्मीद जगाती या हौसला देती पंक्तियाँ गुप्ता जी की शैली का स्थायी हिस्सा है। चाहे जैसी भी परिस्थिति हो, वे निराश नहीं होते और कुछ करने का संकेत करते है-
अंधकार एक पल में भाग जायेगा
बस कहीं से खींच लो थोड़ी उजास तुम
वे अंजाम तक पहुँचना चाहते हैं, सही मुक़ाम तक पहुँचना चाहते हैं। नदी बीच में न रुके, अपने गंतव्य तक पहुँचे। यह भावना मनुष्यता के हित में है। उनकी ग़ज़लों में बिम्ब कमाल का दृश्य दिखाते हैं और हमारी ज़िन्दगी को रोशनी से भर देते हैं-पर्वत पिघल कर ज़िन्दा रखेगा हर नदी। अन्तर्विरोध और परस्पर विरोध के स्वर सर्वत्र हैं, ग़ज़लकार को रेशा-रेशा की पहचान है। संगति-विसंगति की हर स्थिति उनकी रचनाओं में है और लड़ने-जुझने का हौसला भी, हालाँकि ऐसी सोच किसी भयानक चिन्तन का संकेत करती है:
तब भीख में मिला, अब छिन के मिले
तब धर्म तौर था, अब शस्त्र तौर है
उनकी सोच की दशा-दिशा समझना कठिन नहीं है और कहीं-कहीं भाषा भी अपनी गरिमा खोती दिखती है। ऐसी पंक्तियों में भीतर का आक्रोश उभरा है और सारे बिम्ब जिस रूप में प्रकट हुए हैं, सहमति-असहमति के प्रश्न खड़े हो जायेंगे। उन्हें किसी नये नायक की तलाश है और नयी क्रान्ति की भी।
ग़ज़ल लेखन में एक सुविधा है, प्रथम दो पंक्तियों का अगली या उससे आगे की पंक्तियों की विषय-वस्तु भिन्न हो सकती है और इसका व्यापक विस्तार होता है। एक ग़ज़ल में बहुत कुछ कहा जाता है और सब कुछ प्रभावशाली तरीक़े से पाठकों, श्रोताओं को उद्वेलित, आनंदित करता है। ग़ज़ल-31 में सहज तरीक़े से धरती, आकाश, सूर्य, नदी की उपस्थिति है, भाव स्वयं अनुभव कीजिए:
सूर्य ने, मुझको लगा, जाते समय मुझसे कहा
चंद दिन की बात है, संसार तेरा हो गया
अगली ग़ज़ल में व्यंग्य है, यथार्थ है और पीड़ा भी परन्तु हौसला देखिए:
पक्षियों की चोंच में तिनके अगर हैं तो जनाब
घोंसले पहले बनेंगे फिर बनेंगी बस्तियाँ
हमारा सुखी होना, दिखना भी चाहिए। दाना-पानी तो है परन्तु जीने के लिए हवा नहीं है। जनता स्वयमेव क्रूर शासन को उखाड़ फेंकेगी। हालात विचित्र है, तुम्हारी आँखों में सदमे का दर्द है, अभी-अभी तुम गये हो जैसे कहीं कुछ हुआ नहीं है। भँवर में ज़िन्दा रहने का हौसला है और गिरना शुरू हुआ तो पहले वे गिरे जो समाज में वरेण्य रहे। परिंदा आज़ाद रहे, किसी बहेलिये की नज़र ना पड़े, ग़ज़लकार चाहता है कि हर निवासी सुख-शान्ति से रहे। समस्यायें रोज़ खड़ी हों परन्तु उनका समाधान भी हो। विडम्बना देखिए, छाँव में तपिश है और धूप में नमी। किसी की प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं—चेहरे पर थी धूल और आईना साफ़ करता रहा। कहते हैं, चेहरे की धूल पोंछ ले, धूल चेहरे पर है, आईने में नहीं। ग़रीब हालात का चित्रण देखिए, बच्चे निराश हैं, माँ उदास है, आँखों में सख़्त भूख