मॉरीशस-भारत की धरती से डॉ. बीरसेन जागासिंह की प्रेरणाओं के स्रोत

01-12-2022

मॉरीशस-भारत की धरती से डॉ. बीरसेन जागासिंह की प्रेरणाओं के स्रोत

विजय कुमार तिवारी (अंक: 218, दिसंबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

समीक्षित कृति: मेरी प्रेरणाओं के स्रोत
लेखक: डॉ. बीरसेन जागासिंह
प्रकाशक: स्टार पब्लिकेशस प्रा.लि.

मेरे लिए अत्यन्त सुखद और गौरवान्वित पल था, जब दिल्ली स्थित गुजरात भवन के साहित्यिक सम्मिलन में मॉरीशस के वरिष्ठ और बहुचर्चित लेखक डॉ. बीरसेन जागासिंह से मिलने, परिचित होने का सुअवसर मिला। वह क्षण इसलिए भी यादगार बन गया, उन्होंने अपने हाथों, अपनी सद्यः प्रकाशित पुस्तक “मेरी प्रेरणाओं के स्रोत” मुझे सप्रेम सौंपा। प्रेम के साथ प्राप्त हुई हर चीज़ धरोहर हो जाती है। 

आत्म परिचय में डॉ. जागासिंह लिखते हैं, “विशेष प्रसन्नता कि ऋषि संतान हूँ, भोजपुरी भाषी बिहारी गिरमिटिया हिन्दू का वंशज हूँ। मॉरीशस मातृभूमि है, परन्तु भारत पूर्वजों की पूजनीय भूमि पर मुझे गर्व और गौरव है। भारत, हिन्दी, भोजपुरी, हिन्दुत्व, हिन्दू धर्म एवं भारत सहित सभी देशों के भारतीय वंशज मेरे अपने सगे कुटुम्ब हैं।” उदारमना और विश्व बन्धुत्व की भावना वाला भारत हृदय पूर्वक स्वागत करता है। उन्होंने इस पुस्तक को अपनी प्रेरणाओं के स्रोतों के श्रीचरणों में समर्पित किया है जिनकी हिन्दी सेवाओं से आजीवन प्रभावित एवं प्रेरित रहे हैं। अपने ‘दो शब्द’ में क्षमा याचना सहित उन्होंने स्वयं लिखा है—मैंने मात्र उन विद्वानों, प्रचारकों, पत्रकारों, संपादकों, शिक्षकों एवं साहित्यकारों को संग्रह में स्थान दिया है जिनका सीधा सम्बन्ध हिन्दी से था अथवा है और जिन्होंने मुझे अत्यधिक प्रभावित किया है। और हाँ! उनमें से अधिकतर की कर्मभूमि मॉरीशस रही है।”

यह एक कृतज्ञता ज्ञापन करते हुए अपनी तरह की साहित्यिक पुस्तक है। ऐसा हर किसी के जीवन में होता ही है, हम दूसरों के सम्पर्क में आते हैं, उनके बारे में सुनते हैं, पढ़ते हैं, उनसे सीखते हैं और प्रभावित होते हैं। इस तरह पीढ़ियों तक उन ध्वजाओं के संवाहक स्वेच्छा से सुलभ होते चले जाते हैं और हमारी सभ्यता, संस्कृति, भाषा, संस्कार अक्षुण्ण रहते हैं व सम्बर्द्धन को प्राप्त होते हैं। यह एक तरह से विकास-यात्रा है और इसी तरह दुनिया में तमाम सभ्यताओं, संस्कृतियों, भाषाओं, बोलियों और संस्कारों की विकास-यात्रा वर्तमान स्वरूप तक पहुँची है। यही दुनिया को जोड़ती है और मानवता जीवित रहती है। 

