जीवन्त कहानियाँ: ‘गंगा से कावेरी’

01-07-2023

जीवन्त कहानियाँ: ‘गंगा से कावेरी’

विजय कुमार तिवारी (अंक: 232, जुलाई प्रथम, 2023 में प्रकाशित)


समीक्षित कृति: गंगा से कावेरी (कहानी संग्रह) 
कहानीकार: शैलेन्द्र चौहान
मूल्य: ₹325/-
प्रकाशन: मंथन प्रकाशन, जयपुर

शैलेन्द्र चौहान का सद्यःप्रकाशित कहानी संग्रह ‘गंगा से कावेरी’ मेरे सामने है। इस संग्रह में अलग-अलग भाव-संवेदनाओं की कुल 13 कहानियाँ हैं। 

शैलेन्द्र चौहान जी अपने ‘लेखकीय’ में लिखते हैं, “मनुष्य के जन्म के साथ ही कहानी का भी जन्म हुआ और भाषा के विकास के साथ कहानी कहना तथा सुनना मानव का आदिम स्वभाव बन गया। इसी कारण प्रत्येक सभ्य तथा असभ्य समाज में कहानियाँ पाई जाती हैं। हमारे देश में कहानियों की बड़ी लंबी और सम्पन्न परम्परा रही है।” संग्रह की कहानियों के संदर्भ में उनका कहना है—“ये बिल्कुल अलग ढब की कहानियाँ हैं।”

डॉ. प्रकाश मनु ने “शैलेन्द्र चौहान की कहानियाँः ज़िंदगी की गुम त्रासदियों के अक्स” कहा है। वे लिखते हैं, “शैलेन्द्र चौहान की पहचान ज़्यादातर उनकी कविताओं में है, पर वे बड़े अच्छे गद्यकार भी हैं। उनके पास सीधे-सादे, मामूली ल्फ़्ज़ों से बड़ी बात कहने की क़ुव्वत और एक सधी हुई भाषा है, जिससे अपेक्षित प्रभाव वे पैदा कर पाते हैं।” इन कहानियों को लेकर उनका स्पष्ट कहना है, “शैलेन्द्र अपनी कहानियों में अपनी गुम चोटों और अपने आसपास और परिवेश की टूट-फूट और छूटती जा रही जगहों को दिखाना कहीं ज़्यादा ज़रूरी समझते हैं।” उनकी यह बात भी सही है, “उनका सबसे बड़ा आकर्षण यह है कि वे पूरी तरह उनके अनुभवों की कहानियाँ है जिन पर आप भरोसा कर सकते हैं।”

विवेच्य संग्रह कहानी ‘हम भीख नहीं माँगते’ अक्टूबर 1984 की तत्कालीन परिस्थितियों का यथार्थ चित्रण है। जब प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या हुई थी उसके बाद बिल्कुल ऐसा ही हो रहा था। उस वक़्त घटित घटनाओं एवं स्थितियों पर कहानीकार की स्वीकारोक्ति का अपना मर्म है, “मैं अपनी असमर्थता, ग्लानि, क्रोध और क्षोभ से अंदर तक हिल गया था।” यह भी सत्य है, “वे दंगाई उस वक़्त न हिंदू थे, न सिख, न ईसाई, न मुसलमान।” तब नये प्रधानमंत्री के बयान पर लेखक की प्रतिक्रिया साहसिक और लेखन-धर्म के अनुकूल है जिसने—‘उनके घावों पर नमक छिड़कने का ही काम किया।’ दंगों के पश्चात सहयोग के लिए हाथ बढ़ाने पर बलविंदर सिंह की प्रतिक्रिया उनके पुरुषार्थ और आत्मविश्वास को दिखाती है, “नहीं, सिंह साहब, हमारे हाथ पैर सलामत हैं, हम भीख नहीं माँगते।” यह उन सब पर ज़बरदस्त व्यंग्य है जो दिन-रात मुफ़्तख़ोरी में लगे हुए हैं। यह बीमारी है जो सामाजिक और नैतिक मूल्यों को कमज़ोर करती है और हमारे पुरुषार्थ के विपरीत है। दूसरी कहानी ‘कृष्णोत्सर्ग’ व्यवस्था पर गंभीर प्रश्न उठाती है। यह भावुक करने वाली कहानी है। किशन की परिस्थितियों, संघर्षों और विचारों का चित्रण करते हुए शैलेन्द्र जी लिखते हैं, “किशन के प्राण तो उस व्यवस्था ने ले लिए जो किसी पढ़े-लिखे युवक को सम्मानजनक और उचित रोज़गार के लिए दर-दर की ठोकरें खाने को विवश कर देती है।” साथ ही उन्होंने किशन जैसे लोगों के मनोचिन्तन का भी उल्लेख किया है, अक़्सर हमारी कोई सोच हमें उबरने नहीं देती। कहानी में जीवन की जटिलताओं का यथार्थ उल्लेख हुआ है। 