है और होंठों पर प्यास है। उसे घर की तलाश थी, किसी मज़ार पर ठहर गया। नींद घेरने लगी तो मुक्त आसमान के नीचे घास के बिस्तर पर सो गया। अगली ग़ज़ल के भाव हैं, आदमी कहता कुछ है और करता, करवाता कुछ और ही है। बुलाया तो था भरपेट खाने के लिए परन्तु जूठन उठाने के काम में लगा दिया। चौखट पार करते ही लोग खो जाते हैं, फिर भी उसी दरवाज़े पर आते हैं। गुप्ता जी हौसला देते हैं, कुछ कर गुजरने की बात करते हैं, पीड़ित लाचार लोगों के पक्ष में खड़ा होते हैं और ऐसे सारे चित्रण मार्मिक हैं। सुबह से शाम तक तमाशा होता रहता है, यहाँ कोई बंदर है, कोई मदारी है। विचलित करती पंक्तियाँ देखिए-
सभी का लक्ष्य गाँधी का अहिंसा राज है लेकिन
सभी का ख़ून पीने का मगर दस्तूर जारी है
लाख समस्याओं के बावजूद उम्मीदें जीवित हैं, ग़ज़ल की पंक्तियाँ देखिए:
अभी टहनी कमज़ोर है तो क्या
हरी पत्ती, मज़बूत डाली है
आदमी बेचैन है, कभी इधर भागता है, कभी उधर। साँसें ब्याज पर हैं, धड़कनें उधार ली हुई हैं, जीवन किश्तों में चुकाया जा रहा है। ग़ैरों को फूल और अपने हिस्से काँटे आये। हमसफ़र प्रिय वही लगते हैं जो कारवाँ में साथ हो लेते हैं। ग़ज़लकार की हर ग़ज़ल हौसलों और बुलंदियों का संदेश देती है। चिड़ियों की तरह घायल हूँ, तन लथपथ है मगर आँखें नम नहीं है और रब का रहमो-करम मंज़ूर नहीं है। हालात का चित्रण देखिए:
मैं जब उदास था तो मौसम बेहतरीन था
जैसे ख़ुशी आई माहौल गड़बड़ा गया
जिसे श्मशान में जला आया,
उसे कंधे पर देख हड़बड़ा गया।
सारे गुनाह मेरे सिर मढ़ दिये गये। ग़ज़लकार को फूल में ख़ुश्बू, ख़्वाबों में रंग और दोस्तों के साथ भी सुकून नहीं मिलता। वह समाधि के पास जलजला देखकर ख़ुश भी है और दंग भी। परस्पर भिन्नता का चित्र ख़ूब मिलता है उनकी ग़ज़लों में, लिखते हैं, मैं रात भर करवटें बदलता रहा, सो नहीं पाया और वे करवट बदलकर बेख़बर सो गये। गोली चल चुकी है परन्तु गाँधी की तरह 'हे राम!” कहना शेष है। बच्चे बता रहे हैं, मैं न घर का रहा और न घाट का, मैं कोई वस्तु हूँ जिसका मूल्य चुकाना बाक़ी है। अंदाज़ देखिए:
तूफ़ान तो आयेगा मेरे आने पर
चट्टान थरथरायेगा रुख़ बताने पर
सृजन की कोशिश और उड़ान का उदाहरण देखिए—ख़्वाब में मिट्टी उठाई, उसे तोड़ा, पानी मिलाया, जोड़ा, पेड़, पत्ते, फूलों से रंग लिया, इन्द्रधनुषी बना दिया। उसे उम्मीदों का घोड़ा मिल गया और वह हवा सी आसमान में उड़ चली। ग़ज़लकार संघर्ष का इस तरह संदेश देता है।
अपनी ग़ज़लों में फूलचंद गुप्ता जी ख़ूब व्यंग्य करते हैं, चोट करते हैं और जहाँ कहीं विसंगतियाँ दिखती हैं, ज़बरदस्त आक्रमण करते हैं। यह उनकी ख़ूबी भी है और शैली भी। मुहावरे ग़ज़ल को धारदार बनाते हैं और भाषा चमत्कृत करती है:
वह इश्क़ में डूबा रहा शबो रोज़ मुसलसल