डॉ. बीरसेन जागासिंह की प्रेरणाओं के बीस कर्णधार यहाँ संगृहीत हैं जिसमें से चौदह मॉरीशस के, छह का जन्म भारत में हुआ, चार की कर्म भूमि मॉरीशस, एक की ट्रिनिडाड और एक नरेन्द्र दामोदर दास मोदी भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री हैं जिनका हिन्दी-प्रेम सम्पूर्ण हिन्दी जगत को प्रभावित किया है। डॉ. सर शिवसागर रामगुलाम मॉरीशस के प्रथम प्रधानमंत्री थे जिन्होंने मॉरीशस में हिन्दी को फूलने-फलने के लिए सर्वोचित उर्वर भूमि प्रदान की थी। शेष सभी ने साहित्य सर्जन, पत्रकारिता, संपादन, प्रचार-प्रसार, शिक्षण, प्रसारण, शोध-खोज जैसे विविध क्षेत्रों के माध्यम से हिन्दी की सेवा की है। 

1901 में गाँधी भारत लौट रहे थे, पानी के जहाज़ के इंजन में ख़राबी के चलते उन्हें 17 दिनों तक मॉरीशस में रुकना पड़ा। उन्होंने भारतीय गिरमिटियों की दुर्दशा अपनी आँखों से देखी। उनकी सेवा के लिए बैरिस्टर मणिलाल मगनलाल डॉक्टर को 1907 में मॉरीशस भेजा। अपने चार वर्षों के प्रवास में उन्होंने बैरिस्टरी, प्लाटफ़ॉर्म और प्रेस का सदुपयोग किया। निःशुल्क मुक़द्दमें लड़ने, गाँवों-शहरों में हिन्दी में भाषण देने, समाज में अंधविश्वास, कुरीति और स्वच्छता पर विचार व्यक्त करने जैसे महत्त्वपूर्ण काम शुरू किए। उन्होंने अँग्रेज़ी, गुजराती और बाद में अँग्रेज़ी हिन्दी में साप्ताहिक “ज हिन्दुस्तानी” का संपादन किया। उन्हें सुप्रीम कोर्ट में पगड़ी उतारने को कहा गया। उन्होंने 1893 के दक्षिण अफ़्रीका के कोर्ट में गाँधी जी द्वारा पगड़ी न उतारने का हवाला दिया और उन्हें सफलता मिली। पोर लुई राजधानी में ‘यंग मेन्स हिन्दू एसोसियेशन’ की स्थापना, संपादक को जेल से छुड़ाना, गिरमिटियों के ऊपर हो रहे अत्याचारों व भेदभाव वाले व्यवहारों को अपनी अकाट्य दलीलों से बदलवाना, गिरमिटियों में चेतना जगाना, फिजी में 8 वर्षों तक गिरमिटियों के लिए काम करना जैसे बड़े-बड़े काम उन्होंने किए। 1950 में वे पुनः मॉरीशस गये। बैरिस्टर मणिलाल डॉक्टर की स्मृति में उनकी मूर्ति का अनावरण 1959 में पोर्ट लुई में किया गया जिसके नीचे लिखा हुआ है, “शोषितों का उन्होंने पक्ष लिया और उनकी सेवा की।” ‘ज हिन्दुस्तानी’ के रूप में हिन्दी के लिए किया हुआ उनका बीजारोपण आज आधुनिक मॉरीशस में वटवृक्ष जैसा फैला हुआ है। 

