फनी महांती जी का मार्मिक काव्य ग्रंथ: ‘अहल्या’
विजय कुमार तिवारीसमीक्षित कृति: अहल्या (काव्य)
रचनाकार: फनी मोहंती
हिन्दी अनुवाद शंकरलाल पुरोहित
मूल्य: ₹150/-
प्रकाशक: शबनम पुस्तक महल, कटक
काव्य सुख देता है, पीड़ा-जनित होता है और काव्य में साहित्य के सारे रस पाये जाते हैं। कविता सुखानुभूति से अधिक पीड़ित मन से जुड़ती है तथा उसमें अभिव्यक्त हुई पीड़ा मुक्ति का मार्ग दिखाती है और जीने का सम्बल देती है। कविता प्रश्न करना सिखाती है, उत्तर की तलाश करवाती है और जीवन संघर्ष के लिए प्रेरित करती है। स्त्री पीड़ा, स्त्री प्रताड़ना के हर स्वरूप को कविता पूरी जीवन्तता और गम्भीरता के साथ उठाती है। जीवन की समस्याओं का समाधान साहित्य में मिलता है इसीलिए हर कालखण्ड में साहित्यकारों ने दुनिया का मार्ग-दर्शन किया है। हर कालखण्ड में नारी मन का अन्तर्द्वन्द्व समाज के सामने चुनौती के रूप में रहा है जिसे समझना कभी भी सहज नहीं रहा। वह डरती रहती है, संकोच करती है और स्वयं को ख़तरों से घिरी पाती है। जिस स्त्री को सृष्टि में सृजन का दायित्व मिला है, वही कटघरे में खड़ी है, अनादृत और तिरस्कृत है। नारी अपने सम्पूर्ण औदार्य के साथ सृजन में लगी रहती है, जुड़े लोगों का संसार बसाती है और दुनिया को अपना श्रेष्ठ देती रहती है। बदले में वह कुछ भी नहीं चाहती, उसका स्वभाव ही है संतोष करना, करुणा-स्नेह देते रहना और सबको सुखद संसार देना।
भगवत शरण उपाध्याय, राहुल सांकृत्यायन सहित सभी साहित्यकारों ने नारी की विकास यात्रा को समझने की कोशिश की है। आदिम समय में, पाषाण काल या उससे भी पहले स्त्री ही सत्ता के शीर्ष पर हुआ करती थी, उसी का वर्चस्व होता था और उसे अपदस्थ कोई स्त्री ही करती थी। प्रश्न यह है कि उसका बदलाव कैसे हुआ और क्रमशः वह कैसे कमज़ोर होती गई? हमारे सनातन या पौराणिक आख्यानों में प्रातः स्मरणीय पंच कन्याओं का बहुत आदर के साथ उल्लेख होता है। अहल्या, तारा, मंदोदरी का सम्बन्ध रामायण काल से है और कुंती, द्रोपदी महाभारत काल की हैं। इन्हें चिर-कन्याओं के रूप में मान्यता मिली है।
फनी मोहंती उड़िया भाषा के वरिष्ठ और बहुचर्चित कवि हैं। उन्हें उड़िया साहित्य अकादमी, केन्द्रीय साहित्य अकादमी सहित साहित्य के अनेको पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। उनकी पुस्तकें विभिन्न भाषाओं में अनूदित हुई हैं। ऐसी ही हिन्दी में अनूदित काव्य पुस्तक 'अहल्या' मेरे सामने है। इसे उन्होंने दीर्घ कविता के रूप में लिखा है और इसका हिन्दी अनुवाद उड़िया-हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार शंकरलाल पुरोहित जी ने किया है। ऋषि गौतम की पत्नी अहल्या ब्रह्मा की मानस पुत्री हैं, सर्व सुन्दरी हैं और इन्द्र सहित सभी देवता उनसे विवाह के लिए उत्सुक हैं। ब्रह्मा ने अहल्या की शादी गौतम ऋषि से कर दी और यही इन्द्र के क्रोध का कारण बना। इन्द्र ने छल किया, गौतम ऋषि ने शाप देकर अहल्या को पत्थर बना दिया। राम के द्वारा अहल्या का उद्धार हुआ। यह कथा हम सबने सुनी है, यथा विह्वल होते हैं और आज भी साहित्यकार नाना तरीक़े से अहल्या के जीवन को लेकर चिन्तन-मनन करते हैं। फनी मोहंती ने अपने तरीक़े से अहल्या प्रसंग को इस पुस्तक में लिखा है और अपनी करुणा, संवेदना पाठकों तक पहुँचाने की कोशिश की है।