और समझा कि बड़ा काम किये जा रहा हूँ
आँसुओं से कोई प्यार नहीं है, तुमने दिए हैं तो पिए जा रहा हूँ। उनकी चुनौती अद्भुत प्रभाव डालती है—तू किसी मैदान में बहकर दिखा, यदि तेरे जिगर में मंदाकिनी है। चारों तरफ़ संघर्ष है, अँधेरा है और इन्हीं में उम्मीदें भी हैं—लोग एक तिनके के सहारे निकले हैं और देख सामने समुन्दर लहरा रहा है। फूलचंद जी को अक़्सर उम्मीदों का कवि कहता हूँ। चंद वैचारिक बातों को छोड़ दिया जाय, उनकी मानवीय चेतना अद्भुत है। सीखे नहीं थे चालाकियों के गुर, ऐसे हिरनों का झुंड बाघों के घेरे में घिर गये हैं। सहजता से स्थिति और अपनी भूल को स्वीकार करते हुए उम्मीद करते हैं कि हलचल बता रही है, लो रात ख़त्म हुई, अब सुबह होने वाली है। उनके द्वारा प्रयुक्त बिम्ब बड़ा परिदृश्य दिखाते हैं और अलग प्रभाव डालते हैं। मनुष्य तो एक ही है, इसे दाढ़ी और शिखा में बाँट दिया गया है। जीवन मकड़जाल है जिसमें फूलचंद उलझा हुआ है और अँधेरा दूर करने का संकल्प लेता है। उनका संदेश स्पष्ट है, प्रश्नों को ठीक से पढ़ो, सबके उत्तर मिल जायेंगे। यहाँ सब कुछ है, प्रयास करो, सब मिल जायेगा। अद्भुत उम्मीद और विश्वास देखिए:
पक्षियों की चोंच में जब एक तिनका आ गया, पक्षियों की चोंच ने बस रच लिया संसार है
आँधियाँ जिस डाल को झकझोरती अभिमान से, खग बनाते हैं वहाँ पर आशियाँ सौ बार हैं
रिश्तों से निराश और एक-दूसरे पर भरोसा न होने का अहसास गुप्ता जी की पंक्तियों में मिलता है:
मुझको बड़ा गुमान था रिश्ता है ख़ून का
रिश्ता बचा रहा मगर ज़्यादा नहीं रहा
स्थिति यह है कि किसी प्रिय का साथ भी अब सुकून नहीं देता, कभी हमने हालात को नहीं समझा और कभी हालात ने समझने नहीं दिया। ऐसी अनुभूतियाँ फूलचंद जी की मनोवैज्ञानिक समझ का परिचय देती हैं और बड़ा बनाती हैं।
यहाँ वैचारिक मतभेद है, कोई दूसरी बात करो, ग़रीब का भूख से क़रीबी रिश्ता होता है। ज़िन्दगी में सब षड्यन्त्र से मिलता है, तुम उसे नसीब कहते हो। असली रोग तो पेट का है और उसका उपचार रोटियाँ हैं, आप चाहे जो कहो। सब यत्न किया, कहीं कोई चिंगारी नहीं भड़कती:
फूलचंद की चूल हिल गई
खड़े रहे सब, हिला न कोई
दोनों में बहुत फ़र्क़ है, तुम्हारी आँख में सुर्ख़ी की चमक है और मेरी आँख सूखी हुई है, हमारा क़द छोटा है, तुम्हारा बड़ा, अगर ध्यान से देखा जाय तो हम दोनों एक ही हैं। गुनाहों से भरा हूँ तो सबके साथ हूँ, जब बेगुनाह था, सब ने सजाएँ दी। अब तो यह भी याद करना मुश्किल है, किसने ज़ख़्म दिए और किसने दवाएँ दी। दिशा, दशा, हवा, दरिया, समन्दर और लहरें उनकी ग़ज़लों में अर्थवान हैं। ग़ज़ल की पंक्तियाँ देखिए:
जुनूं है बचा कुछ अभी ख़ून में
ज़ुबाँ में वही जलजला ठीक है
