आज की स्त्री की घोषणा ‘मैं चुप नहीं रहूँगी’

15-08-2023

आज की स्त्री की घोषणा ‘मैं चुप नहीं रहूँगी’

विजय कुमार तिवारी (अंक: 235, अगस्त द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

समीक्षित कृति: मैं चुप नहीं रहूँगी
कहानीकार: संजीव जायसवाल ‘संजय’
प्रकाशक: अद्विक पब्लिकेशन, दिल्ली 
मूल्य: ₹220/-

आज की हिन्दी कहानी बदलाव का संकेत दे रही है, बदल रही है धीरे-धीरे परन्तु उसका स्वर दबा हुआ नहीं है। कहानी-नयी कहानी जैसे विमर्श का दौर बीत चुका है और आज कहानी अपने पूरे आलोक के साथ स्थापित हो रही है। जाने-अनजाने आज के कथाकार नयी-नयी परिभाषाएँ तय कर रहे हैं, कहानी का व्यापक विस्तार कर रहे हैं और अपनी कहानियों के माध्यम से बहुत कुछ स्पष्ट कर रहे हैं। कहानी को लेकर धारणा बनी हुई थी कि उसे मनोरंजक होना चाहिए, नाटकीय संभावनाओं से भरी हो और उसका स्पष्ट कथ्य-कथानक हो। साहित्य की तमाम विधाओं में जिस तरह संवेदना, करुणा, मानवीयता की चर्चा को आवश्यक समझा जाता है, कहानी विधा उससे अछूती नहीं है। आज की कहानी घटना-प्रधान तक सीमित नहीं है बल्कि मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और जीवन के सम्पूर्ण विस्तार को पकड़ती है, चमत्कृत करती है और अपना प्रभाव छोड़ती है। आज की कहानियाँ भय के परिवेश से बाहर निकलते हुए चुनौती देती हैं, घोषणाएँ करती हैं और ललकारती सी लगती हैं। 

ऐसा ही एक नवीनतम कहानी संग्रह ‘मैं चुप नहीं रहूँगी’ मेरे सामने है जिसे चर्चित और प्रतिष्ठित कथाकार संजीव जायसवाल ‘संजय’ ने लिखा है। संजीव जायसवाल ‘संजय’ जी आज साहित्य में सुपरिचित नाम हैं और उन्हें अनेकों पुरस्कार/सम्मान प्राप्त हुए हैं। उनके अब तक 20 कहानी संग्रह, 13 उपन्यास, 3 व्यंग्य संग्रह और 32 चित्र कथाएँ प्रकाशित हैं। उनकी पुस्तकों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुआ है। 

इस कहानी संग्रह का शीर्षक स्वयं ही बहुत कुछ संकेत दे रहा है और ये कहानियाँ स्त्री-विमर्श के साथ-साथ स्त्री-संघर्ष दिखाने वाली हैं। यह एक ज़बरदस्त मनोवैज्ञानिक पहलू है और आज की स्त्री उससे बाहर निकलते हुए कोई मुक़ाम तय करना चाहती है। इस संग्रह में कुल 13 कहानियाँ हैं जिनकी पृष्ठ-भूमि, भाव-भूमि भले ही अलग-अलग हो, सबके केन्द्र में स्त्री है, उसका संघर्ष है, समस्याएँ हैं और वह सफलता पूर्वक बाहर निकलती दिखाई देती है। आज स्त्री दुख का रोना नहीं रोती बल्कि अपनी समस्याओं को समझना और सुलझाना चाहती है। ये सारी कहानियाँ इन्हीं भाव-संवेदनाओं के साथ स्त्री के जुझारूपन का संदेश देती हैं। इन कहानियों में बलात्कार जैसा दुखद प्रसंग बार-बार उभरता है, प्रभावित महिलाओं के प्रति देश-समाज का नज़रिया दिखाई देता है और स्वयं स्त्रियाँ इसे कैसे लेती हैं, यह भी समझने की ज़रूरत है। हमारे समाज का यह कोई घिनौना चेहरा है और ऐसे लोगों की प्रवृत्ति जानवरों से भी बदतर दिखाई देती है। ये कहानियाँ नाना दृष्टिकोणों से इस दुराचार को स्त्री-पुरुष सन्दर्भ में समझाना चाहती हैं और मार्ग तलाशती हैं। 

