प्रवासी प्रतिनिधि कहानियाँ — और प्रवासी-कथा चिन्तन

01-10-2022

प्रवासी प्रतिनिधि कहानियाँ — और प्रवासी-कथा चिन्तन

विजय कुमार तिवारी (अंक: 214, अक्टूबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

समीक्षित कृति: प्रवासी प्रतिनिधि कहानियाँ
संपादक द्वय: डॉ. दीपक पाण्डेय एवं डॉ. नूतन पाण्डेय
मूल्य: रु 700/-
प्रकाशक: राइजिंग स्टार्स, दिल्ली

प्रवासी साहित्य लेखन एक तरह से विश्व पटल पर स्वदेशी लेखन का विस्तार है क्योंकि कोई लेखक कुछ काल तक दुनिया के देशों में यात्रा करता है या प्रवास करता है तो वह अपने अनुभवों के आधार पर साहित्य सृजन करता है और देशी पाठकों को दुनिया के बारे में, वहाँ के रहन-सहन व जीवन के बारे में अपने लेखन के माध्यम से बताता है। प्रवासी भारतीय ख़ूब लिख रहे हैं और दुनिया भर में हिन्दी फैल रही है, समृद्ध हो रही है। प्रवासी साहित्य लेखन को लेकर सहमति-असहमति हो सकती है, वैचारिक मतभिन्नता की चर्चा होती है परन्तु उनके लेखन को सँजोया, सराहा जा रहा है

और प्रवासी साहित्य लेखन ने हिन्दी साहित्य में अपना मुक़ाम हासिल किया है। डॉ. दीपक पाण्डेय और डॉ. नूतन पाण्डेय, पति-पत्नी ने मिलकर “प्रवासी प्रतिनिधि कहानियाँ” नामक संग्रह का श्रम-साध्य संपादन किया है जिसमें अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कैनेडा, डेनमार्क, नॉर्वे, नीदरलैंड, न्यूजीलैंड, फीजी, ब्रिटेन, मॉरिशस और यूक्रेन में रह रहे प्रवासी भारतीयों की कहानियाँ सम्मिलित हैं। स्वयं पाण्डेय दम्पति ने विदेशों में लम्बे समय तक प्रवास किया है और प्रवासी साहित्य को लेकर लेखन-संपादन किया है। उसी कड़ी में “प्रवासी प्रतिनिधि कहानियाँ” उन दोनों का हिन्दी पाठकों के लिए नवीनतम उपहार है। संग्रह के शुरू में ही लंदन में रह रहे बहुचर्चित साहित्यकार तेजेन्द्र शर्मा जी की “भारतेतर हिन्दी कहानी की ख़ुशबू–” जैसी महत्त्वपूर्ण जानकारियों से भरी प्रस्तावना छपी है जो प्रवासी कथा लेखन के बारे में बहुत कुछ बताती है। 

संपादक द्वय ने सार्थक भूमिका विस्तार से लिखी है और प्रवासी लेखन पर प्रकाश डाला है। कहानी विधा सर्वाधिक पसंद है, के कारणों पर उनकी टिप्पणी समझने योग्य है, वे लिखते हैं, “कहानी में समाविष्ट उसके भावगत वैविध्य, शिल्पगत कलात्मकता, सामाजिक सम्बद्धता और सार्वकालिकता आदि विधागत गुणों में सहज ही तलाशा जा सकता है।” संपादक द्वय का मानना है कि कुछ कहानियाँ आत्म तुष्टि के लिए, अपना देश छोड़ने की मजबूरी के चलते और कुछ प्रवास के एकाकीपन के दंश को हल्का करने के लिए लिखी गयी हैं। उनका यह कथन भी विचारणीय है कि प्रस्थान बिन्दु से उत्पन्न दर्द के इसी सिरे से कहीं जुड़ता है सृजन का वह आरंभ तंतु जिसके रेशे-रेशे को प्रवासियों द्वारा आहिस्ता-आहिस्ता बुनकर मज़बूत किया गया है। सृजन के इस नये अध्याय में अस्तित्व को बनाये रखने की जद्दोजेहद, अपनी भाषा–संस्कृति को सहेजे रखने की उत्कट इच्छा और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपनी जड़ों को मज़बूती से जमाने का सायास और सामूहिक प्रयास दिखाई पड़ता है। उन्होंने लिखा है, “अपने देश और अपनी मिट्टी की स्मृतियों को अपने हृदय में सहेजकर रखना तथा गाहे-बगाहे उसको अपनी क़लम से अभिव्यक्ति देना प्रवासी साहित्य की एक ख़ास विशेषता देखी गई है जो अत्यन्त स्वाभाविक है। यही वजह है कि प्रवासी साहित्य अपने देश की माटी, संस्कारों और परम्पराओं से आज भी महकता है।” पाण्डेय दम्पति की भूमिका स्वयं में परिपूर्ण है, अलग से मेरे लिए कुछ बचता नहीं कि कुछ जोड़ सकूँ। हो सकता है, मेरे चिन्तन में बहुत सी बातों की पुनरावृत्ति हो, फिर भी मेरा सौभाग्य है कि एक साथ दुनिया भर में फैले प्रवासी कथाकारों को पढ़ रहा हूँ और अपने अनुभवों के आधार पर विवेचना, चर्चा में शामिल हो रहा हूँ। संपादक द्वय सहित सभी कहानीकारों को नमन, बधाई और शुभकामनाएँ। 

