भावनात्मक आलोड़न के प्रस्फुटन की कविताएँ

01-11-2022

भावनात्मक आलोड़न के प्रस्फुटन की कविताएँ

विजय कुमार तिवारी (अंक: 216, नवम्बर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

समीक्षित पुस्तक: अलार्म घड़ी (कविता संग्रह) 
कवि: डॉ.। कुमार अनिल
मूल्य: ₹120/-
मुद्रक: प्रिण्ट मार्ट इंडिया लि., पटना। 

कवि-कर्म जैसी बातें सामने आती हैं तो लगता है जैसे कोई कुछ निश्चित उद्देश्य लेकर गढ़ने या लिखने चला हो, डॉ. कुमार अनिल इस मनो-चिन्तन से दूरी बनाते हैं और कहते हैं, “कविताएँ चाहकर नहीं लिखी जा सकतीं।” ‘अलार्म घड़ी’ 1982 से 2014 तक के लम्बे काल खण्ड के बीच की उनकी कविताओं का संग्रह है। 1987 में ही मुझ सहित 7 कवियों की कविताओं का संकलन ‘आसपास की प्रतिध्वनियाँ’ का संपादन करके कुमार अनिल ने अपनी साहित्यिक रुझान का परिचय दिया था। उनकी लेखनी से कविताएँ स्वतः निःसृत हो साहित्य जगत को आकर्षित करती रही हैं। डॉ. खगेन्द्र ठाकुर जैसे विद्वान आलोचक ने उनके सृजन को “अनुभव के ताप की कविता” बताकर जो मान दिया है, उसके बाद अलग से कुछ कहने, बताने की ज़रूरत नहीं है। 

क़लम काली, स्याही काली, काग़ज़ भी काला हो तो कैसे लिखी जायेगी कविता? स्याह अँधेरा होगा, मनुष्य के सपनों में सफ़ेद रंग होगा और तब कविता ख़ून से लिखी जायेगी। कवि के प्रश्न और उत्तर के बीच की कड़ी को जोड़कर देखिये, बहुत ऊर्जा छिपी हुई है, स्पष्ट चिन्तन है और मानवता के लिए तड़प। अलार्म घड़ी ऐसे ही ऊर्जावान कवि की कविताओं का संग्रह है जिसमें स्याह-सफ़ेद के बीच सृजनशील मनुष्य की खोज की भावनायें हैं। कवि सहजता से महसूस करता है, “कविता एक प्रक्रिया है और प्रेम भी . . . ।” 

जो लोग गाँवों में, खेतों में मेड़ों के सहारे पानी उतरते हुए देखते होंगे, उन्हें इस बदलाव की अनुभूति हो जायेगी। खेतों में पानी के पहुँचते ही मिट्टी खिल उठती है, पौधे मुस्कराने लगते हैं, बदलने लगता है सम्पूर्ण परिदृश्य और उभरने लगती है—संवेदनशीलता। 

कवि प्रश्न करता है, कविताओं की ज़रूरत क्या है, क्यों ज़रूरी है साहित्य, कलाएँ और मनुष्य के लिए चिन्तन करती विचारधारायें। यह केवल वाग्जाल नहीं है, मनुष्य के लिए विराट चिन्तन है। कवि वहाँ तक पहुँचना चाहता है और सम्पूर्ण मानव जाति के पक्ष में खड़ा होता है। वह स्वयं अपनी पहचान बताता है, “मैं एक शब्द हूँ—कांटेदार, नुकीला” और ख़ुश होता है, लोग समझदार हैं, बचकर चलते हैं। दूसरी कविता में स्वयं उत्तर भी देता है, “कविताएँ लिखी जानी चाहिएँ क्योंकि इससे मनुष्य की आत्मा का सौन्दर्य बढ़ता है।” यह संदेश विलक्षण है। उन अन्तर्विरोधों से हमारा परिचय होता है जिसमें सारी व्यवस्थायें हैं और ईश्वर भी। ख़ामोशी, आमंत्रण, नींद, भावनाएँ, आशंका जैसी कविताएँ कवि के भीतरी उजास और पीड़ा की अभिव्यक्ति है जो मानवता से जोड़ती है। “ठूँठ” की स्थिति तक पहुँचे अमलतास के प्रति कवि की पीड़ा उभरती है कि सारे के सारे हालात बदलते जाते हैं जब हमारे भीतर का जीवन समाप्त होने लगता है। कवि जीवन, जीवन-मूल्यों की चिन्ता करता है और सचेत करता है। 