‘संप्रति अपौरुषेय’ विधुरचंद जैसे भ्रष्ट मैनेजर की पतनशील जीवनलीला की कहानी है। यहाँ कहानीकार ने उन बिन्दुओं की पड़ताल की है कि कैसे ज़्यादतियाँ लोगों के जीवन को प्रभावित करती हैं और उनमें सुधार की संभावनाओं को ख़त्म करती हैं। संदेश यही है कि जिस तरह कोई पीड़ित-प्रताड़ित होता है, अवसर मिलने पर वह दूसरों को पीड़ित-प्रताड़ित करता है। यह भी संदेश है इस कहानी का कि जब एक बार पतित होकर कोई गिरता ही चला जाता है वह उसे कुछ विवेकपूर्ण बात सुझाई नहीं देती। लगता है उन्होंने किसी को ख़ूब गहराई से देखा है तभी ऐसा सशक्त चित्रण हुआ है। यहाँ भी व्यक्ति का मनोविज्ञान समझा जा सकता है। 

शैलेन्द्र चौहान अपने आसपास की ख़ूब गहन भाव से पड़ताल करते हैं और सामाजिक संगतियों-विसंगतियों को साफ़-साफ़ ढूँढ़ निकालते हैं। उनके पास शब्द सामर्थ्य है और चरित्रों की समझ भी। वे हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग बेहिचक करते हैं और प्रवाह बना रहता है। ‘मेरे सामने वाला’ समाज का, आसपास रहने वालों के बीच का, आर्थिक स्थिति, व्यवहार व दिनचर्या का, स्त्री-पुरुष की सोच और चिन्तन का ज़बरदस्त चित्रण करती कहानी है। आग्रह-दुराग्रह, आकर्षण-विकर्षण, प्रेम की कल्पना और सबके भीतर छिपा राग व जुगुप्सा जैसे भाव ख़ूब चित्रित हुए हैं। बड़ा लेखक वही है जो आत्मनिरीक्षण करता है, अपने भाव-विचार व सोच को यथार्थतः लिखता है और यह ख़ूबी शैलेन्द्र जी में स्पष्ट दिखाई देती है। शैलेन्द्र जी ‘बड़े भैया’ लिखते हैं, अपनी स्मृतियों को खंगालते हैं और सशक्त अनुभव-जन्य संस्मरणात्मक कहानी बनती है। यह कहानी के साथ-साथ उस समय का जीवन्त चित्र है जिसमें उस काल-खण्ड का इतिहास, सम्पूर्ण दृश्य, लोगों के संघर्ष और संवेदनाएँ घुले-मिले हैं। भाषा-संस्कृति, पहनावा, खानपान आदि को समेटती उनकी कहानियाँ बहुत कुछ दिखाती, समझाती हैं। लेखक की सजगता और भाव-संवेदना देखिए, लिखते हैं, “यहाँ तो मैं अपनी आँखों से देख रहा था, यहाँ की हवा की गंध मन में भर रहा था।” दूसरा प्रसंग देखिए, “मुझे गाँव से जाने और दादी से बिछड़ने के कारण रोना आ रहा था।” दो बोलियों-भाषाओं के बीच या दो लोगों के बीच का संवाद रोचक है। इस कहानी में हर मौसम उभरता है, मिट्टी की पहचान होती है, सम्पूर्ण सौन्दर्य या चुनौतियाँ चित्रित होती हैं, होली-दीवाली जैसे उत्सव-पर्व जीवन्त होते हैं। यहाँ बचपन का सारा अनुभूत संसार चित्रित हुआ है। 

