चक्रवात के घेरे में : युवा कवि राकेश श्रीराम मिश्र
विजय कुमार तिवारीसमीक्षित कृति: चक्रवात के घेरे में (काव्य संग्रह)
कवि: राकेश श्रीराम मिश्र
प्रकाशक: संकल्प पब्लिकेशन्स, बिलासपुर
मूल्य: ₹250/-
समकालीन कविता के आसमान पर अनेक युवा कवि अपनी उपस्थिति से साहित्य-प्रेमियों, पाठकों को आकर्षित कर रहे हैं और अपनी जगह बना रहे हैं। मेरा अपना सहज मत है, जिस किसी का भी हृदय धड़कता है, कविता का कोई प्रवाह फूटने लगता है, साहित्य की कोई विधा आकार लेने लगती है, उसका, कम से कम उतने भर के लिए तो जगह दो, उसे पढ़ो और हो सके तो आदर करो। उसके अनुभव को ध्यान से देखो और उसका आनंद लो। यथार्थ, रहस्य, ज्ञान के साथ साहित्य हमारे लिए आनंद का भी विषय है। दुखों, विसंगतियों की अनुभूति सब कर लेते हैं, उसी में डूबे रहते हैं, हो सके तो कवि के आनंद का सहयात्री बनो। इसके लिए किन्हीं बड़े-बड़े सिद्धान्तों की आवश्यकता नहीं है, बस सहज हो जाओ और बिना किसी बोझ के यात्रा करो। थोड़ी चिंता होती है, बहुतायत जनों ने पाठकों को उनकी सहजता से दूर किया है, भ्रमित किया है और सर्वाधिक क्षति साहित्य की हुई है। कविता आत्मीयता है, सुख-दुख में सहयात्री है और मनुष्य को मनुष्य बने रहने का संदेश देती है। कविता बहुत कुछ है जितना लोगों ने समझा है, कविता और बहुत कुछ है जिसे समझना अभी शेष है।
बड़ोदरा, गुजरात के युवा कवि राकेश श्रीराम मिश्र का हाल ही में छपा काव्य संग्रह “चक्रवात के घेरे में” मेरे सामने है। इस संग्रह में उनकी कुल 79 कविताएँ हैं। अपनी भूमिका में उन्होंने सारगर्भित बातें की हैं और इस संग्रह की कविताओं के पीछे के महत्त्वपूर्ण चिन्तन को स्पष्ट किया है। कवि का मन विह्वल है, वह दुखी है आज की भौतिकता के पीछे की अंधी भागम-भाग को लेकर। राकेश जी लिखते हैं, “आस्था, संवेदना, परमार्थ का अब उसके जीवन में कोई महत्त्व नहीं रह गया है। कहने को तो वह मनुष्य है किन्तु मानवता उसके जीवन में दूर-दूर तक नहीं परिलक्षित होती।” वे आगे लिखते हैं, “समूचे जन-मानस में भीषण चक्रवात आया हुआ है। आज पूरा विश्व इस चक्रवात से प्रभावित है। कवि का मन विचलित है, उस चक्रवात से आंदोलित है और ये कविताएँ प्रतिफल के रूप में हमारे सामने हैं।
पहली ही कविता का शीर्षक है “चक्रवात के घेरे में” जिसके आधार पर राकेश श्रीराम मिश्र ने अपने काव्य संग्रह का नामकरण किया है। चक्रवात हर किसी के जीवन में नाना तरीक़े से बिम्बित हो रहा है। यह एक ऐसी संरचना है जो गर्म हवा के चारों ओर कम वायुमंडलीय दाब के साथ उत्पन्न होती है। जब एक तरफ़ से गर्म हवाओं तथा दूसरी तरफ़ से ठंडी हवा का मिलाप होता है तो वह एक गोलाकार आँधी का आकार लेने लगती है, इसे ही चक्रवात कहते हैं। इस भौगोलिक घटना को कवि ने जीवन के नाना संदर्भों में समझने-समझाने की कोशिश की है। इसके कारण भारी तबाही होती है, जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है, जन-धन की हानि होती है और हालात सुधरने में बहुत समय लगता