संग्रह में अमेरिका से 6 प्रवासी कहानीकार हैं। अनिल प्रभा कुमार की कहानी ‘बे मौसम की बर्फ़’ कैंसर पीड़िता की व्यथा के साथ मनोवैज्ञानिक विवेचना करती है। माता-पिता के लिए तिल-तिल मृत्यु के आग़ोश में जाती बेटी को देखना दुखी करता है। महक का संघर्ष और वैचारिक दृढ़ता कहानीकार का देखा यथार्थ लगता है। यहाँ संवेदना, प्रकृति के साथ तालमेल और अद्भुत जिजीविषा है। महक के सिर के बाल नहीं हैं। अनिल जी ने खिड़की के पार के दृश्यों का जीवन्त चित्रण किया है। भाषा और विम्ब कहानी को मन की सहज अभिव्यक्ति से जोड़ देते हैं। सहज मन अक़्सर दूसरे दृश्यों में सुकून पाता है जबकि उसके पास भी बहुत कुछ अच्छा होता है। पात्रों के भाव-संवेदना से भरे संवाद और मन का चिन्तन गहरी पीड़ा जगाते हैं। तूफ़ान आने और बेमौसम बर्फ़ पड़ने की सम्भावना है। हेमंत बिजली जाने और महक को लेकर चिन्तित हैं। पेड़-पौधों के विनाश को देख मन दुखी है चारू का। माता-पिता और कैंसर से जूझ रही बेटी के बीच रसी-बसी कहानी पाठकों के भीतर गहरा दर्द जगाती है। 

अनुराग शर्मा जी की ‘मुटल्लो’ भाव-संवेदना, ग़रीबी, दुख, पीड़ा और संस्कार की कहानी है। छोटी सी कथा में उन्होंने सब कुछ भर दिया है, बाहरी सम्बन्ध ख़ून के रिश्ते से बढ़कर होते हैं, नियति ख़ूब खेल खेलती है और समाज के लोग सुख कम, दुखी अधिक करते हैं। शर्मा जी की भाषा, शैली प्रभावशाली है और रिश्तों के लिए तड़प की भावनाएँ झकझोरती हैं। यहाँ नारी विमर्श पर समाज की संकुचित दृष्टि है और अन्तर्विरोध आँखें खोलने वाला। अनुराग जी ने ऐसे परिवार का यथार्थ चित्रण किया है जो अपने संस्कारों से गहरे जुड़े होते हैं। प्रभावशाली कहानी है। 

अमरेंद्र जी ने मौसम और प्रकृति का चित्रण अपनी कहानी ‘एक पत्ता टूटा हुआ’ में कुछ अधिक ही संजीदगी से किया है। कहानी पत्ते का मानवीकरण और उससे जुड़ी संवेदनाओं के प्रकटीकरण का अद्भुत दृष्टान्त है। कहानी पूरे मनोयोग से बुनी गयी है। भीतर की करुणा, संवेदना एक पत्ते के माध्यम से उसकी ख़ुशियाँ, दुख, पीड़ा और संघर्ष मुखरित कर देती है। पत्ता जहाँ भी पहुँचता है, उसके भीतर कोई जीवन धड़कता रहता है। अमरेंद्र जी की अनुभूतियाँ चमत्कृत कर रही हैं, उनके पात्रों के बीच के स्नेह-सम्बन्ध और संवाद पत्ता देखता है, सुनता और समझता है। उनकी शैली आकर्षित करने वाली है, कथा की भाषा भावनाओं को व्यक्त करने में समर्थ है और कहानी का प्रवाह पाठकों को बहा ले जा रहा है। 

अमेरिका में रह रही सुदर्शन प्रियदर्शिनी की ‘अखबारवाला’ एक भावनात्मक कहानी है। जया जिस परिवेश में है वहाँ आत्मीयता, संपर्क और जान-पहचान के कोई मायने नहीं हैं। सुबह-सुबह उसने सामने वाले घर के सामने फ़्यूनरल वैन खड़ी देखी, थोड़ी विह्वलता व्याप्त हुई उसके भीतर। यहाँ बंद कमरों में बंद ज़िन्दगी और अंदर से चमचमाते निर्जीव घर। इस देश में पुरुष नितांत अकेला है। पास-पड़ोस में किसी को किसी से कोई परिचय नहीं, कोई मतलब नहीं। जया को लगता है यहाँ के लोग साधु-संतों जैसे हैं, उन्हें दुख-दर्द नहीं व्यापता। अपने देश में हम, उम्र भर जाने वाले को जाने नहीं देते, नाना क्रिया-कर्म निभाते हैं, मिलकर रिश्ते-नाते सभी शोक में डूब जाते हैं। भारतीयता और पाश्चात्य जीवन के इस भेद-विभेद से जया विह्वल और संवेदनाओं से भरी हुई है। इस सभ्यता के भीतर पसरी निष्ठुरता और संवेदनहीनता के बारे में कहानी बहुत कुछ संप्रेषित करती है और कथाकार का भारतीय मन मरने वाली आत्मा के प्रति गहरी संवेदना, सहानुभूति खोजती है। 