पंडित आत्माराम विश्वनाथ ‘ज हिन्दुस्तानी’ के संपादन कार्य के लिए मॉरीशस 1912 में पहुँचे। उन्होंने 1919 में अनाज की कमी को लेकर गवर्नर के सामने 1000 लोगों के साथ ऐतिहासिक विरोध प्रदर्शन किया, ‘वन्दे मातरम्’ गीत का प्रचार किया और हिन्दुओं के धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक उत्थान के लिए कार्य किया। वे मॉरीशस में अपने अंतिम समय तक रहे। उन्होंने पाँच हिन्दी पत्रों का संपादन और चौदह पुस्तकों का लेखन किया। वे मॉरीशस के सच्चे सेवक के रूप में सम्मानित हुए। इसी कड़ी में डॉ. जागा सिंह पंडित काशीनाथ किस्टो को अपनी प्रेरणा का स्रोत मानते हैं। गिरमिटिया माता-पिता की संतान काशीनाथ का जन्म मॉरीशस में ही हुआ था। वे जहाँ काम करते थे, वहाँ दंगा हो गया और उन्हें तीन साल की सज़ा हो गयी। जेल में दुर्गा भगत क़ैदियों को रामायण और गीता सुनाते थे। उन्हीं की आर्थिक सहायता से वे उच्च शिक्षा के लिए लाहौर चले गये और महात्मा हंसराज जी के प्रोत्साहन से संस्कृत और वैदिक सिद्धान्तों का गहरा अध्ययन किया। मॉरीशस लौटकर उन्होंने ‘आर्य परोपकारिणी सभा’ का प्रचार-प्रसार किया। उन्होंने वाक्या में 1918 में आर्यन वैदिक स्कूल की स्थापना की जो आगे चलकर बहुत प्रसिद्ध हुआ। ‘मॉरीशस आर्य पत्रिका’ का संपादन किया। स्वामी दयानन्द की जन्मशती समारोह में उन्होंने सुधारवादी और जोशीले भाषण दिए, मॉरीशस आर्य पत्रिका का विशेषांक निकाला, उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान किया गया। बाद में उन्हें दोनोंं स्थानों से अलग होना पड़ा और ‘आर्य प्रतिनिधि सभा’ की स्थापना की और ‘आर्यवीर’ पत्र निकाला। पंडित काशीनाथ किस्टो मॉरीशस में जन्मे प्रथम विद्वान प्रचारक थे जिन्होंने पूर्णरूप से हिन्दी में प्रचार किया। वे प्रबुद्ध पाठ्य-पुस्तक लेखक एवं कुशल शिक्षक थे। उन्होंने भारतीय जीवन मूल्यों को समझा और प्रचार किया। 

डॉ. जागासिंह ने श्रम किया है अपने प्रेरकों के कार्यों की जानकारियाँ सहेजने में, उनकी कर्मठता, त्याग, समर्पण, प्रतिबद्धता और हिन्दी भाषा के प्रति लगाव को समझने में और उनके संघर्षों को रेखांकित करने में। यह पुस्तक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है और पीढ़ियाँ लाभान्वित, गौरवान्वित होती रहेंगी। उनकी लेखन शैली प्रभावशाली है, भाषा प्रवाहपूर्ण और सारे सन्दर्भ चमत्कृत करने वाले हैं। भारतीय मनीषियों, प्रचारकों, साधु-सन्यासियों के गम्भीर अवदानों को भी डॉ. बीरसेन ने रेखांकित किया है। उन्होंने पहचानने की कोशिश की है, ख़ून के रिश्ते की, संस्कृति की, भाषा-संस्कार की कोई अन्तर्धारा प्रवाहित होती रही है दोनों देशों के बीच। इन महान प्रेरकों के कार्यों को पढ़ते हुए कोई भी श्रद्धा से झुक जायेगा। 

श्री जयनारायण राय ‘हिन्दी प्रचारिणी सभा’ के लगातार 25 वर्षों तक प्रधान रहे। उन्हें मॉरीशस का प्रथम हिन्दी कहानीकार का गौरव प्राप्त है। 1941 में उनका नाटक ‘जीवन संगिनी’ छपा, उनकी शादी हुई और मॉरीशस का प्रथम हिन्दी साहित्य सम्मेलन हुआ जिसमें 1834 से 1941 के बीच भारतीय गिरमिटियों का हिन्दी सम्बधी लेखा-जोखा प्रस्तुत हुआ। वे पाँच बार सांसद बने और हिन्दी-अँग्रेज़ी के सिद्धहस्त लेखक थे। मॉरीशस के प्रथम प्रधानमंत्री डॉ. सर शिवसागर रामगुलाम के पूर्वज भी बिहार से ही थे। उन्होंने लंदन से मेडिकल की पढ़ाई की। राजनीति में आए और प्रधानमंत्री बने। उन्होंने हिन्दी के लिए बहुत काम किया। देश के विकास के लिए बहुत सी योजनाएँ बनायीं और मॉरीशस को सच्चे अर्थों में स्वर्ग बना दिया। 