है। कवि ने अपनी कविताओं में चक्रवात को भावनात्मक-संवेदनात्मक तरीक़े से ग्रहण किया है और उसके प्रभाव को दर्शाया है। यह एक तरह से साहित्य में कोई नया प्रयोग है। कवि की भाषा, शब्दावली और शैली इस तरह के चिन्तन को समझाने में सफल है, सार्थक और सशक्त है। चक्रवात के घेरे में सब कुछ है, पूरी मानवता और कालचक्र भी, पूरी वसुधा, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड, इहलोक व परलोक भी। अजर-अमर आत्मा मर गई है, अस्तित्व विहीन हो गई है विश्वात्मा और सब कुछ घूम रहा है इसके घेरे में।
‘डर‘ हृदय को विदीर्ण करता है, भयावह व वीभत्स रूप से मानस पर कुठाराघात करता है और देखते-देखते सब कुछ नष्ट हो जाता है। वैसे ही ‘दहशत’ कविता में कवि चिंतित है, जो सन्मार्गी, सदाचारी, अहिंसक, सहिष्णु और धर्मपरायण हैं वही दहशत में जी रहे हैं। कवि की पंक्तियाँ देखिए—आज दहशत ही दहशत है/सबके जीवन में/आया है दहशत का चक्रवात। चक्रवात से कोई बचने वाला नहीं है, ईश्वर भी नहीं। कवि ख़ुश है। उसकी इच्छा है—देखना चाहता हूँ मैं तुम्हें/ इसी रूप में/ इन्हीं लोगों के साथ/ इन्हीं लोगों में। कवि को उम्मीद है-होगा विनाश एक दिन/निश्चित/इस चक्रवात का/इस चक्रवात के घेरे का। ‘वसुधा भी रोती है’ संवेदनाओं से भरी कविता है। राकेश श्रीराम मिश्र जी सहजता से अपने भीतर की पीड़ा चित्रित करते हैं। उनके बिम्ब, उनकी शब्दावली और शैली में कहीं कोई जटिलता नहीं है। सीधी-सपाट बातें बेझिझक कहते हैं और उनकी कविता प्रभाव छोड़ती है। चारों ओर चक्रवात, बवंडर, आँधी, तूफ़ान है, मानवता कराह रही है। कवि व्यथित हो पूछता है—‘कब होगा अमन चैन इस दुनिया में?’, ‘उठता है तब चक्रवात’ कविता में कवि पूरी प्रक्रिया समझाता है चक्रवात के उठने का और उन सारी स्थितियों की गहरी पड़ताल करता है। प्राकृतिक घटनाओं को मानवीय कुत्सित विचारों से जोड़ना स्वयं में नया प्रयोग है। ‘घूम रहा है अंतर में’ कविता में कवि की समझ में कुछ भी नहीं आता, उसके भीतर-बाहर चक्रवात का घेरा है। कवि प्रार्थना करता है—सम्पूर्ण विश्व बच सके इस चक्रवाती घेरे से। ‘कितना भीषण है?’, कविता में कवि चक्रवात की भयावहता का संकेत देता है—फँसी है धरती इस भीषण/विकट उत्कट/चक्रवात के घेरे में।
चक्रवात को लेकर ‘कैसा है यह चक्रवात’, ‘चक्रवात तुम क्यों आते हो?’, ‘क्या चक्रवात तुम कभी न थकते?’ जैसे प्रश्नों के साथ कविताएँ कवि-मन की बेचैनी दिखाती हैं। चक्रवात का इस तरह मानवीकरण करके प्रश्न पूछना भावुक करने वाला है। ‘पीछा नहीं छोड़ता यह चक्रवात’ तनिक भिन्न भाव-चिन्तन की कविता है। कवि को उसने अपनी गिरफ़्त में ले रखा है। लाचार होकर कवि को कहना पड़ता है—‘चक्रवात! अब तुम जाओ।’ बहुत हानि हो चुकी है, सब कुछ नष्ट हो गया है, चक्रवात! अब तुम नये सपने देखने दो, नये उत्साह में जीने दो, चक्रवात! अब तुम जाओ। कवि निस्तब्ध, निराश है, कोई मार्ग नहीं सूझ रहा है, वह प्रार्थना करता है—दिशा दिखाओ मुझको कोई आज/क्योंकि हो गया हूँ दिग्भ्रमित आज मैं। ‘चक्रवात है जन-जन में’ कविता में कवि उसकी विशालता, भयावहता का चित्र खींचता है और स्पष्ट करता है कि चक्रवात सब जगह है। ‘तोड़ दो चक्रवात का घेरा’ पुरुषार्थ जगाती कविता है। कवि जोश दिलाता है और चक्रवात के विरुद्ध खड़ा होने के लिए आह्वान करता है। ‘हृदय हीन चक्रवात’ कविता में कवि बड़ी मासूमियत से प्रश्न करता है—क्या तुम्हारे सीने में हृदय नहीं है? /क्या तुम सचमुच हृदयहीन हो? कवि के प्रश्न भावुक करने वाले हैं। ‘ज़माना बदल रहा है’ कविता में कवि चक्रवात से भी बदलने की बात कर रहा है। ज़माना, दुनिया, युग सब बदल रहे हैं, चक्रवात! अब तुम्हें भी स्वयं को बदलना चाहिए। कवि का यह भाव-चिन्तन अद्भुत और चमत्कृत करने वाला है।
कवि मेघ से बरसने, संवेदना की बौछारों से तपती धरती को शीतल करने और सबके अन्तःकरण को सुरभित करने की गुहार करता है। सबके भीतर सुविचार हों ताकि फिर कभी कोई चक्रवात न आए। ‘जाति का चक्रवात’ हमारे देश की जातिवादी दुर्दशा पर सटीक व्यंग्य करती कविता है। ‘क्यों बैठा हूँ मैं आज’ कवि के भीतर उठ रहे चक्रवात पर कविता है। ‘अंबर तुम क्या देख रहे हो?’, कविता में कवि के प्रश्न हैं—तुम्हारी ही छाया में चक्रवात उठ रहे हैं, तुम हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठे हो? क्या तुम्हें चक्रवात से डर नहीं लगता? कवि आगाह करता है—चक्रवात के घेरे में एक दिन सब कुछ नष्ट हो जायेगा, पूरी सभ्यता और पूरी मानवता।
‘आओ बसंत! तुम आओ’ कविता में कवि ने बसंत का आह्वान किया है। धरती मरुस्थल बन गई है, चारों ओर हरियाली का संवर्धन कर दो, भाव-संवेदनाओं के सौरभ से सुवासित कर दो, चक्रवात से तनिक भी डरने की ज़रूरत नहीं है, यह चक्रवात तुम्हें देखते ही भाग जायेगा। कवि पक्षियों से निर्भय होकर विचरण करने को कहता है और पूछता है, “तुमको क्या डर है?” यहाँ कवि के बिम्ब प्रभाव दिखाते हैं। चक्रवात के आने से सब कुछ नष्ट हो जाता है, रेत ही रेत फैल जाती है, नदियों व समुद्र में उफान आ जाता है, लोग बेघर हो जाते हैं, जंगल में आग लग जाती है, चिड़ियों के घोंसले उजड़ जाते हैं और जन-मानस में चक्रवात व्याप्त हो जाता है। कवि प्रश्न करता है, चक्रवात क्या ख़त्म हो सकता है कभी? उसे किसी अवतार की उम्मीद जागती है और समाधान दिखता है। पक्षियों से प्रश्न है, क्या जानते हो तुम भी चक्रवात? कवि के भीतर चक्रवात को लेकर जो भाव है, वह जीव-जन्तु, पक्षियों के भीतर उसी भाव-संवेदना को समझना चाहता है। कवि नव-युग की कल्पना बिना चक्रवात के करता है। नव युग की सुखद अनुभूति के साथ वह चक्रवात को रोकना चाहता है और चक्रवात को मृत्युशैय्या पर पड़ा देखता है। मासूम की तरह कवि प्रश्न करता है, चक्रवात! तुम आते हो कहाँ से? कौन है तुम्हारी माता? कौन हो तुम? कवि त्रस्त है चक्रवात से, पूछता है, “छँटेगा कब चक्रवात? कितना भीषण चक्रवात!” कविता में सभ्यता-संस्कृति सब ख़त्म हो रही है। कवि को चक्रवात के घेरे के बाहर की शान्ति, शीतलता दिखाई दे रही है। वह ‘बाहर भी देखो’ कविता में घेरे के बाहर की दुनिया देखने और चक्रवात से बाहर निकलने को कहता है। कवि को चक्रवात ने न जाने कहाँ भयावह लोक में ला पटका है, वह पूछता है—‘कैसे लौटूँ अपने घर?’, ‘बीतते हुए पल‘ और ‘अब लौ बुझने वाली है’ जैसी मार्मिक कविताएँ कवि की भाव-दशा का चित्रण करती हैं। कवि जन मानस में चक्रवात आने से दुखी होता है। वह नहीं चाहता कि जन मानस में चक्रवात आए।