‘दादी और जनवादी कहानी शिविर’ किंचित भिन्न मनोभाव की कहानी है। सबकी अपनी-अपनी आवश्यकताएँ हैं, मजबूरियाँ हैं और अपना-अपना उद्देश्य साधने की कोशिश है। रिश्तों का मनोविज्ञान यथार्थ के साथ अद्भुत तरीक़े से रेखांकित हुआ है। दादी की मनोदशा, उनकी नाख़ुशी और अपने देखे दृश्यों का बार-बार उल्लेख कहानीकार की मानव-मन की पकड़ दिखलाता है। यह अपने तरह की संस्मरणात्मक कहानी है। 
‘घिरे हैं हम सवाल से’ यूनियन, कामगार, इंजीनियर, सरकारी अफ़सर, शोषण और संघर्ष की कहानी है। शोषण होगा तो कोई न कोई विरोध करने वाला निकल ही आयेगा। यहाँ सुजीत है, जागेसुर और रूपा भी है। यह अंदाज़ लगाना कठिन नहीं है कि जागेसुर में कुछ ऐसा करने की अदम्य इच्छा है जो शोषण के ख़िलाफ़ है। जागेसुर को पता है, समस्याएँ बहुत विकट हैं, सरकारी अधिकारी भ्रष्ट हैं, इंजीनियर सिर्फ़ मशीनों के लिए बने होते हैं, आदमियों के लिए नहीं। मज़दूरों की सुरक्षा की किसी को परवाह नहीं है। मज़दूर, ठेकेदार से लोगों को आदमी समझने की गुहार कर रहे हैं। एक अवांतर प्रसंग में सुजीत को वह भावुक और कमज़ोर समझता है और उससे उसकी मित्र वर्तिका को लेकर बहुत कुछ कहना, पूछना चाहता है। कहानी के आख़िर में ख़बर मिलती है कि सुजीत पर किसी ने कुल्हाड़ी से हमला किया है। सुजीत की तबीयत बिगड़ रही है। सुजीत-जागेसुर संवाद वैचारिक भेदों-मतभेदों का प्रकटन है और उन्होंने सशक्त चरित्र उभारा है। सामंतवादी और औपनिवेशिक जैसे शब्द कहानीकार के अध्ययन-अनुभव से उभरे हैं जिन्हें वह ऐसे हालात में चरितार्थ होते देखते हैं। स्त्रियों को लेकर दृष्टिकोण थोड़ा लचीला है। प्रिय-अप्रिय घटनाएँ तेज़ी से घटित होती हैं और परेशान करती हैं। यह कहानी कुछ बुनियादी प्रश्न उठाती है जिनका सही समाधान तलाशने की निरंतर एक कोशिश है। सुजीत का स्थानान्तरण चमोली हो गया है, कामगारों का मत है यह साज़िश के तौर पर करवाया गया है। वह सबको समझाता है—मैं अपनी ज़िम्मेदारियाँ आप सभी को सौंपता हूँ, काम आप लोगों को ही आगे बढ़ाना है। आप हताश न हो, सब मिलकर काम करें। एक दिन आयेगा जब समाज में बदलाव दिखाई देगा।” इस तरह देखा जाए तो यह कथाकार के वैचारिक चिन्तन की सशक्त कहानी है। 

‘गंगा से कावेरी’ ट्रेन यात्रा भर नहीं है, कथाकार का कोई सच है जिसका सहज चित्रण पाठकों को बाँधता है। यहाँ समानान्तर दो यात्राएँ साथ-साथ चल रही हैं और कथाकार वैचारिक उलझनों में खोया हुआ है। जीवन में बहुत कुछ असहज करने वाला है। सोचने या चिन्तन करने के पक्ष में तर्क है, “सोचने से अवचेतन की इच्छाएँ संतुष्ट होती हैं। ज़िन्दगी में बहुत कुछ किया नहीं जा सकता, बस सोचकर ही थोड़ा ख़ुश हुआ जा सकता है।” हंसराज रहबर का उपन्यास ‘दिशाहीन’ प्रभावित नहीं करता। पति-पत्नी के बीच के आपसी सम्बन्धों पर कहानीकार का चिन्तन अनेक प्रसंगों में उभरता है, दीप्ति की याद आती है और स्त्री स्वतंत्रता को लेकर दीप्ति व नीरा की समान सोच है। वे लिखते हैं—गंगा-कावेरी एक्सप्रेस न कोई घटना है, न कहानी। बस एक ट्रेन है जो निरंतर चली जा रही है। उन्होंने नाना संदर्भों में महत्त्वपूर्ण लेखकों को याद किया है, यथा सुखी-दुखी होते हैं। महत्त्वपूर्ण यह है कि वे क्रान्ति को परिभाषित करना चाहते हैं तथा निष्कर्ष निकालते हैं, जिनके पास पैसा है, साधन है, वे ग़रीब और दुर्बल मनुष्यों के श्रम का उपभोग कर रहे हैं और ग़रीब व दुर्बल इसे अपनी नियति मान बैठे हैं। 