‘सहमत’ भिन्न भाव-भूमि की कहानी है। पहाड़ों की ख़ूबसूरती के बीच अपरिचित युवा-युवती वर्जनाएँ बड़ी सहजता से तोड़ते हैं और संतुष्ट होते हुए साथ-साथ जीवन बीताने पर विचार करते हैं। ऐसी कहानियाँ युवाओं को आकर्षित तो कर सकती हैं परन्तु कोई आदर्श प्रस्तुत नहीं करती। ‘सोने का पिंजरा’ कहानी का कथ्य-कथानक चौंकाने वाला है और धोखा देने वाले किसी व्यक्ति से बदला लेने की यह शैली चमत्कृत करती है। दीपा को रोहित ने धोखा दिया है, उसके शोध पत्र को चुराकर अपने नाम छपवाया है, पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है और उसकी दो वर्षों की कड़ी मेहनत को मिट्टी में मिला दिया है। रोहित कहता है, “यह तो मेरा मानसिक शोषण होगा।” दीपा का सटीक उत्तर देखिए, “क्या शोषण करना सिर्फ़ पुरुषों का ही एकाधिकार है? नारी केवल शोषित होने के लिए बनी है।” किसी ने सच ही कहा है, “स्त्रियाँ बदला लेती हैं तो सम्हलने का मौक़ा भी नहीं देती।” नोटबंदी हाल के वर्षों की ऐसी घटना है जिससे पूरा देश हिल गया था। उस समय की आपाधापी, बेचैनी और ग़लत तरीक़े से संचित धन को स्वयं नष्ट करने की मजबूरी का “विसर्जन“कहानी में यथार्थ चित्रण हुआ है। उच्चवर्गीय, सम्भ्रान्त लोगों की जीवन शैली, उनकी अय्याशी और उनके कुकृत्यों पर यह कहानी प्रकाश डालती है। ऐसे समय में कोई साथ नहीं देता, सब कुछ स्वयं भुगतना पड़ता है और कहानी का संदेश यही है कि स्वयं नष्ट हो जाना होता है। 

‘मैं चुप नहीं रहूँगी’ कहानी पर ही इस संग्रह का नामकरण हुआ है। विषय अनजाना नहीं है, आए दिन लड़कियाँ बलात्कार की शिकार हो रही हैं। बलात्कारी बड़े घर का लड़का है, मंत्री का बेटा है और ऐसे बिगड़ैल लोग पुलिस, प्रशासन से भयभीत नहीं होते। पुलिस, प्रशासन, मीडिया सभी भयभीत हैं, कोई अपना कर्त्तव्य नहीं निभाना चाहता बल्कि बलात्कार पीड़िता को ही चुप रहने की सलाह देते हैं। हम कैसे समाज में रह रहे हैं? बलात्कार में इज़्ज़त लड़की की ही क्यों लुटती है। बलात्कारी कैसे पवित्र रह जाता है। मोनिका संघर्ष का बीड़ा उठाती है और इसके ख़िलाफ़ खड़ी होती है। कहानी का संदेश सही है, “अगर लड़की के साथ बलात्कार हुआ है तो उसे मुँह नहीं छुपाना चाहिए।” मोनिका के प्रश्न बिल्कुल सही हैं, उसकी सोच सही है, उसने सही क़दम उठाया है और उसके साथ पूरा देश खड़ा है। ‘काश! तुम न मिले होते’ भाव प्रधान मार्मिक कहानी है। यह प्रेम और बलिदान की कहानी है। जावेद पाकिस्तानी है और नेहा भारतीय। दोनों लंदन में मिले, दोनों के बीच प्रेम भावनाएँ जागीं परन्तु अपने-अपने घर वालों का ध्यान रखते हुए दोनों ने एक-दूसरे से दूर होने का संकल्प लिया। कभी-कभी ऐसे संयोग बनते हैं कि ऐसे प्रेमियों को एक-दूसरे के सामने खड़ा होना पड़ता है। विचित्र परिस्थिति में दोनों मिलते हैं। कहानी बड़े भावपूर्ण ढंग से बुनी गई है। जीवन की घटनाएँ चकित करती हैं, कर्त्तव्य-बोध जगाती हैं और प्रेम को पुनर्जीवित करती हैं। ‘रियल-रिलेशनशिप’ महानगरों में संघर्ष करते युवाओं की प्रेम कहानी है जो अंततः परिणय सूत्र में बँधते हैं। सही सोच हो, सही चिन्तन हो, मन साफ़-सुथरा हो और एक-दूसरे से प्रेम हो तो जीवन सहज, सरल हो ही जाता है। 