सुधा ओम ढींगरा अमेरिका में रह रहीं चर्चित प्रवासी भारतीय कहानीकार हैं। ‘खिड़कियों से झाँकती आँखें’ उनकी मार्मिक और जीवन के जटिल प्रश्नों से जूझती कहानी है। भारत से युवा डॉ. मलिक नाना सम्भावनाओं की तलाश में अमेरिका पहुँचे हैं, उसकी पोस्टिंग कस्बेनुमा छोटे शहर में हुई है। सपने टूटते से लगते हैं। विचित्र-सी अनुभूति होती है, कुछ बूढ़ी आँखें बड़ी उम्मीद से निहारती हैं, आगे बढ़ जाने पर, पीछे पीठ में चिपकी महसूस होती हैं। अजीब सी नजरें–उदास, बोझिल, परेशान, किसी को खोजती पीड़ित आँखें। ये सभी अपनों के प्यार और स्नेह के ठगे हुए हैं, टूटे हुए हैं और दूसरों में प्यार ढूँढ़ते हैं। सबकी अपनी-अपनी समस्याएँ हैं परन्तु सबसे बड़ी समस्या अपनों से दूरी, अपनों का निष्ठुर होना और एकाकीपन है। भारत लौटना भी मुश्किल है क्योंकि वहाँ रिश्तों में स्वार्थ की आँधी चलती है और कोई स्वीकार करना नहीं चाहता। 'वहाँ हमें जी भर कर लूटा गया और हम प्यार समझकर लूटते रहे—डॉ. रेड्डी ने कहा, “जो कभी विदेश था, अब अपना लगने लगा है। डॉ. मलिक जीवन की लम्बी यात्रा में दिल के रिश्ते ही काम आते हैं, उन्हें सँभाल कर रखना।” ओम ढींगरा ने प्रवासी लोगों के एकाकीपन और संतप्त मन की व्यथा का मार्मिक चित्रण किया है। कहानी हृदय को छूती है। 

सुषम बेदी की ‘तीसरी दुनिया का मसीहा’ नारी विमर्श की मार्मिक कहानी है। सबकी ज़िन्दगी में अपना-अपना दुख है, अपनी समस्याएँ हैं। कहानी की बुनावट सधे हुए अंदाज़ में नारी-मन की उहापोह को सामने लाती है, यह बेदी जी की विशेषता है। तनु ऐसी ही पर-नुची पक्षी की तरह है जिसे उसके पति ने मसीहा की तरह उद्धार किया है, यहाँ अमेरिका में लाकर छोटे से घर में रखा है और ज़रूरत की सारी व्यवस्था करता है। तनु के लिए वह शैतान से भी बदतर है। ब्रूनो तनु की ज़िन्दगी में किसी सच्चे मसीहा की तरह है, उसके विचार, तर्क, ज्ञान तनु को प्रभावित करते हैं। वे दोनों शादी करने वाले हैं। ब्रूनो तलाक़शुदा है। तनु भी अपने पति से मुक्त होना चाहती है परन्तु कोई स्थायी नौकरी के बाद। वह संघर्ष कर रही है, परीक्षाएँ दे रही है। ब्रूनो को भारतीय संस्कृति और तनु पसंद है, अमेरिकी लड़कियाँ उसे पसंद नहीं है। सब कुछ अच्छा चल रहा है। कहानी ज़बरदस्त मोड़ लेती है, ब्रूनो भारतीय साधु की भविष्यवाणी सुनकर तनु को छोड़ देता है। सुषम बेदी प्रश्न करती हैं, “पुरुषों में स्त्रियों को लेकर मसीहा बनने की भावना क्यों होती है? क्यों स्त्रियाँ मान भी लेती हैं कि पुरुष हमारा मसीहा हो सकता है और हमारी ज़िन्दगी सँवार सकता है जबकि उनसे अपना ही बोझ नहीं उठता, सबके सब लंगड़े मसीहे।” तनु स्वयं से प्रश्न करती है, “लेकिन मैं–मैं ही क्यों मसीहों का इंतज़ार करती हूँ?” सुषम बेदी ने जिस तरह प्यार को परिभाषित किया है, चित्रण किया है, पाठकों के मन को गुदगुदाता है और नारी-मन को खोलता है। 

आस्ट्रेलिया में प्रवास कर रही रेखा राजवंशी की ‘फेयरवेल’ मार्मिक कहानी है। ‘इच्छा मृत्यु’ दुनिया के सामने चर्चित विषय रहा है। असाध्य रोग जिसका कोई इलाज नहीं और पता नहीं कब तक ऐसी निरीह अवस्था में रहना पड़े, इच्छा मृत्यु का चयन विकल्प के रूप में स्वीकारा जा रहा है, सरकारें भी नियम बनाकर क़ानूनी मान्यता प्रदान करती हैं। एडवर्ड ज़िंदादिल इंसान रहा है अपनी ज़िन्दगी में, अब ऐसे निरीह बनकर जीना नहीं चाहता, वह किसी हीरो की तरह दुनिया से प्रस्थान करना चाहता है। कहानी के माध्यम से रेखा राजवंशी ने इस ज्वलंत मुद्दे को, मेडिकल की चुनौतियों और परिजनों की व्यथा को भाव-संवेदना के साथ प्रस्तुत किया है। बावजूद इसके कहानी में कुछ ख़ालीपन रह गया है, पाठकों का मन अधूरा रह जायेगा। ‘हड्डी’ यूक्रेन में रह रहे प्रवासी भारतीय राकेश शंकर भारती की कहानी है। कथ्य-कथानक कोई नया नहीं है, हमारे समाज का वीभत्स चेहरा उभरता है और अपनी ही संतान की हत्या करते हैं क्योंकि वह लड़की है। मन घृणा से भर उठता है। मॉरिशस के महान साहित्यकार रामदेव धुरंधर की ‘सीमांत’ कहानी रहस्य से भरी है। जीवन में कभी-कभी सुखद संयोग घटित होता है और बिगड़ी स्थितियाँ अनुकूल होने लगती हैं। धार्मिक स्थलों में व्यभिचार, चोरी, अपहरण जैसे कुकृत्य होते हैं। अडोल्फ की पत्नी विक्टोरिया यानी माही का अपहरण हो गया है, समरत मदद का भाव दिखाता है पर उसे लूटना चाहता है। उसकी योजनाएँ सफल नहीं होतीं। अचानक माही मिल जाती है और अपने अपहरण की कहानी सुनाती है। कहानी में मनोविज्ञान है और यह विश्वास भी कि एक अच्छे इंसान के साथ बुरे मनोभाव का व्यक्ति भी बदल जाता है। रामदेव धुरंधर मॉरिशस और भारत सहित दुनिया भर में प्रसिद्ध रचनाकार हैं। उन्होंने विपुल मात्रा में साहित्य लिखा है और ख़ूब समादृत लेखक हैं। 