‘मधुर भाव’ कविता में कवि निवेदन करता है, चक्रवात! हमारे जीवन के मधुर भाव, सुविचार, संवेदना को नष्ट मत करो। तुम्हें कभी माफ़ नहीं किया जायेगा और एक दिन तुम भी उसी में भस्म हो जाओगे। ‘महकते फूल’ कविता का संदेश यही है, तुम्हें भयाक्रान्त होने की ज़रूरत नहीं है। कवि, ‘क्या सोच रहे हो चक्रवात?’, ‘चक्रवात! तुम भी नश्वर हो’, ‘क्यों उठता है चक्रवात बार-बार’ और ‘चक्रवात तुम क्षम्य नहीं’ जैसी कविताओं में—बार-बार चक्रवात से प्रश्न करता है, उसकी नश्वरता का संकेत करता है और उसे अक्षम्य घोषित करता है। ‘हम पंछी क्या जाने’ भिन्न भाव-चिन्तन की कविता है। पक्षियों को चक्रवात को लेकर भिन्न अनुभूतियाँ हैं। ‘हमारा हुआ पुनर्जन्म’ कविता में कवि पुनर्जन्म की बात करता है और प्रसन्न है कि उसके भीतर का पुराना सब नष्ट हो गया है। ‘सज रही है तुम्हारी चिता’ कविता में कवि चक्रवात की चिता सजा रहा है। ‘मेघ! बरसो मानस अंबर से’ कविता में कवि मेघ से बरसने की याचना करता है ताकि धरती हरी-भरी हो जाए।
कवि राकेश श्रीराम मिश्र दो तरह के चक्रवातों की चर्चा करते हैं। एक तो वे जो स्वाभाविक तौर पर धरती पर उठते तथा विनाश करते हैं और दूसरा वह जो जन-मानस में उठता है। यह कुछ अधिक ही विनाशकारी होता है। ‘जन-जन की पुकार’ में लिखते हैं—मानस अंबर में चक्रवात का तनिक भी अवशेष न रहे क्योंकि अधुनातन संस्कृति में, भौतिकता की दौड़ में सब कुछ उजड़ चुका है। कवि का दार्शनिक चिन्तन ‘न जाने क्या खोजता हूँ मैं?’, ‘क्या खोजते हो?’, ‘नहीं मिलेगा तुमको’, ‘कहाँ जाऊँ?’ आदि कविताओं में प्रभावित करने वाला है। इनमें उनका दार्शनिक चिन्तन है, दहशत है और चक्रवात को लेकर ज़बरदस्त अवधारणाएँ भी हैं। शायद ही किसी कवि ने चक्रवात जैसी प्राकृतिक घटना को आधार बनाकर कविताओं का संग्रह रच डाला हो। यह कोई सार्थक, विलक्षण प्रयास है जो पाठकों को चिन्तन की कोई नई दिशा देने वाला है। ‘चाहते हो यदि–’ कविता में चक्रवात से स्वयं को बदलने के लिए कवि आगाह करता है और अनेक कारण-उदाहरण बतलाता है। ‘मैं चक्रवात हूँ’ कविता में चक्रवात का उत्तर समझने योग्य है। वह अपना सत्य और यथार्थ व्यक्त करता है। ‘सब कुछ भूल गया हूँ’, ‘मैं कौन हूँ’, ‘कैसा है यह चक्रवात धर्म का?’ जैसी कविताएँ नाना तरीक़े से चक्रवात सम्बन्धी अवधारणाओं की गुत्थी को सुलझाना चाहती हैं।