कवि की संवेदनायें स्वयं से शुरू होकर दूर-दूर तक फैलती हैं, भर लेना चाहती हैं सम्पूर्ण सृष्टि को, पूरी मानवता को अपनी परिधि में और सबके भीतर की प्राण-चेतना को जगाना चाहती हैं। प्रकृति के भीतर चल रही सारी प्रक्रियाओं को कवि बड़ी सूक्ष्मता से महसूस करता है और हमारे सामने परोसता है:

“एक संवेदनशील धरती, 
सूरज की गर्मी में धीरे-धीरे तपकर
खोखली-भुरभुरी हो जाती है।” (धीरे-धीरे) 

“एक पीली-मटमैली उमस भरी शाम” कविता में संवेदना और सूक्ष्म दृष्टि प्रकट होती है, जो बताती है कि कवि मानवीय जटिलताओं को बख़ूबी अनुभव करता है और हमें आगाह करता है। प्रेम के बारे कुमार अनिल दूसरों के विचार बताते हैं और घोषित करते हैं कि उनकी भी प्रेमिका है। “वह लड़की” कविता में ग़रीबी, भूख का जीवंत चित्रण व संवेदना कवि को बड़ा बनाती है और हमारी व्यवस्था पर प्रश्न खड़ा करती है। लड़की जन्म लेती है, घर को आलोकित करती है, ख़ुशियाँ भरती है, धीरे-धीरे सयानी होती है और एक दिन पिता का घर छोड़कर ससुराल चली जाती है। लड़कियों के रूपान्तरण तथा बदलाव की अद्भुत संवेदना “दीवार बन रही लड़कियाँ” कविता में दिखती है:

“घर-संसार बनीं दीवारें
ख़ुद भी इक दीवार हुई।” 

कवि आज की भावनाहीन स्थितियों और लोगों की पहचान बताता है और उनके उपदेशों की सच्चाई भी:

“वे हर किसी से दूरी के पक्ष में थे—
माँ से, बाप से, बेटे से, बेटी से, नाती से, पोते से, 
पड़ोसियों से, शहर के हर आदमी से।” (शहर के सबसे सम्मानित लोग) 

संग्रह में अनेक कविताएँ हैं जिनमें अत्यन्त छोटी-छोटी अनुभूतियों को कुमार अनिल ने बड़ी भावनात्मक कविता के रूप में प्रस्तुत किया है जिस पर अक़्सर लोग ध्यान नहीं दे पाते। कवि की संवेदना देखिये:

“जब उसने सुबह-सुबह खिले गुलाब की ओर
बढ़ाया ही था अपना हाथ
अचानक चीख पड़ा—
मत तोड़ो इसे
बहुत दर्द होता है।” (दर्द भरी बातें) 

कुमार अनिल जी मनुष्य के संघर्षों को समझते हैं, अपनी कविताओं के माध्यम से उन सम्पूर्ण परिस्थितियों का चित्रण करते हैं और हमें सजग करते हैं। ऐसे में उनकी कविता शैली ख़ूब आकर्षित करती है और हमारे भीतर की चेतना को प्राणवान करती है। “एक अघोषित लड़ाई जारी है” कविता आगाह करती है और ख़तरों की ओर संकेत करती है। कवि का सबसे बड़ा कर्म और धर्म यही है जिसके निर्वाहन में कुमार अनिल सफल हैं। उनकी कविताएँ आज के समय की वस्तुस्थिति बयान करती हैं और आदर्श स्थितियों के बारे में खुलकर बताती हैं। आज की त्रासदी, आज का सामाजिक विघटन और उनके बीच पिसता हुआ आदमी कुमार अनिल के चिन्तन के केन्द्र में है। वैसे शुरू से ही वे शर्मीले और सुकुमार रहे हैं परन्तु उनका लेखन धारदार है। 

कहीं-कहीं उनमें वह जोश भी दिखता है जो कविता को नारों में बदलती लगती है, हालाँकि तब भी उनकी चिन्ता मनुष्य और उसकी विसंगतियों पर ही केन्द्रित है:

“मैं हवा हूँ
मैं तुम्हें आज़ाद कराने आयी हूँ
रुढ़िबद्ध संस्कारों से
जल्पनाओं के घेरे से।” (तुम्हारे लिए) 

कवि का मन विचलित होता है। सहमत न होते हुए वह पूछता है और बड़ी बेबाकी से राय रखता है:

“आप ने हमें सिखाया—
जल में रहकर मगर से वैर? 
पर मगर, अगर सब कुछ लील जाने पर उतारू हो
तो क्या है विवेकसम्मत? 
—सिर झुकाकर
स्वयं को हत्यारे के आगे
समर्पित कर देना?” (अन्तर्विरोध) 

कवि कुमार अनिल कविता को अपनी वैचारिक लड़ाई का हथियार तो बनाते हैं साथ ही अपनी संवेदना को भी मुखरित करते हैं। उनकी कविताओं में आज की राजनीति की गंध भी मिलती है जिसे उन्होंने छिपाने या दबाने की कोशिश नहीं की है। उनकी व्यंग्य्य कविता “हम एक हैं” आज की हमारी, हमारे देश, समाज की सच्चाई बयान करती है और व्याप्त विसंगतियों को आक्रामक तरीक़े से उजागर करती है—हम एक हैं क्योंकि हम कामचोर हैं, घूस लेकर काम करते हैं, हड़ताल पर नहीं जाते आदि-आदि। होना तो यह चाहिए कि हमारे समाज में, देश में ऐसी कोई अव्यवस्था ही न हो कि मनुष्यत्व और व्यक्तित्व प्रभावित हो। यहाँ कवि का चिन्तन किसी ख़ास विचारधारा को इंगित करता है फलस्वरूप मनुष्य का विराट स्वरूप ओझल सा होता लगता है। निश्चित ही आयातीत विचार हमारी मिट्टी के अनुकूल नहीं रहे हैं और हमारे जीवन-मूल्यों को प्रभावित किये हैं। उसी तरह दूसरी व्यंग्य्य कविता “हुजूर” भी देखने समझने लायक़ है। 

कुमार अनिल की लम्बी कविता है “ड्राइवर” जिसकी चर्चा किये बिना एक तरह से आलोचना-धर्म का निर्वाह नहीं होगा। अच्छा लग रहा है, यह कविता बिल्कुल किसी आलोकमयी कहानी की तरह है और मैं श्रोता की तरह सुनता-पढ़ता रहा। इसी बहाने उन्होंने कवि केदारनाथ सिंह की कविता “माझी का पुल” को याद किया और कवि त्रिलोचन को भी। कुमार अनिल जी हवा के बारे में बताते हैं, उसके अंतर को पहचानते हैं—गर्मी के दिनों में/सुबह की हवा/दोपहर की हवा/शाम की हवा/और रात की हवा/में अंतर होता है। कवि निराला भी याद आते हैं और उनका संदेश भी, “डरो मत/सामना करो हवाओं का/चाहे वह सूरज की गर्मी से लाख तपी हों।” कवि को निराला की सम्पूर्ण धरोहरों से लगाव है। बेचैनी की अनुभूति होती है उनकी क़लम हाथ में आते ही। कवि को ड्राइवर से धीरे-धीरे लगाव होने लगता है और उसकी दृष्टि से देखना शुरू करता है। बीच सड़क पर दिख जाता है कोई ट्रक, हादसे का शिकार हुआ है। कवि भावुक होता है और उस ट्रक के ड्राइवर के बारे में सोचता है। महसूस करता है कि आज कलयुग है और सभी लोग भावनाशून्य हो चुके हैं। कवि स्वयं आगे बढ़ जाता है इस अपराधबोध के साथ कि उसने भी रुककर नहीं की है जाँच-पड़ताल। कवि की भावनाओं, संवेदनाओं और परिस्थितियों का अद्भुत यथार्थ चित्रण सराहनीय है। यहाँ जीवन है, सपने हैं, धूल-मिट्टी है, हरियाली और नाना प्रतीकों से सजी कविता मनुष्य के संघर्ष की सहयात्रा है। कवि का दावा सही है कि कोई भी भूल नहीं सकता यह हादसा क्योंकि शब्द कभी नहीं मरते। 

संग्रह में उनकी एक मगही कविता है, कुछ गीत हैं, एक ग़ज़ल और “में वान ताओ” की अनूदित कविता “विदाई” भी है। अंत में इतना अवश्य कहना चाहता हूँ कि कुमार अनिल संघर्षरत संभावनाओं के कवि हैं, सारी जटिल विसंगतियों के बीच जीवन की मधुरता को पहचानते हैं। उनका यह संग्रह पढ़ा जाना चाहिए, पठनीय है और उम्मीद जगाता है। 

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