हास्य व व्यंग्य से गुँथी कहानी ‘पोथी लिख-लिख जग मुआ’ लेखन जगत की सच्चाई है, राई-रत्ती भर अंतर नहीं है, लगता है कहानीकार ने बहुत क़रीब से सब कुछ देखा, अनुभव किया है। संयोग ही है, वे स्वयं कवि, कहानीकार और पत्रिका के संपादक भी हैं। उनका एक तरह से साहस भी है, वस्तुस्थिति को उजागर करना। पत्राचार की शैली सच्चाई व्यक्त करने में सहायक है, सारे पात्र और दृश्य कहानी को जीवन्त बना रहे हैं। 

‘इंद्रजाल’ कहानीकार के अनुभव, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, व्यावसायिक, नैतिक-राजनैतिक समझ और उस पर महल खड़ा करने के अद्भुत प्रयास की कहानी है। यह भी एक तरह का व्यंग्य ही है और सच्चाई यह है कि ऐसे पात्र भरे पड़े हैं हमारे समाज में। वैचारिक मतभेदों के आधार पर कहानीकार के मंतव्य को समझा जा सकता है और किसी पर भी चस्पा किया जा सकता है। कहानी के बिंब रोमांचित करते हैं, भाषा और शैली प्रभावशाली है, वे लिखते हैं, “उनकी स्थिति उस रूपसी जैसी थी जो अपने रूप और चंचलता से अनेकों पुरुषों को फ़्लर्ट करती है। वह भी उसी तरह अपना लाॅलीपाॅप दिखा-दिखाकर अनेकों लोगों को फ़्लर्ट करते थे। कहानी अंत आते-आते संदेश देती है, एक दिन उनका पराभव होता है और उनका इंद्रजाल खण्ड-खण्ड हो चुका होता है। ऐसी कहानियाँ अक़्सर किन्हीं गहरी अनुभूति की प्रतिक्रिया में चित्रित होती हैं और ख़ूब पढ़ी-सराही जाती हैं। 

स्थानीय शब्दावली और मुहावरे के साथ शैलेन्द्र चौहान जी गाँव-जवार, जाति-धर्म का खेल ख़ूब समझते हैं और राजनीति भी। ‘लोक सेवक’ सहकारी बैंक के अध्यक्ष के चुनाव से जुड़ी कहानी है। यहाँ जड़ जमाए सम्पन्न लोगों के बीच का जोड़-तोड़ चुनाव को प्रभावित करता है, शैलेन्द्र जी ने यही दिखाने की कोशिश की है। राजनीति में किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता। लोभ-लालच, दारू-शराब और भय दिखाने जैसे सारे हथकंडे अपनाए जाते हैं। इनके आगे सब बेबस, लाचार हो जाते हैं। ‘प्रार्थना की शक्ल में एक अदद विडंबना’ कहानी में व्यंग्य है और वैचारिक टकराहटों से भरे संवाद हैं। कहानीकार को देश-समाज के हालात की भरपूर जानकारी है और उन्हें पता है, ऐसे में उनके द्वारा उठाए मुद्दे सामने वाले को निरुत्तर करने के लिए पर्याप्त हैं। कहानी का एक संदेश यह भी है, वादे, नारे, मत, मुद्दे जो भी हों, सबको नौकरी चाहिए, काम चाहिए और घर में सबके लिए रोटी चाहिए। सत्ता में बैठे लोगों द्वारा अक़्सर चतुराई से वही मुद्दे उठाए जाते हैं जिससे सामने वाला असहज हो सके। ऐसे ही जीत-हार का खेल चल रहा है और देश-समाज भी। कहानी के सच को किसी तरह ख़ारिज नहीं किया जा सकता। कुल मिलाकर यह कहानी सोचने-विचारने के लिए लोगों को बाध्य करने वाली है। 