पंडित मोहन लाल मोहित आर्यसमाजी बन गये थे, भारत से साहित्य मँगाकर अपनी सायंकालीन पाठशाला में पढ़ाया करते थे। स्वाध्याय के बल पर उन्होंने हिन्दी का प्रचार-प्रसार और समाज सेवा की। ‘आर्योदय’ के संपादक, ‘आर्य सभा मॉरीशस’ के प्रधान बने और विचारोत्तेजक लेख लिखे। उन्हें बहुत से सम्मान मिले और विदेश यात्राएँ की। उनके द्वारा दी गयी दान राशियों की चर्चा होती है। उसी परम्परा में डॉ. बीरसेन जागासिंह प्रो. वासुदेव विष्णुदयाल जी पर शोध की ज़रूरत महसूस करते हैं। उनकी शिक्षा लाहौर और कोलकाता में हुई। उन्होंने नौकरी नहीं ढूँढ़ी, उदात्त भावनाओं से ओत-प्रोत देश और जनता को जगाने का अभियान चलाया। उनके प्रवचन लोगों को प्रभावित करते थे। उन्होंने छोटी-बड़ी छह सौ से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाएँ लिखीं। उनका साहित्य उपदेशात्मक शैली में मिलता है। उन्होंने साहित्य की हर विधा में लिखा। वे एक साथ समाज सुधारक, धर्म प्रचारक, उपदेशक, संपादक, हिन्दी के प्रचारक एवं वरिष्ठ साहित्यकार थे। उसी परम्परा में सूर्य प्रसाद मंगर भगत और बैरिस्टर सोमदत्त बखोरी की चर्चा जागासिंह करते हैं। अभिमन्यु अनंत को भारत का साहित्यिक जगत ख़ूब पहचानता है। प्रेमचंद और शरदचंद का उन पर प्रभाव माना जाता है। उनके 32 उपन्यास छप चुके हैं जिसमें ‘लाल पसीना’ ऐतिहासिक माना जाता है। उन्हें अनेक पुरस्कार मिले और देश-विदेश के लोगों से मित्रता, प्रेम व सौहार्द भी। इसी कड़ी में प्रह्लाद रामशरण जी को शामिल करना उचित ही है। डॉ. जागासिंह लिखते हैं, “आज वर्ष 2022 में उनके समान एक साथ हिन्दी, अँग्रेज़ी और फ़्रैंच पर समान अधिकार रखने वाले कम हिन्दी के विद्वान मॉरीशस में जीवित हैं। हिन्दी, अँग्रेज़ी, फ़्रैंच, जर्मन और मराठी में उनकी पचास से अधिक पुस्तकें हैं।” 

डॉ. बीरसेन जागासिंह ने प्रेरणा के स्रोत के रूप में जिस व्यक्तित्व का नाम लिया है, रामदेव धुरंधर जी, विगत कुछ महीनों से मैं भी परिचित हुआ हूँ। भारत में उन्हें बहुत सम्मान के साथ चर्चा होती है। उनके पूर्वज उत्तर प्रदेश के बलिया से जुड़े हैं। उन्होंने वृहद्‌ मात्रा में श्रेष्ठ लेखन किया है और अनेक सम्मानों से पुरस्कृत होते रहे हैं। ‘पथरीला सोना’ उनका सात खण्डों में बड़ा और चर्चित उपन्यास है। वे भारत, गंगा और हिमालय को हमेशा चर्चा में याद करते हैं। आज भी उनकी सक्रियता किसी भी लेखक के लिए प्रेरणा का स्रोत है। 

हिन्दी-वीर सत्यदेव टेंगर, डॉ. उदय नारायण गंगू, डॉ. इन्द्रदेव भोला इन्द्रनाथ, राज हीरामन जैसे सक्रिय लेखकों, साहित्यकारों को अपनी प्रेरणा के रूप में स्वीकार करके डॉ. बीरसेन जागासिंह ने बड़प्पन दिखाया है। आप सभी हिन्दी भाषा के लिए अपनी-अपनी तरह से लगे हैं, हिन्दी के लिए संघर्ष किया है और हमेशा बुलंदी का भाव रखा। संपादन, लेखन, रेडियो कार्यक्रमों में आपने अपनी सक्रियता प्रमाणित की है। राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर आपके आलेख चर्चा में रहे हैं।