‘प्रवासी की माँ’ न्यूज़ीलैंड में रह रहे रोहित कुमार ‘हैप्पी’ की लिखी कहानी है। भागवंती के तीन बेटे हैं, बड़का ससुराल में बस गया है, छोटका अपनी दुनिया में खोया रहता है। मँझला न्यूज़ीलैंड में है। माँ का मन तीनों बेटों में उलझा रहता है। भागवंती न्यूज़ीलैंड में बेटा-बहू के साथ ख़ूब आनन्द से है। श्रीमती वर्मा से जानकर आश्चर्य होता है कि यहाँ भी वृद्धाश्रम हैं। उन्होंने कहा, “सुनती हूँ, भारत में पारिवारिक संकट और भी विकट है।” कहानी सुखद भी है और भागवंती को चिंता में भी डाल रही है। तब तक वीसा की तिथि पूरी हो जाती है। कहानी का संदेश है—कभी ख़ुशी, कभी ग़म। फीजी में रह रही सुभाषिनी लता की ‘पड़ोसी धर्म’ कहानी समाज के ज़रूरी मुद्दे से जुड़ी है। आपसी सम्बन्ध बहुत अच्छे हैं पास-पड़ोस में रहने वालों के बीच। लता जी लिखती हैं, “दोनों परिवारों का मानना था कि प्रेम करने वाला पड़ोसी, दूर रहनेवाले भाई से कहीं उत्तम है।” कभी-कभी पड़ोसियों के चलते कठिन स्थितियाँ पैदा हो जाती हैं। कहानी में विस्तार से दोनों परिस्थितियाँ उभरी हैं। समाज में रहने के कुछ क़ायदे-क़ानून भी हैं, लोगों के कर्तव्य हैं तो अधिकार भी हैं। डीजे बजने की समय सीमा निर्धारित की गयी है। किसी ने पुलिस को ख़बर कर दी और पुलिस ने आकर बंद करवा दिया। कहानी का संदेश स्पष्ट है और सही भी। 

कैनेडा में रह रही प्रवासी भारतीय डॉ. शैलजा सक्सेना की छोटी-सी कहानी “शार्त्र” सेवा, मानवता, संवेदना और देश-प्रेम की भावनाओं से भरी बड़ी सधी हुई रचना है। कहानी का कथ्य-कथानक, भाषा-शैली, जीवन के सारे विम्ब चमत्कृत करते हैं और पाठक कहीं खो जाना चाहता है। शार्त्र नाम है उसका जिसका मतलब है ख़ुश रहना और वह ख़ुश रहती है। जीवन के मूल्यों को समझना और कहानी में बुनना सहज नहीं होता, शैलजा ने यह कारनामा कर दिखाया है। शार्त्र बड़ी बात कहती है, “मैं बिना शर्तों के मनुष्य की तरह जी सकूँ—यही उद्देश्य है।” पूरी कहानी बाँधे रहती है। कैनेडा में सुमन घई चर्चित साहित्यकार, कहानीकार हैं, साहित्यिक पत्रिका का संपादन करते हैं, ‘लाश’ मार्मिक और संवेदनाओं की कहानी है। भारत-पाकिस्तान की संस्कृति और कनेडियन जीवन का सटीक चित्रण हुआ है। प्रवासी कहीं भी जाएँ, अपना दुख-दर्द, अपनी सोच से उबर नहीं पाते, ना अपनी संस्कृति छोड़ पाते हैं और ना वहाँ की अपना पाते हैं। लाश पहले लावारिस है परन्तु जब पहचान होती है, पीछे की सारी घटनाओं की जानकारी होती है, लोग भावुक और संवेदनशील हो उठते हैं। उसके साथ कुछ भी सही नहीं हुआ, जीवन भर कठोरता से दबाई गयी, जिसे भाई मानती थी, उसी के साथ शादी और उसके ही बच्चे की माँ, उसका मन कभी स्वीकार नहीं कर पाता। पागल हो गयी। सुमन घई जी लिखते हैं, “बेचारी बेटी होकर भी कभी बेटी न हुई, शादी हुई पर बीवी न बनी, जन्म तो दिया, माँ न बन सकी। ममता अगर मन में उठी तो मन के पाप ने उसे दबा लिया। मर तो बेचारी उसी दिन गई थी जिस दिन उसकी शादी हुई थी।” कहानी का मनोविज्ञान विचलित करता है। कैनेडा की प्रवासी कहानीकार डॉ. हंसादीप, देश-विदेश में ख़ूब चर्चित हैं। ‘काठ की हांडी’ उनकी सशक्त रचना है। कोरोना के दौर में सर्वत्र ऐसी ही भाग-दौड़ थी, लोग मर रहे थे। स्टीव की मृत्यु हो गयी, रोज़ा भावुक हो उठी, दोनों गहरे आत्मीय हो चुके थे। रोज़ा को भी अस्पताल ले जाया गया, वह कोरोना संक्रमित हो चुकी थी। बग़ल में डिरांग, कोई युवा उसी हालत में था। एक ही वेंटिलेटर बारी-बारी दोनों को लगाया जा रहा था। नर्स परेशान थी। इधर रोज़ा को राहत मिलती उधर डिरांग की बेचैनी बढ़ जाती। रोज़ा ने डॉक्टर से कहा, वेंटिलेटर डिरांग को लगा दीजिए। रोज़ा की सोच और डॉक्टर के साथ संवाद हंसादीप के संवेदनात्मक मानवीय चिंतन का उदाहरण है। 