बेचारगी को लेकर फूलचंद जी ने ख़ूब लिखा है, उसके अहसास से उनका मन भरा हुआ है। विडम्बना ही है, जिन्होंने दुख दिए, वही रूठे हुए हैं, अब उन्हें मनाऊँ या अपना ज़ख़्म सहेजूँ? उनके प्रश्न का अंत नहीं, कहीं कोई उत्तर नहीं मिलता। सबके यहाँ सूत और चर्खा है फिर बस्ती के लोग चिथड़े हाल क्यों हैं? मुक्ति का निशान गर मछली है तो फिर यह जाल क्यों है? यह किसी का घर नहीं, शहर है, लोग एक-दूसरे को मार कर ज़िन्दा हैं। ग़ज़लकार प्यार की बात करने का संदेश देते हैं और बार-बार, हज़ार बार प्रयत्न करने का भी। दरबार में मेरी चर्चा होती है, कभी प्रशंसा होती थी, अब निंदा होती है। मेरी क़ब्र पर दीया जलायेंगे, इसलिए पूछते रहते हैं। जब भी मिलते हैं, उत्साह से मिलते हैं और किसी मेहमान की तरह मेरी सेवा होती है। पंक्तियाँ देखिए:
कभी पत्थर, कभी भगवान, नहीं रहने दिया इंसान
कहीं लगती मुझे ठोकर, कहीं पूजा मेरी होती है
फूलचंद जी परिंदों के परों में छिपी उड़ान खोजते हैं और उस आवाज़ को खोजते हैं जो दहशत से पत्थर हो गयी है। यहाँ पेड़ों से सारी चिड़िया उड़ा दी गयी है, वह मकान खोजते हैं जहाँ परिंदे सुकून से सो सकें। यह ग़ज़लकार की गहरी सोच है और संवेदना भी कि शव तो जल गया परन्तु आशिक़ नहीं मरा। जैसे डूबते हुए को सहारा चाहिए वैसे हर आदमी को एक-दूसरे का साथ चाहिए। उन्हें कटते पेड़ों और सूखती नदियों की चिन्ता है और स्वयं को दोषी मानते हैं जितनी सारी दुनिया। कोई गाये या न गाये, ग़ज़लकार गीत लिखने का संकल्प लेता है और दुनिया भर में अपने प्रेम को फैला देना चाहता है। सब हाट-दुकान एक जैसे हैं, आदमी बेच रहा है और आदमी ही सामान है। बस आग चाहिए, सामने सोने की लंका है और यह हनुमान है। हौसला देखिए, हम जिधर से निकल जाते हैं, हज़ार दीप हथेलियों पर जल जाते हैं। बियाबानों में खिले हुए पलाश आग की तरह दिखते हैं और ठूँठ पर भी फूल खिल जाते है। यदि एकता हो, हम समूह में हों तो ख़ुद पंख निकल आते हैं और चाल बदल जाती है। डूबते जहाज़ को बचाने के लिए पुकारता है और दुश्मनी को छोड़कर प्यार की बात करता है। पहचान देखिए:
जिसको हवाले इश्क़ से रोना नहीं आया, समझो, उसे ज़मीन पर होना नहीं आया
तुमको मिली थी आग वसीयत के रूप में, तुमको अभी अलाव पे सोना नहीं आया
दुश्मनों के कैंप में खलबली है, हमारी ग़ज़लों का यही परिणाम है और उनकी बुनियाद हिलने लगी है। जिन्हें फूल की ख़ुश्बू की पहचान नहीं है, उनके लिए फूल बदनाम ही हैं। ऐसी बातें, ऐसी सीखें फूलचंद गुप्ता जी ही दे सकते हैं और उनका यह संग्रह ऐसी बातों से भरा पड़ा है।