‘एक और दधीचि’ संग्रह की सशक्त कहानी है। इसमें वर्णित सारे प्रसंग चौंकाते हैं, ऐसा zमाने से होता आया है और भावना जैसी लड़कियों को शिकार होना पड़ता है। ऐसा भी हुआ है, पिता जिसे प्राप्त करता है, पुत्र भी पाना चाहता है और पैशाचिक स्तर पर उतर आता है। कहानी बुनते हुए रचनाकार ने परिपक्वता और सच्चाई दिखाने का प्रयास किया है और कहानी को कोई नया मोड़ दिया है। कहानी के संवाद हिला कर रख देते हैं जो भावना और खन्ना मैडम के बीच हुए हैं। दधीचि के उदाहरण से वह निर्णय लेती है, स्वयं को समर्पित करती है परन्तु पुत्र रतन सिंह का प्रवेश समाज के पतन की पराकाष्ठा है। भावना-रतन सिंह के बीच की स्थिति व संवाद कम वीभत्स नहीं है और कहानी का अंत विचलित करने वाला है। ‘अंबर की नीलिमा’ पहाड़ों का सौन्दर्य, रहस्य, रोमांच, संयोगों और प्रेम की अद्भुत कहानी है। पहाड़ी जीवन, वहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य और नाना प्रसंगों, घटनाक्रमों को जोड़ती कहानी लेखक की उड़ान दर्शाती है। कल्पित हो या यथार्थ प्रेम में ऐसे दृश्य होते ही हैं जिसे बुनते हुए रचनाकार पाठकों को सुखद अनुभूतियों से भर देता है और अंत में चमत्कृत करता है। हिन्दी, उर्दू, अंग्रेज़ी के साथ-साथ खेलों में प्रयुक्त होने वाले शब्द कहानी में चमत्कार पैदा करते हैं और लेखक का अनुभव दिखाते हैं। आज की नारी के साहस, बुद्धिमत्ता पूर्ण व्यवहार की सशक्त कहानी है, ‘वनवास अकेले नहीं भोगूँगी’ वैसे तो यह सामान्य सी कहानी है परन्तु इसमें समाज का असली चेहरा बहुत जल्दी उभर आया है। दीपिका बुद्धिमान तो है ही, सही समय पर सही निर्णय लेती है, नारी अस्मिता, नारी शक्ति दिखाती है और स्त्री को तरकीब सिखा देती है। वह पुरुष को भी चुनौती देती है और समाज में दंश भोगने को बाध्य करती है। ऐसी कहानियाँ आँखें खोल देती हैं। 

‘कविता के शब्द’ साहस से भरी सच्चाई की कहानी है जो ऐसे आयोजनों के भीतर फैला लिजलिजापन दिखाती है। वहाँ चकाचौंध है, शोहरत है, पैसा और प्रतिष्ठा है परन्तु शीर्ष पर बैठे लोगों के भीतर व्याप्त गंदगी भी है। ऐसे लोग किसी की सालों की मेहनत, श्रम और प्रतिभा को धूमिल करने में देर नहीं करते। फ़िल्मी दुनिया, संगीत और कला की दुनिया में ऐसे लोग भरे पड़े हैं। यह कौन सी मानसिकता है, शीर्ष पर बैठा हुआ व्यक्ति किसी उदित होते हुए कलाकार को वासना की दृष्टि से देखने लगता है, पाना चाहता है और जगहँसाई का पात्र बनता है। कविता का साहस सराहनीय है और कहानी का अंत सुखद है। संजीव जायसवाल ‘संजय’ जी की कहानियों में पहाड़ों की ख़ूबसूरती, हिमाच्छादित शृंखलाओं पर सूर्य की किरणों द्वारा स्वर्ण कलशों का जगमगाना हर पाठक को आकर्षित करता है। देवदार के वृक्ष, केसर के खेतों में व्याप्त सुगन्ध सब कुछ मोहित करने वाला है। वैसे कश्मीर की ख़ूबसूरत घाटियों की यह कहानी ‘ये कहाँ आ गये हम’ भटके कश्मीरी युवाओं और फ़ौज को लेकर बुनी गई है। संजीव जायसवाल जी सधे हुए कहानीकार हैं, उनके पास कुछ तो आधार होगा अन्यथा यह कहानी बहुत से प्रश्न खड़ा करती है। 