डेनमार्क में रहने वाली अर्चना पेन्यूली की कहानी “हाईवे ई-47” में दुख और संघर्ष है। अपनी ब्याहता पत्नी को छोड़ किसी दूसरी औरत के साथ विदेशों में रहना आम बात है। पुरुष चरित्र का यह एक नकारात्मक पक्ष है। उसका मन भर जाता है, दूसरी पत्नी लाता है, उसे छोड़ता है और तीसरी ले आता है। संदीप ने यही किया है। शुभ दुख, त्रासदी के बावजूद संघर्ष करती है, वह बच्चों के लिए शादी नहीं करती। ज़िन्दगी संयोगों का खेल है। शुभ को संदीप की तीसरी पत्नी की किडनी मिलती है। शुभ के दोनों बच्चे, दूसरी पत्नी के बच्चों के साथ ख़ुश हैं। वह जीवन के मनोविज्ञान को जितना समझना चाहती है, समझ नहीं पाती। कहानी जीवन के बहुआयामी मनोविज्ञान को समझाती है। पात्रों का अद्भुत चरित्र सामने आता है। अर्चना पेन्यूली नारी मन की शक्ति को समझती है और पूरी संजीदगी से कहानी में बुनती है। मनुष्य का जीवन ऐसे ही भाग-दौड़ में लगा रहता है और व्यक्ति गिरता-संभलता है। कहानी बहुत कुछ कहती है और बड़ा संदेश देती है। 

नार्वे में रहने वाले प्रवासी भारतीय सुरेशचंद शुक्ल की रचना ‘मदरसे के पीछे’ कहानी का सम्बन्ध अफगानिस्तान से है। इसमें प्रेम है, नारी विमर्श है, धर्म के नाम पर खेल और दरिंदगी है। अफगानिस्तान में युद्ध जैसे हालात हैं और युवाओं को मोर्चे पर भेजा जा रहा है। शहनाज अपने मंगेतर से पूछती है, “किसके साथ जंग करोगे?” “वहाँ जाकर पता चलेगा,” दोसाबीन उत्तर देता है। शहनाज के चेहरे पर मुल्ला की निगाह पड़ती है। उसका मन बेईमान हो उठा। शहनाज ने दोसाबीन के साथ शादी की बात बताई परन्तु मुल्ला ने कुछ नहीं सुना। वासना के अंधे को कुछ दिखाई-सुनाई नहीं देता। शीघ्र ही दोसाबीन के साथ प्रेम की निशानी शहनाज के शारीरिक परिवर्तन से स्पष्ट होने लगा। बिना जाने मुल्ला ने शहनाज को दोषी क़रार दिया। ऐसा ही होता है, स्त्रियों के साथ। हर हाल में उन्हें ही दोषी बनाया जाता है। कहानी मार्मिक है और धर्माँधता की आड़ में नारियों के शोषण की कथा है। 

नीदरलैंड में रहने वाली पुष्पिता अवस्थी ने प्रेम से भरे आपसी सम्बन्धों की अद्भुत भावनात्मक कहानी लिखी है—‘देहिया’। हर प्रवासी रचनाकार की खासियत यह भी है, वह अपनी रचना में उस देश की हवा-पानी, ख़ुशबू को शब्दों के माध्यम से उकेरता रहता है। वह देश को भूलता नहीं और जहाँ है, उसे छोड़ता नहीं। मिली-जुली संवेदना का भाव मिलता है। सुख और दुख, कहीं भी रहिए, समान रूप से प्रभावित करते हैं। ‘देहिया’ कहानी में सावित्री प्रेम कविताएँ खोज रही है और कहती है, “'हाँ' ही तो प्रेम है। विडम्बना ही है, धरती के किसी कोने आग बरसती रहती है तो दूसरे क्षेत्रों में बर्फ पड़ रही होती है। सुरीनाम में आग थी और यहाँ नीदरलैंड में बर्फ है।” पुष्पिता अवस्थी लिखती हैं, “संवाद-सम्बन्ध-स्पर्श-प्रेम-स्वाद और सुख। जीवन की भूख और हूक के शब्द हैं ये। इन्हीं के लिए जीवन है और जीवन की सम्पूर्णता के लिए यह हैं।” लेखिका ने माँ, पुत्र और बहू के बीच के संवाद के लिए भोजपुरी मिश्रित हिन्दी का प्रयोग किया है। इससे समझ और मधुर सम्बन्ध उभरते हैं। सावित्री सास-माँ का चरण छूकर बोली, “माँ! हमारी आँखों में देखो—हमें सूँघो माँ!” पुष्पिता अवस्थी ने इस संवाद से सास-बहू के बीच के प्रेम-स्नेह भाव को सुन्दर तरीक़े से लिखा है। माँ, पुत्र और बहू के बीच का ऐसा मिलन और संवाद शायद ही कहीं और लिखा गया है। इस कहानी में सेवा है, समर्पण है, त्याग है, साथ न रह पाने की मजबूरी का अहसास है और एक-दूसरे पर विश्वास है। यही तो स्वर्ग का सुख है। कहानी पढ़ते हुए हर किसी का मन भीग जायेगा। 