प्रो. हरिशंकर आदेश और प्रो. रामप्रकाश जी की गणना प्रेरकों में न हो तो कुछ अधूरा सा रह जायेगा। आदेश जी का कर्म-क्षेत्र ट्रिनिडाड रहा, उन्होंने वहाँ भारतीय संस्कृति और हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया। प्रो. आदेश स्वयं को विश्व नागरिक मानते थे और मानवतावादी दर्शन में विश्वास करते थे। उनकी प्रतिभा बहुमुखी थी, भजन, रामायण में मन लगता था। मानव कल्याण की भावना से उन्होंने ट्रिनिडाड में आदेश आश्रम बनाया था। भारतीय संस्कृति और भारतीय भाषाओं के विशेषज्ञ के रूप में मॉरीशस सरकार की माँग पर प्रो. रामप्रकाश मॉरीशस गये। 

डॉ. जागासिंह ने डॉ. कमल किशोर गोयनका जी को अपना प्रेरणा स्रोत मानते हुए ‘मॉरीशस मित्र’ जैसा सम्मान बोधक भाव व्यक्त किया है। उन्हें प्रेमचंद विशेषज्ञ कहा जाता है। उन्होंने अभिमन्यु अनंत और प्रह्लाद रामशरण के साथ मिलकर, शोध व प्रकाशन जैसा बड़ा काम किया है। वे एक ऐसे साहित्यकार हैं जिन पर 13 पत्रिकाओं ने अपने-अपने विशेषांक निकाले हैं। गोयनका जी प्रेमचंद विशेषज्ञ के साथ-साथ प्रवासी हिन्दी साहित्य के भी विशेषज्ञ हैं। उन्हें बहुत सारे सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। उन्होंने मॉरीशस की हिन्दी का प्रचार-प्रसार भारत सहित अन्य देशों में किया है और देश-विदेश की यात्राएँ की हैं। वे हिन्दी के प्रचार-प्रसार में लगे रहते हैं। डॉ. सिंह अपने प्रेरणा स्रोत के रूप में भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी जी को भी शामिल करते हैं। आज पूरी दुनिया उन्हें और उनके कार्यों को पसंद करती है। गुजरात राज्य का मुख्यमंत्री होने का तीन बार अवसर मिला और अभी दूसरी बार प्रधानमंत्री की जिम्मेंदारी सम्भाल रहे हैं। वे स्वयं को सेवक मानते हैं और देश-प्रेम मूलमंत्र है। उनका रहन-सहन सादा है। वे हिन्दी का सम्मान करते हैं और अधिकांश भाषण हिन्दी में ही देते हैं। 

इस संग्रह में डॉ. बीरसेन जागासिंह ने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक बहुत ज़रूरी प्रसंग जोड़ा है जिसे पढ़कर लग रहा है, वे हम सब की प्रेरणा के स्रोत हैं। अन्य गिरमिटिया लोगों की तरह उनके पूर्वज भी हमारे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ रामायण, गीता, महाभारत आदि ले गये। वे सनातन संस्कार के साथ गये, उन संस्कारों को अपने जीवन में उतारा, उन संस्कारों की रक्षा की और संस्कारों ने उनकी रक्षा की। उन्होंने लिखा है, ‘घर पर ढेर सारी हिन्दी की पुस्तकें थीं। कुछ शीर्षक आज भी मुझे स्मरण हैं—दृष्टान्त सागर, रानी सारन्धरा की कहानी, बैताल पच्चीसी, सिंहासन बत्तीसी, प्रेम सागर, सुख सागर, महोबे की लड़ाई, कोक शास्त्र आदि। गन्ने के खेतों से रिश्ता जुड़ गया था।’ शिक्षा प्राप्त करने की उनकी कहानी बड़ी रोचक है। वे शिक्षक, प्रशिक्षक के तौर पर महात्मा गाँधी संस्थान से जुड़े रहे। शोध करवाने के साथ पत्रकारिता, रेडियो-टेलीविजन आदि में भी काम किया। डॉ. जागासिंह ने ख़ूब लिखा है और देश-विदेश में ख़ूब सम्मानित हुए हैं।

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