‘आज की सावित्री’ स्त्री जीवन पर सशक्त कहानी है। कहानीकार ने कई टुकड़ों को जोड़ा है और नाना प्रसंगों के साथ स्त्री-पुरुष के अहंकार को दिखाया है। शिक्षित और अशिक्षित दोनों के साथ एक ही समस्या है क्योंकि दोनों परिस्थितियों में पहले स्त्री हैं। स्त्री कहीं भी सुरक्षित नहीं है। सावित्री के साथ सामूहिक कुकृत्य होता है, वह भी थाने में, यह आज के सभ्य समाज पर बहुत बड़ा प्रश्न है। सावित्री कहती है, “अमीर आदमी धन दे देता है लेकिन—गरीब के पास तन के सिवा और कोई सहारा नहीं होता।” भले ही पति शराबी है, मारता-पिटता है परन्तु उसकी छत के नीचे शरण तो मिलती है। कहानी पढ़ते हुए पाठकों के सामने चिन्तन के लिए नाना प्रश्न हैं जिनका उत्तर हर समाज को खोजना है। 

जायसवाल जी की कहानियाँ घर-घर की सच्चाई बताती हैं और स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में अन्तर्विरोध दिखा देती हैं। स्त्री-पुरुष का अहंकार, दोनों के जीवन का मनोविज्ञान और जीवन की चुनौतियाँ ख़ूब स्पष्ट हैं इन कहानियों में। ‘असंतुलित रथ का हमसफ़र’ कहानी में किंचित दूसरे तरह की जटिलता का उल्लेख है। कोई बहुत सहजता से मिल जाता है तो निश्चित समझिए उस रिश्ते में दरार आनी ही है। इस कहानी का महत्त्वपूर्ण चिन्तन है—“न जाने यह कैसी त्रासदी है कि प्यार कई बार अधिकार का रूप धर पूर्ण स्वामित्व की कामना करने लगता है। यहीं से आरम्भ होती है क्रूरता और दमन की दास्तान जो नित नए भेष धर स्त्री की नियति को लिखना अपना अधिकार समझ बैठता है।” जिन्हें हम बहुत सफल और सुखी समझते हैं, क़रीब जाने पर उनकी दुःसह पीड़ा आँखें खोल देती हैं। दामिनी मैम की बातें दीपा को चकित और दुखी करती हैं। दामिनी का कहना सही है, “पति-पत्नी गृहस्थी के रथ के दो पहिए हैं। यह रथ स्थिर गति से तभी चल सकता है जब दोनों पहिए बराबर हों।” उनका यह कहना भी ग़लत नहीं है, “क्षमा समतुल्य या छोटे को दी जाए तभी सार्थक होती है। अहंकारी को क्षमा निरर्थक है क्योंकि वह इसे दूसरे की सहृदयता नहीं अपितु अपनी जीत समझता है और उसकी प्रवृत्ति अधिक हिंसक होती जाती है।” अंततः दीपा तय कर लेती है, वह असंतुलित रथ की हमसफ़र नहीं बनेगी और तलाक़ के पन्नों पर हस्ताक्षर कर देती है। 

स्त्री को केन्द्र में रखते हुए हर कहानी अपने तरीक़े से बलात्कार या दुर्भावना से संघर्ष करती स्त्री को परिभाषित करती है। स्त्री कुदृष्टि को न केवल पहचानती है बल्कि सक्रिय होकर उसका विरोध करती है। इन कहानियों के विषय जाने पहचाने से हैं परन्तु स्त्री का तनकर खड़ा होना नई और बड़ी बात है। इन कहानियों को समझने के लिए स्त्री मनोविज्ञान को समझना आवश्यक है जिसका सहारा कहानीकार ने बार-बार लिया है। 

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