ब्रिटेन से इस संग्रह में सर्वाधिक 8 कहानियाँ हैं। अरुणा सब्बरवाल की कहानी ‘उडारी’ में, 61 वर्षीया राधिका के मन की उधेड़बुन है। यहाँ नारी की परिस्थितियाँ है, विमर्श है और उड़ने की चाह भी। किसी ने प्रशंसा की है और साथ चलने का आग्रह भी। राधिका के मन की झिझक और धीरे-धीरे भीतर के प्रश्नों से साहस के साथ बाहर आने का उत्साह कहानी को बाँधे रखता है। कहानीकार का मानो अनुभूत संसार है, जिससे चेहरे में बार-बार लालिमा या गुलाबी रौनक़ फैल रही है। कथ्य के साथ भाषा और शैली रोमांचित करती है। राधिका अपनी माँ की बातों में समाधान पाती है, “बीते पलों में इतना मोह मत रखना कि वर्तमान को गले न लगा सको, वर्तमान में जीना सीखो। एक दिन ख़ुशी का जी लो, वही बहुत है।” राधिका पूरे विश्वास के साथ निकलती है और आज वह 61 की नहीं, बल्कि 16 की लग रही है। उषा राजे प्रवासी भारतीय हैं, उनकी ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ समृद्ध परिवारों में नारी के प्रति वैचारिक बदलाव की कहानी है। यह कहानी उस विचार को चुनौती देती है कि पढ़ी-लिखी, नौकरी या व्यवसाय करती महिलाएँ अपने पति, बच्चों और घर का ध्यान नहीं रखती। तिश व्यवसाय करती है, रोन यानी रोहन बिसारिया के प्रति आकर्षित है परन्तु शादी करना नहीं चाहती। रोहन तिश की सारी बातें समझता है और स्वयं को उसके लिए समर्पण, सहयोग की भावना रखता है। कहानी को उषा राजे जी ने बेहतरीन तरीक़े से बुना है, सारे संवाद तार्किक और सटीक हैं। घर के लोग इस शादी में राज़ी हैं परन्तु तिश की व्यस्तता से उतने संतुष्ट नहीं हैं। कहानी में मोड़ आता है जब रोहन बिसारिया दुर्घटना का शिकार होता है। तिश सक्रिय हो उठती है, घर, व्यवसाय के साथ रोहन की देखभाल करती है। परिवार के लोग ख़ुश व चमत्कृत होते हैं और अपने चिन्तन पर ग्लानि अनुभव करते हैं। नारी विमर्श की अच्छी कहानी है। 

प्रवासी भारतीयों की कहानियों को पढ़ते हुए स्पष्ट है, हर रचनाकार के मन में, उनकी स्मृतियों में अपना देश रहता ही है। कभी-कभी दो देशों का जीवन व चिन्तन कहानी को भिन्न दिशा में मोड़ देता है। कादम्बरी मेहरा की ‘एलिस से एला तक’ कुछ वैसी ही कहानी है। बड़े सधे हुए अंदाज़ में बुनी हुई है यह विस्तृत फलक की कहानी। मि. लाल की इच्छाएँ, उनके जीवन की घटनाएँ, उनका सुन्दरियों के पीछे भागता मन और हर बार धोखा खाने जैसा अनुभव कादम्बरी मेहरा ने बिंदास लिखा है। मि. लाल रसिक हैं परन्तु अपने चरित्र को सँभाले रहना चाहते हैं। उनके मनोभावों और परिस्थितियों को कहानीकार ने ऐसे लिखा है मानो यह सब उसके आसपास या साथ-साथ हुआ है। संवेदना, संघर्ष, दया, करुणा और पुरुषोचित भावों को सटीक तौर पर व्यक्त करना किसी भी कहानीकार की उपलब्धि है। साथ ही यह चिंताजनक चित्रण है पाश्चात्य रमणियों का और उनके जीवन-चिन्तन का। 

जकिया जुबैरी की 'साँकल' स्त्री जीवन के पीड़ा की कहानी है। सीमा को पति का स्नेह-साथ नहीं मिला, उनका व्यवहार असभ्य और तानाशाही वाला था। बेटे समीर को पीटता रहता था, वह बचाती रहती और ख़ुद भी मार खाती। समीर चिंता करता था, उसकी बातें माँ को विह्वल करती थीं। वही समीर बिल्कुल पिता की तरह बनता गया है। जिल अच्छी लड़की थी, समीर ने उसे छोड़ा, बेला भी चली गयी और अब यह नीरा? उसके चलते समीर ने माँ पर हाथ उठाया है, माँ को छिनाल जैसी गालियाँ दी है। पहले कितना ध्यान रखता था, आज वह गिर चुका है। डर है, कहीं हत्या ही न कर दे, सीमा भीतर से साँकल लगा लेती है और अपनी पूरी ज़िन्दगी का हर पल याद करती है। यह कहानी पुरुष मानसिकता का चित्र खींचती है और स्त्रियों के न ख़त्म होने वाले दुखों का वर्णन करती है। कहानी बहुत कुछ कहती है और रिश्तों को लेकर प्रश्न खड़े करती है। 