पुस्तक के शुरू में अपने अग्रलेख में मोहंती जी लिखते हैं, “लम्बी कविता न तो काव्य है या खण्ड काव्य और न ही गाथा कविता। जीवन-बोध के अनन्य रहस्य में से इसकी सृष्टि हुई है। यह कवि की अखण्ड व्यक्ति-सत्ता का एक खण्डित रूप है। एक केन्द्रीय रूपकल्प के आधार से इसका बलय संप्रसारित है। यह जीवन का भग्नांश नहीं बल्कि जीवन को समग्रता के साथ अनुभव करने का एक सारस्वत प्रयास है।” मोहंती जी ने अपने सनातन ग्रंथों-भागवत, रामायण, महाभारत आदि का श्रवण, पठन-पाठन गाँव में रहते हुए बचपन में किया है। वे लिखते हैं, “उसी जगह अहल्या को जानने का थोड़ा-बहुत अवसर मुझे मिला। अहल्या के प्रति हुए अविचार के विरुद्ध मेरा बाल-मन जाने क्यों विद्रोह कर उठा था।” उन्होंने आगे लिखा है—“अहल्या सदियों से एक अवधारित सत्य बनी हुई है। अन्याय, अनीति और अविचार का शिकार होकर उस समय की अहल्या नामक नारी जो पीड़ा और यन्त्रणा भोग रही थी, आज भी उसका अंत नहीं है।”
अपने दीर्घ काव्य ग्रंथ को मोहंती जी ने कुल इक्कीस कविता-खण्डों में विस्तार दिया है। अहल्या स्वयं अपनी व्यथा-कथा सुना रही है, मेरे दुख का, परीक्षा का कोई आदि-अंत नहीं है, पौष मास की भीषण ठंड में दुख के झूले पर झूलते रहना है। चित्रण देखिए-पौष की ओस भींगी/यह रात, चारों ओर सांय-सांय/ सन्नाटा ही सन्नाटा/न शब्द न ध्वनि/निथर, सुनसान वन में। अहल्या की दैन्य स्थिति का मार्मिक चित्रण विचलित करने वाला है। आषाढ़ माह की मांगलिक मुहूर्त वेला में धूर्त, दुस्तर समय शैवाल बिखेरता जा रहा है, ऋषि-आश्रम में कोलाहल है, चिन्तन-मनन, विचार-विमर्श हो रहा है। फनी मोहंती जी ने बिंबों के साथ, अद्भुत, सुरम्य, भाव-पूर्ण वर्णन किया है, लिखते हैं—घटी हुई घटना का/ प्रतिकार के लिए/कोई उपाय नहीं/ औद्धत्य और अहंकार का/ प्रतिहत के लिए यथार्थ/सामर्थ्य नहीं/ उद्दंड शासक के पास/मानदंड का प्रश्न नहीं। अहल्या कहती है—सहज, सरल निष्कपट मानव-सी/मैं तो ख़ूब ख़ुश थी/पति और ‘शत’ को लेकर/छोटे संसार में, ऋषि आश्रम में। वह स्वयं अपनी स्थिति-व्यथा का चित्रण करती है। यह ग्रंथ कवि मोहंती जी के काव्य-कौशल का अनुपम उदाहरण है। उनके पास अद्भुत शब्द सामर्थ्य है, भाव-चित्रण की प्रवणता है और जीवन्त चित्रांकन स्तब्ध करने वाला है। अहल्या कहती है, इतना सारा अघटन हो गया परन्तु किसी एक भी सत्यनिष्ठ, नीतिवान समर्थ पुरुष ने प्रतिवाद नहीं किया, मुनि, ऋषि, तपस्वी, आचार्य, अतिथि, ब्रह्मचारी सभी निवीर्य पुरुष-से एक-एक कर चले गए। सबने कहा-आश्रम की पवित्रता नष्ट हुई। अहल्या स्थिति बतलाती है—असहाय नारी जाति के प्रति/घट रही घटना का/ सत्यासत्य जानने कोई एक भी/आग्रही न था।
अहल्या कहती हैं—किसी के पास मर्यादित उत्तर न था। वह परित्यक्त पड़ी हुई है किसी की प्रतीक्षा में। अहल्या जानती है कि प्रतीक्षा में वार्तालाप नहीं होता, केवल प्रतीक्षा होती है युग-युग तक। मोहंती जी अहल्या के लिए विशेषण प्रयोग करते हैं—समय की साधना संगिनी/हे महाभावमयी, अनाहता/सहज-सुन्दरी! प्रतिशब्द के/प्रति अक्षर में तुम/ अनुपमामयी नारी ही नारी। अहल्या के साथ घटी दुर्घटना के बाद आसमान टूट पड़ा, सारी दिशाएँ अंधकारमय हो गईं और चारों ओर से विषाद के काले मेघ घिर आए। इन्द्र के छल का, अहल्या के तत्क्षण की सम्पूर्ण स्थिति का कवि मोहंती जी ने विह्वल कर देने वाला प्रसंग लिखा है। ठगी गई अहल्या की भाव-संवेदनाओं को उन्होंने मार्मिक तरीक़े से चित्रित किया है। योगिनी वेश में बैठ वह प्रार्थना करती है, हे ईश्वर! अन्य किसी स्त्री के साथ ऐसा न हो। वह जानती है-मुक्ति नहीं सहज इस जीव दशा में। पश्चाताप की अग्नि में भस्म होना पड़ेगा। वह परम शान्ति से मरना चाहती है। कवि किंचित दार्शनिक भाव से विचार करता है और अहल्या की मनोदशा व विलाप का वर्णन करता है। अहल्या पूछती है—मृत्यु केवल पीड़ित की, या/अत्याचारी की, पापात्मा की, या/स्मृति विजड़ित माटी घट जड़ शरीर की/या निरर्थक नीरवता की/ काकुस्थ विकल समय की/ मृत्यु-स्थिर निश्चित, देवी-दत्त/ज्ञात-अज्ञात घटनावली की। वह जितना ही उस दुखद प्रसंग को भूलना चाहती है, वह दृश्य बार-बार उभर आता है:
भीतर-बाहर हर घड़ी
विद्रोह का भयावह कालात्मक रूप।
अहल्या कहती है—मुझ पर अनुकंपा मत करो/मेरी दयनीय विकल स्थिति को लेकर/ आँसुओं की स्याही से इतिहास लिखो मत/योगारुढ़ अवस्था में/अकेली मुझे रहने दो। मोहंती जी ऐसी परिस्थिति में नारी की मजबूरी चित्रित करते हैं, उसकी असहायता दिखाते हैं और अहल्या के भीतर चल रही भाव-संवेदनाओं को जीवन्तता प्रदान करते हैं। अहल्या की नींद किसी के मृदुल, कोमल स्पर्श से टूट गयी है। कवि ने उस भाव-पूर्ण क्षण का अद्भुत चित्रण किया है। यहाँ बिंब हैं, प्रकृति के मनोरम दृश्य हैं, भाव-भंगिमाएँ हैं और प्रणय-मिलन के लिए सहज समर्पण है। अहल्या को लगा, चाँदनी रात में प्रियतम आये हैं, वह कहती है, तुम दबे पाँव आये, मेरे बालों को सहलाया, पल भर खड़े रहे, एड़ी से चोटी तक छूते गए और मैं तुम्हारे स्पर्श की मादकता में स्वयं को भूल गई। अहल्या आगे कहती है—तुम्हारी कोमल बातों की चातुरी में/मोहिनी अनुराधा रूप माधुरी में/अपनी स्थिति अचानक गँवा बैठी। मोहंती जी लिखते हैं, चिरकाल से अहल्या प्रभु राम की प्रतीक्षा कर रही है। वह कहती है—हे मेरे हृदय बल्लभ अनुपम कांत! /मेरे कलंक को, कालिमा को/ अपने आशीर्वाद की अभय मुद्रा में/परिछन्न करो।
वह कहती है—तुम ही मेरे मरण, मेरे जीवन। मुझे दया मत करो/तुम्हारे विपुल नेह में/मैं बँधी चिरकाल। वह पूर्ण संकल्पित मन के साथ कहती है—चिरकाल बँधी रहूँगी/तुम्हारे प्रेम के मधुवन में/प्रेम जहाँ शोक न होगा/दुख और पछतावे का अस्थिर पवन/बहता न होगा, /आशंका न होगी कि/उद्वेग न होगा, विग्रह व्यथा न होगी/दीर्घ साँस न होगी। अहल्या कहती है—तुम्हारे आते ही सब कुछ बदल जायेगा, आनंद की हिलोरें उठेंगी, मेरे हृदय में नूतन प्रेम का संचार होगा। कवि का भाव-बोध देखिए-मायामय नील मेघ/की तरह दुर्भाग्य के/आकाश में तुम आकर/पहुँचे स्व-इच्छा से/निष्कपट अतिथि की तरह/अप्रत्याशित घड़ी में। अहल्या कहती है—छटपटाती मछली-सी मुझको आपने उपदेश दिया और रूपांतरित हुई मेरे शरीर और मन की जड़ता। हे राम! तुम पधारे हो इस परित्यक्त आश्रम में, पवन आज मुखरित हो प्रवाहित हुआ है। तुम पधारे हो, इसलिए आज हर कोष में नूतन जीवनी शक्ति संजीवित और हर प्राण में अननुभव नूतन उल्लास व्याप्त हुआ है। अंत में अहल्या कहती है—हे निर्मल शांत कांत सुन्दर! /मुझे निर्भय करो/निडर करो, निसंशय करो/अभय मुद्रा में, नूतन कल्प की/उज्ज्वल आलोक रश्मि में। आपके आगमन से मेरा जीवन/धन्य, परिपूर्ण।
डॉ. फनी मोहंती के इस दीर्घ काव्य “अहल्या” का उड़िया भाषा से हिन्दी में अनुवाद उड़िया-हिन्दी के बहुचर्चित, प्रसिद्ध साहित्यकार श्री शंकरलाल पुरोहित ने किया है। उनके पास उड़िया और हिन्दी दोनों भाषाओं के शब्द हैं तथा काव्य की गहरी समझ है। उनके द्वारा अहल्या का हिन्दी अनुवाद हिन्दी के पाठकों के लिए उपहार है वरना हिन्दी के पाठक इस महत्त्वपूर्ण कृति का रसास्वादन नहीं कर पाते।
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