कवि ने ‘पहला चक्रवात’ कविता में उसकी विभीषिका का चित्रण किया है, फिर ‘क्षितिज! नहीं तुम आने देना चक्रवात’ में क्षितिज का आह्वान करता है कि तुम चक्रवात को रोक लेना और ‘होने वाला है अंत अब चक्रवात का’ कविता में चक्रवात के अंत की उम्मीद करता है। कवि की मनःस्थिति का इन कविताओं में संवेदनात्मक चित्रण बहुत कुछ स्पष्ट करता है। ‘होने वाली है सुबह’ कविता कवि की आशावादी सोच प्रदर्शित करती है। वह सुखद भविष्य की उम्मीद करता है और नाना बिम्बों से अपनी सकारात्मक सोच को दिशा देता है। वह ‘हो गया है मोह शायद’ कविता में मानव स्वभाव की कोई दूसरी सम्भावना की चिंता करता है। मानव मन प्रेम में अक़्सर मोह कर बैठता है। चक्रवात के घेरे से उसे मोह हो गया है। मानव मनोविज्ञान की यही समझ कवि को दूसरों से अलग करती है। ‘देगा तुम्हें कौन श्रद्धांजलि?’, ‘स्वीकार करेगा कौन तुम्हें?’, ‘क्यों भागते हो?’, ‘क्यों रोते हो चक्रवात?’ जैसे प्रश्नों से भरी कविताएँ कवि का चक्रवात के साथ रोचक संवाद है। ‘दफन कर लो’, ‘आत्महत्या’, ‘उठने को है जनाज़ा’ जैसी कविताओं में कवि चक्रवात को डूब मरने जैसा भाव व्यक्त करता है।
‘वह दिन दूर नहीं’ कविता में कवि चक्रवात और उसके घेरे से सम्पूर्ण जन मानस, धरती और विश्व के मुक्त हो जाने की उम्मीद करता है। इसके लिए थोड़े-से साहस, थोड़े पराक्रम और शौर्य की ज़रूरत है। हमें ग़ुलामी और पराधीनता को त्याग देना है। ‘बहुत दिन हो गए’ कविता में कवि को उम्मीद है, स्वाधीनता के दिन आने वाले हैं, नई दुनिया, नया युग होने वाला है और चक्रवात से मुक्ति मिलने वाली है। ‘किन्तु, ध्यान रखना’ कविता हमें सावधान करती है, रावण की तरह, कंस की तरह एक चक्रवात मरता है तो सहस्रों पैदा हो जाते हैं। ‘मोह न करो’ कविता हमें उपदेश देती है, यह तो घातक दुश्मन है, इसका मोह मत करो। ‘उठो उठो’ कविता में कवि तंद्रा भंग करने, ब्रह्म मुहूर्त में जागने और अनेक सम्भावनाओं के साथ नई शुरूआत करने का आह्वान करता है। चक्रवात कमज़ोर पड़ चुका है, मरणासन्न मृत्युशैय्या पर पड़ा है। राकेश श्रीराम मिश्र जी चक्रवात को सीख देते हैं, ‘यदि जन्म हो फिर कभी’ कविता में कि भगवान से कहना, वह तुम्हें चक्रवात न बनाए, बल्कि शीतल, प्राण दायक, मलय समीर बनाए ताकि दूर हो धरती की तपन और सभी प्रणय गीत गाएँ। संग्रह की अंतिम कविता ‘अब जा रहा हूँ’ में चक्रवात विदा ले रहा है, यह कहते हुए कि मैंने जो भी किया वह मेरा कर्म था, कर्त्तव्य और धर्म था। यहाँ कवि जीवन का दर्शन समझाता है कि हम सभी अपना-अपना कर्म कर रहे हैं और यही हमारा धर्म है।
साहित्य की काव्य विधा में कवि द्वारा यह कोई नूतन प्रयोग है। सहज बातें हैं, सामान्य शब्दावली है और गूढ़ चिन्तन है। चक्रवात को लेकर नाना विमर्श उभरे हैं, पक्ष भी है और विपक्ष भी। कवि चक्रवात से पीड़ित है और जन मानस में व्याप्त चक्रवात को लेकर अधिक चिन्ता है। कवि की भाषा और शैली प्रभाव छोड़ने वाली है। यहाँ भाव-पुनरुक्ति का दोष भी है, एक ही भाव, एक ही संवेदना अनेक कविताओं में है। कवि जीवन-दर्शन को समझता है और चक्रवात के माध्यम से पाठकों को समझाने का प्रयास करता है।
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