प्रवासी भारतीय जय वर्मा की ‘सात कदम’ मार्मिक और संकल्प की कहानी है। संग्रह की अधिकांश कहानियों में सच्चाई खुलकर आती है, हम विदेश की धरती पर क्यों आए हैं? यहाँ धन है, विकास है, चकाचौंध है तो बहुत सी विसंगतियाँ भी हैं जिसे हर प्रवासी परिवार झेलता है। प्रिंस कहता है, “हम केवल घूमने के लिए इंग्लैंड नहीं आये थे।” वह आगे कहता है, “पढ़ते समय मेरे भी कुछ सपने थे। मैं भी अपने जीवन में उन्नति और मानवता के लिए कुछ करना चाहता था।” कहानी संवाद के माध्यम से आगे बढ़ती है और ये संवाद सहज भी हैं और जटिल भी। पति-पत्नी दोनों मेडिटरेनियन क्रूज़ से घूमने निकलते हैं, ख़ूब ख़ुश हैं। हृदयगति रुक जाने से प्रिंस की मौत हो गयी है। सिम्मी किंकर्तव्यविमूढ़ है। रो भी नहीं पा रही है। उसे प्रिंस की विल की याद आती है और उसे पूरा करने में लग जाती है। ऐसी कहानी देखने में सहज है परन्तु जय वर्मा ने इसके माध्यम से बड़ा संदेश देने की कोशिश की है। 

प्रवासी भारतीय तेजेन्द्र शर्मा अनेक कारणों से सुपरिचित हैं। साहित्य के साथ-साथ सामाजिक गतिविधियों में संलग्न रहते हैं, लेखन के साथ ‘पुरवाई’ पत्रिका का संपादन करते हैं और प्रवासी होते हुए भी देश में अपनी जड़ों से जुड़े रहते हैं। ‘प्रवासी प्रतिनिधि कहानियाँ’ संग्रह में उनकी चर्चित कहानी “कोख का किराया” सामने है। मनप्रीत हारी हुई-सी बैठी है जबकि वह हारने वाली नहीं है। उसकी सोच रही है, “मनुष्य का जन्म बार-बार मिलता है? अरे जीवन के मज़े ले लो।” उधर गैरी भी अपने परिवार का पहला विद्रोही है। उसकी पहली गर्लफ्रेंड लिज़ा, गोरी, उम्र में दो साल बड़ी, दो क्लास आगे थी। स्कूली शिक्षा के साथ-साथ दोनों एक-दूसरे को यौन शिक्षा में भी पारंगत करने लगे। शर्मा जी कटाक्ष करते हैं, “इंग्लैड का भी अजब सिलसिला है, सोलह साल से कम उम्र की लड़की दुकान से सिगरेट नहीं ख़रीद सकती, वयस्क हुए बिना विवाह नहीं हो सकता परन्तु माँ बन सकती है।” ‘कोख का किराया’ स्त्री-पुरुष के बीच सम्बन्धों की जटिलताओं को, प्रेम और बिलगाव की भावनाओं को बेजोड़ अभिव्यक्ति देती है। कहानी के पुरुष पात्र भारतीय संस्कृति से प्रभावित हैं और अपनी-अपनी पत्नियों के प्रति समर्पित हैं। दोनों परिवारों में गाढ़ी दोस्ती है और प्रेम भी। डेविड की पत्नी जया माँ नहीं बन सकती, उधर गैरी की पत्नी मैनी यानी मनजीत दो बच्चों की माँ है। मैनी मन ही मन डेविड के प्रति उतावली रहती है। सहमति बनती है, मैनी अपनी कोख में डेविड के बच्चे को पाले। मैनी ख़ुश है, वह जया-डेविड को ख़ुशी देने वाली है। गैरी और मैनी के जीवन में दूरियाँ बढ़ती गयी हैं, वह, बच्चों को लेकर दूसरी लड़की नीना के साथ चला गया है। जया-डेविड बच्चा पा लेने के बाद कोई सम्बन्ध रखना नहीं चाहते। मैनी की ज़िद, हठ, महत्वाकांक्षा और कामुकता उसे कहीं की नहीं छोड़ती, आज वह तनहा भँवर में पड़ी हुई है। तेजेन्द्र शर्मा ने नारी जीवन की मनस्थितियों, मनोविज्ञान और संघर्ष को यथार्थतः प्रस्तुत किया है। उनकी शब्दावली मिश्रित है, हिन्दी के साथ वहाँ के भी शब्द हैं और वातावरण तो पूरी तरह वहीं का है। कहानी सैकड़ों प्रश्न खड़े करती है, जीवन की संवेदनाओं से जोड़ती है और सोचने पर मजबूर करती है। 