इन ग़ज़लों में अंतर्विरोध है, वैचारिक भेद-मतभेद है और ग़ज़लकार का दुनिया को बदलने का प्रयास व संकल्प है। हम वही देखते हैं, समझते हैं जो हमारे चिन्तन में होता है। समस्या तब खड़ी होती है जब हम दुराग्रही होते हैं, भिन्न मत को समझना नहीं चाहते और अपने विचार दुनिया पर थोपना चाहते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो यह दुनिया कुछ अधिक सुन्दर, कुछ अधिक प्रिय और रहने लायक़ होती। फूलचंद जी यही बातें अपनी पंक्तियों में दुहराते हैं और संकेत करते हैं, वे लोग भी कुछ ऐसा ही सोच रहे होंगे, शायद कभी नहीं सोचते, परन्तु यह निर्विवाद सत्य है कि वे जानते, समझते सब कुछ हैं। इसलिए उनकी ग़ज़लें, कविताएँ अपना आलोक फैलाती रहती हैं, उम्मीद जगाती हैं और प्रभाव छोड़ती हैं। मानता हूँ ज़िन्दगी में दुख है परन्तु ऐसा ही रहेगा, किसने कहा है। हादसे आदमी को पत्थर बना देते हैं और हम उन्हीं पत्थरों से घर बना लेते हैं। प्रश्न देखिए—जीवन भर की सज़ा सुनाई, अब तो मेरी ख़ता बता दे। दर्द है तो दवा भी है, राख के नीचे आग है तो ऊपर हवा भी है। पहले खारे सागर का स्वाद ले लो, फिर समझ जाओगे, नदी क्या है। किसी का दर्द एक-सा नहीं होता। खाद, हवा, पानी हो परन्तु धूप न हो तो पत्ता हरा नहीं होता। या तो इधर का हो या उधर का, बीच का कोई रास्ता नहीं होता। ये रास्ता ही बदनाम बस्ती से होकर जाता है, हम मुसाफ़िर हैं, हमें बदनाम ना समझो। अक़्सर ऐसा क्यों होता है कि प्रश्न ही उत्तर लगता है? गुप्ता जी के पास अनुभूतियों और प्रश्नों का विशाल भंडार है। उन्हें इस संसार में इंसान ईश्वर से बेहतर लगता है। उनका यह अंदाज़ बेहतर है—सलाम उसने नहीं किया, तू कर ले। कभी-कभी ख़ुद से बातें कर लिया कर।
ग़ज़लकार जिनके साथ खड़ा है, जिनके पक्ष में भावनाएँ व्यक्त करता है, निःसंदेह दबे-कुचले, पीड़ित-प्रताड़ित लोग हैं और जिन्हें अपना लक्ष्य बताते हैं वे कोई और हैं, यह थोड़ा भ्रम पैदा करता है। पंक्ति देखिए—ख़ुदा ले आएँ नया, सज्दा नया करें कोई। अँधेरों की चर्चा जब भी होगी, शायर सबेरों की बात करेगा। उनके इस अंदाज़ ने ही दिल जीता है लोगों का, कहते हैं—मैं फ़रिश्तों से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखता। आगे देखिए:
जब भी तू दर्पण देखे, तब पूछ रूह से
बेशक तू इंसा तो है, पर ज़िन्दा है क्या?
शायर सच बोलने की बात करता है। यार तू कैसा निकला? सबसे प्यारा लगता था, तू भी औरों जैसा निकला। उसे निराशा होती है, आह निकलती है, क्योंकि लोग असहमति जताते हैं, नफ़रत की बात सुनाते हैं। मन की ख़ुशी से भरा बिम्ब है, तालाब में जल नहीं, तेजाब है और सारे कमल के फूल दहक गये। फिर रोया, शायर हर हालात पर रोता है, यह किसी के जीवन की दुःसह पीड़ा है। कल तक प्रिय था, आज चर्चा तक नहीं है। ऐसी भावनाओं की अनेक ग़ज़लें हैं। कभी-कभी शायर आध्यात्मिकता की शायरी करता है—जीवन और मरण के घर में झीना-सा पर्दा है। तनहाई के पलों की अभिव्यक्ति झकझोरती है—एक निहायत जंगल में, एक परिन्दा बैठा है।