शैलेन्द्र चौहान जी की कहानियों में ख़ास तरह की रोचकता है, उनका झुकाव आम आदमी, कमज़ोर और लाचार व्यक्तियों के प्रति है। उनके सधे हुए प्रश्न उत्तर खोजते हैं। इस क्रम में उन्हें जूझना-टकराना अच्छा लगता है क्योंकि उनकी अपनी वैचारिक सोच और चिन्तन है। ‘एक अबूझ कहानी यह भी’ पाठकों को उनकी इंगित दिशा में ले जाती हुई कहानी है। वे बुनियादी सवाल उठाते हैं और नाना तरह के लोगों से मिलते हैं। यह शैली और उनका तरीक़ा कहीं व्यंग्यात्मक लगता है और कहीं गम्भीर चिन्तन की मुद्रा अख़्तियार करने को बाध्य करता है। उन्हें ‘उत्तर आधुनिकता’ के बारे में जानना-समझना है। समाज के हर तबक़े के लोग अपनी राय देते हैं, जितना समझते हैं। अधिकांश लोग जानते ही नहीं। अर्थशास्त्री मानते हैं कि देश में तरक़्क़ी हुई है। वैसे अगर हमारे चरित्र में थोड़ी सी ईमानदारी आ जाए तो बात ही कुछ और हो। रिक्शा वाला पूछता है, “बाबूजी! आपने बताया नहीं, हवाई जहाज़ के बाद क्या आएगा?” उत्तरिच्छा यानी जहाँ चाहो अपनी इच्छा से उड़ चलो। वे एक लेखक से मिलते हैं, भूतपूर्व साहित्यकार व अभूतपूर्व मार्क्सवादी से उनके विचार सुनते हैं और वे ग़ैर-मार्क्सवादी उद्भट विद्वान से मिलते हैं। अन्ततः एक खुर्राट उत्तर आधुनिकता विरोधी से मिलन होता है। वे एक ही समय में दक्षिण और वाम दोनों थे। कहानी के प्रारंभ में कहानीकार ने लिखा है, “मेरा लेखकों की बिरादरी में कोई सम्मानजनक स्थान नहीं बन पाया है।” अंत में लिखते हैं—उत्तर आधुनिकता की लड़ाई में मैं कहीं शामिल नहीं था, इससे स्पष्ट था कि मैं घटिया और पिछड़ा लेखक था जिसकी प्रतिष्ठा न होना स्वाभाविक था।  लेखक की व्यंग्यात्मक शैली प्रभावित करती है। 

इस तरह देखा जाए तो इस संग्रह की कहानियाँ कहानीकार के अनुभूत जीवन और वैचारिक चिन्तन से ओतप्रोत हैं। इसमें कथागोई है, संवाद है और संस्मरणात्मक प्रवाह भी है। शैलेन्द्र जी व्यक्ति और समाज को अच्छी तरह समझते हैं, उनके बीच व्याप्त विसंगतियों की पड़ताल करते हैं और सटीक विवेचना करते हैं। उनकी कहानियाँ प्रश्न उठाती हैं और सहज संतुष्ट नहीं होती। उनके व्यंग्य धारदार हैं, ख़ूब आक्रामक और झकझोरने वाले। कहानियों में कहीं-कहीं हास्यपूर्ण स्थितियाँ उभरती हैं और वे स्वयं स्वीकार करते हैं, “मेरा कोई बड़ा दावा नहीं है, वे शायद किसी रुढ़िगत कसौटी, ढर्रे या ढाँचे पर खरी नहीं उतरती हैं।” ऐसी कोई बात नहीं है, उनकी कहानियों का अपना आलोक है, अपनी आभा है और पाठकों को प्रभावित करती दिखती हैं। विरोध, अन्तर्विरोध, भटकाव या वैचारिक मतभेदों का होना आवश्यक है, ऐसी चीज़ें चेतना जगाती हैं और श्रेष्ठ दृश्यों का संकेत देती है। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में