दिव्या माथुर चर्चित प्रवासी कहानीकार है। उनकी रचना ‘मेड इन इंडिया’ अलग तरह की हृदयविदारक कहानी है। उनके पास भाषा है, शैली है, प्रस्तुतिकरण का निराला अंदाज़ और पूरी बेबाकी से सब कुछ कह देने का साहस भी है। विम्ब तो ऐसे हैं मानो उन्होंने सारा कुछ देखा है। इस में हास्य-व्यंग्य है, पीड़ा-यंत्रणा है और वासना-तिरस्कार है। आश्चर्य है, भारतीय संस्कृति से दूर जाकर लोग ऐसे हो गये हैं। सारे दृश्य, घटनाएँ चिंताजनक हैं। सतनाम त्रस्त है—कोई भी पत्नी अपने पति को दूसरी औरतों को कैसे परोस सकती है? जसबीर ऐसी ही है, पुरुषों के गले लगती है, चुंबन लेती है। उसके भाई ने सतनाम का नामकरण किया है “मेड इन इंडिया।” संवाद अँग्रेज़ी में होते हैं, पंजाबी में होते हैं और हिन्दी में भी। स्थिति यह है, सतनाम को सास-ससुर, साले और पत्नी जसबीर सब की दी हुई यंत्रणा झेलनी पड़ती है। सब मिलकर अपमान करते हैं। ऐसा कोई अपने दुश्मन के साथ भी ना करे, सतनाम तो दामाद है। उसने जसबीर के सामने सब कुछ उगल दिया और वापस भारत जाने की माँग की। अगले दिन से घर का माहौल बदलने लगा। सतनाम को लगा—गोश्त के छोटे-छोटे टुकड़े उसकी ओर फेंके जा रहे हैं ताकि वह उनके चक्रव्यूह से निकलने का प्रयत्न छोड़ दे। चार दिन की चाँदनी फिर अँधेरी रात। सतनाम को पुलिस पकड़ ले गयी। बहुत ड्रामा हुआ, हंगामा हुआ। जसबीर ने अपना तिरिया चरित्र दिखाना चाहा। सतनाम झाँसे में नहीं आया, बाहर निकल आया और मुक़दमा बाइज़्ज़त जीत गया। ऐसी कहानियाँ बहुत से प्रश्न खड़ा करती हैं और संदेश व्यापक है। लेखिका को ऐसे चित्र खींचने में मज़ा आता होगा और दुनिया को बताना उनका धर्म भी है। 

‘यों ही चलते हुए’ पूर्णिमा बर्मन की द्वन्द-अन्तर्द्वन्द की कहानी है। शरजाह की ज़िन्दगी है, स्मृतियों में बहुत कुछ है और नित्य टहलते हुए सब कुछ समझने की कोशिश है। वह अपने आसपास या सड़क पर निकलते हुए सालों से इन सारे दृश्यों को देखती है, पहचानती है, भाषाएँ समझती है परन्तु उसे लगता है, सब कुछ अपरिचित-सा है, अनजाना-सा। पूर्णिमा जी लिखती हैं—यहाँ घर बनाने कोई नहीं आया है, सबको लौट जाना है एक दिन। उनकी लेखन शैली या कहानी की बुनावट ऐसी है, जैसे कोई क़दम-दर-क़दम सब कुछ सहेजते चलता हो। इस सहेजने में मन दूर-दूर से बहुत कुछ स्मृतियों में लाता है और वह समेट लेती है। वह डरती, सहमती है, हिम्मत करती है और जुड़ते चलती है। शरजाह में दुनिया भर के लोग रहते हैं और उनके जीवन, रहन-सहन को देखती समझती है। मार्क की दोस्ती या लिली का मिलना उसके सम्पर्क के दायरे को बढ़ाते हैं फिर भी कोई अजनबीपन छाया रहता है। भीतरी मनोविज्ञान उलझता-सुलझता रहता है। कहानी अपने-अपने वृत्त या चौखानों की बात करती है और वह समझती है कि ये चौखाने ही हमारी सीमाएँ हैं। पूर्णिमा बर्मन लिखती हैं—हर चौखाने के बीच सीमेंट एक-दूसरे के बीच की दूरी को भरती तो है फिर भी वे दोनों अलग-अलग ही बने रहते हैं, शायद यही इस देश की पहचान है। विदेशों में रहते हुए प्रायः सभी प्रवासी इसी अजनबीपन को ढोते रहते हैं और पहचान की विडम्बनाओं में घिरे रहते हैं। 

एक साथ भिन्न-भिन्न भावनाओं, संभावनाओं, दृश्यों, परिदृश्यों को पढ़ते, देखते हुए लगता है, हमारा प्रवासी लेखन बहुत उम्मीद जगाता है। लेखक उन देशों की ज़िन्दगी में रच-बस गये हैं और वहाँ के अपने विराट अनुभवों से भारतीय जनमानस का साक्षात्कार करवा रहे हैं। बहुत कुछ दुनिया में अच्छा है, हमारे अपने देश में भी अच्छाइयाँ कम नहीं हैं। यथार्थ दिखाने के चक्कर में कई बार कलात्मकता या साहित्यिकता प्रभावित होती दिखती है। हर कथाकार ने बेहतरीन लिखा है, अच्छा संवाद हुआ है, भाषा-शैली प्रभावित करती है और दुनिया भर के अनुभवों से हम परिचित हो रहे हैं। हो सके तो हम बाहर का फूहड़पन अपने लोगों को परोसने से बचें। अक़्सर विचारों की गंदगी तेज़ी से फैलती है और हमारा भारतीय चिन्तन प्रभावित हो सकता है। फिर एक बार डॉ. दीपक पाण्डेय और डॉ. नूतन पाण्डेय को इस महत्त्वपूर्ण साहित्य साधना के लिए बधाई देता हूँ और सतत लेखन-संपादन की कामना करता हूँ। 


समीक्षक: विजय कुमार तिवारी 
 (कवि, लेखक, कहानीकार, उपन्यासकार, समीक्षक) 
टाटा अरियाना हाऊसिंग, टावर-4 फ्लैट-1002
पोस्ट-महालक्ष्मी विहार-751029
भुवनेश्वर, उडीसा, भारत
मो०-9102939190, ईमेल-vijsun। tiwari@gmail। com

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