परिन्दा और इंसान में यही भेद है, वो सहम जायेगा और मैं गिर कर सम्हल जाऊँगा परन्तु तू तो मीनार-सा है, गिरकर बिखर जायेगा। प्रकृति के बिम्बों के माध्यम से हौसले और बेचारगी का उल्लेख ग़ज़लों में ख़ूब हुआ है। व्यंग्य देखिए—उनका दावा है कोई उनसा ख़ुशनसीब नहीं है। ग़ज़ल-103 के जज़्बात अद्भुत हैं—इज़हारे इश्क़ ने मुझे सस्ता बना दिया। यह हौसला देखिए और बिम्ब भी:
दरिया माँ के कंधों जैसा, लहरें माँ की छाती है
मैं भँवरों पर सोते-सोते सारी थापें सहता हूँ
शायर को समुन्दर, नदी, पहाड़ से बहुत प्रेम है। सामने खारा समंदर है, अगर कोई डूब कर देखे, उसके भीतर ख़ज़ाना भरा पड़ा है। दुनिया में मनुष्य ही सिकंदर है, और कहीं कुछ भी नहीं है। शायर यह भी कहता है, भले बिना ग़म के ग़ज़ल लिखने की शर्त है परन्तु मेरे पास ग़म के सिवा कुछ भी नहीं है। बेहतर सम्भावनाओं की चाह की ग़ज़ल-107 है—आँखों में सपने हों नदियाँ जल से भरी हों, पेड़ों पर मंजरियाँ हों और चतुर्दिक ख़ुशियाँ हों। शायर की उम्मीद देखिए-धुंध के उस पार राहें हैं, मंज़िलें हैं, मुक्त बाँहें हैं। एक व्यंग्य यह भी ग़ज़ल में:
एक कुत्ते को बबर शेर क्या कह दिया मैंने
मुझे ही देखकर वह रोज़ गुरगुराता है
शायर लोगों को आश्वस्त करता है—आपके शहर में एक ऐसा भी आदमी है, चेहरा ग़ैर-सा दिखता है, परन्तु वह आपका अपना है। व्यंग्य देखिए—ज्योतिषी कहता है, राशि फल बहुत अच्छा है, इधर स्थिति यह है कि पैर के जूते फटे हैं और पैरहन गंदे हैं। शायर उत्साहित करता है, ज़रा सा दायरा बढ़ाओ, कोई दीया जलाओ, बेबाक हो जाओ, कोई अकेला मिले, हाथ मिलाओ, अकेले में दुखों के गीत गाते हो, भरे दरबार में गाओ, मज़ा आ जायेगा। जीवन की विसंगतियाँ देखिए—इधर किसी का जनाज़ा निकला, उधर किसी की बारात आई। थे अश्क मेरे शाना पर तेरे, तो तूने समझा बरसात आई। शायर का संकेत देखिए—रोज़ तू औलाद के लिए सपने बुनता रहता है, अपने लिए भी कहीं कोई घर आबाद कर ले। आयेगा नया वक़्त, नया युग, नया मौसम, पिंजरे से अपने आपको आज़ाद तो कर ले। चिन्तक, विचारक शायर रूमी ने ऐसा ही लिखा है—एक तरफ़ दुख है, वहीं बग़ल में सुख के साधन भी हैं। यह भाव देखिए:
कहने को हर चीज़ मिली है, बीवी, बच्चे, फूलचंद
बिना बात ही बस रोने को, ख़ूब मेरा मन होता है
व्यवस्था पर उनके प्रश्न बिल्कुल सटीक हैं, कहने को अदालत है परन्तु यहाँ न्याय बिकता है, अपराध की दुनिया सरे-संसद सलामत है, सियासत में मुहब्बत के लिए भले समय न हो परन्तु मुहब्बत में ख़ूब सियासत है। संग्रह के अंतिम ग़ज़ल की हर पंक्ति शायर के भीतर की व्यंग्यात्मक भावनाओं से भरी है—गाय के बीमार होने की ख़बर है और गीध दावत की प्रतीक्षा में हैं, नाव में सारे मुसाफ़िर सो रहे हैं और उधर सुनामी आने वाली है, एक-दो लोग ही गुत्थियाँ सुलझा पाते हैं, शेष सारा शहर उलझनों में है, वह पसर कर सो गया सारी धरा पर, एक बित्ता भूमि पर सबको गुज़ारा करना है और अंतिम पंक्तियाँ देखिए:
आज कुटिया में जलाई चिमनियाँ तो
चंद के दरबार में बरपा क़हर है।
शायर, ग़ज़लकार डॉ. फूलचंद गुप्ता जी ने जिस तरह हिन्दी कविता में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज की है, शायरी और ग़ज़ल लेखन में भी दमदार हैं। ग़ज़लों में व्यंग्य है परन्तु मानवीय दृष्टि कुछ अधिक मुखरित हुई है। स्वयं संघर्ष का मार्ग चुनते हुए वे सबको श्रम करने, संघर्ष करने की सलाह देते हैं। उनका आम आदमी के सामने सावधान करना उनकी गहरी सामाजिक पकड़ दिखाती है। वे सब कुछ समझते हैं, अपने मत का प्रचार ज़ोर-शोर से करते हैं और टकराने का हौसला रखते हैं। कहीं-कहीं जोश में बहुत कुछ कहते हैं जो किन्हीं नारों में तबदील हो, अलग प्रभाव डालता है। यह उनकी ताक़त है, उनकी भाषा और लेखन-शैली का कमाल भी है। उनपर पूर्ववर्ती शायरों का प्रभाव होना सम्भव है और उनका अंदाज़ कहीं-कहीं सुफ़ियाना है। वैसे मेरी पकड़ ग़ज़ल, शायरी या सूफ़ी साहित्य पर नहीं के बराबर है, इसलिए बहुत गहरी पड़ताल सम्भव नहीं है। ग़ज़लों को पढ़़ते हुए जितना समझ पाया, फूलचंद जी बेहतरीन शायर, ग़ज़लकार हैं।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- पुस्तक समीक्षा
-
- सरोज राम मिश्रा के प्रेमी-मन की कविताएँ: तेरी रूह से गुज़रते हुए
- अपूर्व अनुभूतियों से भरी विकेश निझावन की ‘छुअन तथा अन्य कहानियाँ’
- आज की स्त्री की घोषणा ‘मैं चुप नहीं रहूँगी’
- इश्क़ में नदीः जीवन के विविध आयाम दिखाती कविताएँ
- ऐतिहासिक सन्दर्भ की आधुनिक साहित्यिक रोचक, गूढ़ तकनीक: ‘चाणक्य के जासूस’
- गाँव से महानगर तक रिश्तों के टूटने-जुड़ने की कथाः अँगूठे पर वसीयत
- चक्रवात के घेरे में : युवा कवि राकेश श्रीराम मिश्र
- जीवन्त कहानियाँ: ‘गंगा से कावेरी’
- दालचीनी की महकः श्रीलंका यात्रा की सुखद अनुभूतियाँ
- प्रवासी प्रतिनिधि कहानियाँ — और प्रवासी-कथा चिन्तन
- प्रेरक आलेखों का संग्रह ‘नींव के पत्थर'
- फनी महांती जी का मार्मिक काव्य ग्रंथ: ‘अहल्या’
- भक्ति और प्रेम के गीत ‘तू अधर मैं बाँसुरी’ के
- भावनात्मक आलोड़न के प्रस्फुटन की कविताएँ
- भ्रष्टाचार पर प्रहार और सफ़ेदपोशों को बेनक़ाब करती कहानियों का संग्रह ‘यत्र तत्र सर्वत्र’
- माँ के गहन-भाव में रची-बसी कविताएँः ‘एक चिट्ठी माँ के नाम’
- मॉरीशस-भारत की धरती से डॉ. बीरसेन जागासिंह की प्रेरणाओं के स्रोत
- रश्मि अग्रवाल जी का शोधपरक चिंतनः वृद्धावस्था (सामाजिक अध्ययन)
- विनीत मोहन औदिच्य कृत ‘सिक्त स्वरों के सोनेट’ की गहन भाव-संवेदनाएँ
- साझे का संसार की झकझोरती कविताएँ
- सेक्युलरिज़्म का ऑपरेशन करता एक उपन्यास
- हरिशंकर शर्मा का लेखन: समय की शिला पर
- ग़ज़लों के आकाश पर 'आरज़ू-ए-फूलचंद'
- विडियो
-
- ऑडियो
-