रश्मि अग्रवाल जी का शोधपरक चिंतनः वृद्धावस्था (सामाजिक अध्ययन) 

15-09-2022

रश्मि अग्रवाल जी का शोधपरक चिंतनः वृद्धावस्था (सामाजिक अध्ययन) 

विजय कुमार तिवारी (अंक: 213, सितम्बर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

समीक्षित कृति: वृद्धावस्था (सामाजिक अध्ययन) 
रचनाकार: रश्मि अग्रवाल
प्रकाशक: ओपन डोर, नजीबाबाद, बिजनौर
मूल्य: रु 350/-

वरिष्ठ महिला साहित्यकार रश्मि अग्रवाल साहित्य-संसार में सुपरिचित हस्ताक्षर हैं, उनके लेखन व साहित्यिक-सामाजिक गतिविधियों से लोग उन्हें ख़ूब जानते हैं और उनका सम्मान करते हैं। किसी के कर्म, सद् चिंतन और सद् विचार ही समाज में प्रतिष्ठा दिलवाते हैं। ‘शोधादर्श’ पत्रिका के ‘वृद्धावस्था विशेषांक’ के कारण मेरा परिचय रश्मि अग्रवाल जी से हुआ और मैंने उस विशेषांक पर लम्बी समीक्षात्मक टिप्पणी लिख भेजी थी। आज उनका शोधपरक चिंतन “वृद्धावस्था (सामाजिक अध्ययन)” पुस्तक के रूप में मेरे सामने है। मैं उन्हें, उनके इस महत्त्वपूर्ण शोध के लिए बहुत-बहुत बधाई देता हूँ और नमन करता हूँ। अपनी उम्र के सत्तरवें वर्ष में उन्होंने यह कारनामा किया है और विश्वास के साथ उम्मीद करता हूँ, उनका लेखन सतत चलता रहेगा और बहुत-सा सार्थक सृजन-चिंतन उपलब्ध होता रहेगा। 

‘आत्माभिव्यक्ति’ में उन्होंने कतिपय सार्थक संकेत दिए हैं। वे लिखती हैं, “जीवन अनन्त है, जन्म शरीर का हुआ, मृत्यु भी शरीर की होनी और वृद्धावस्था शरीर के समापन की बेला की सांकेतित मात्र है।” बड़ी अच्छी सलाह देती हैं, वृद्धावस्था तक आते-आते नादानियों से स्वयं को मुक्त करते हुए सात्विक जीवन, उच्च विचार की पद्धति को अपनाएँ। उनका मानना है कि केवल मानव जीवन में ही कर्म और मौन दोनों साथ-साथ सन्निहित हैं। प्रश्न करती हैं, “वृद्धावस्था अभिशाप नहीं, पर बुढ़ापा आज भटक क्यों रहा है?” उनका दिव्य चिंतन है कि भारतीय संस्कृति में बुढ़ापा अंधकारमय नहीं है। हैदराबाद में रह रहे श्री ऋषभ देव शर्मा जी ने इस पुस्तक पर बड़ी सार्थक भूमिका लिखकर हमारा मार्ग-दर्शन किया है। उन्होंने आंकड़ों के माध्यम से वृद्धों की आगामी भयावह स्थितियों-परिस्थितियों का चित्रण किया है और रश्मि अग्रवाल जी के शोधपरक ग्रंथ की सराहना की है। 

रश्मि अग्रवाल जी का इस ग्रंथ-लेखन के क्रम में, स्वयं वरिष्ठ नागरिक होते हुए, अनेक वृद्धजनों से सम्पर्क हुआ, उन्होंने वृद्धाश्रमों की यात्राएँ की, उनके सुख-दुख, रहन-सहन, घर-समाज के लोगों का उनके प्रति व्यवहार, उनकी मानसिक, शारीरिक पीड़ा आदि का विधिवत अध्ययन किया। इतना सहज नहीं था, वृद्धजनों के भीतर से सच उगलवाना, सामाजिक और सरकार के रवैये को यथार्थतः समझ पाना। इसके लिए उन्होंने लम्बी-लम्बी यात्राएँ कीं और बार-बार वृद्धजनों के मनोविज्ञान को समझने का प्रयास किया। उन्होंने संकल्प कर लिया था, हर हालत में वृद्धावस्था से जुड़े मसलों को हर दृष्टिकोण से समझना है और समाधान खोजना है। इस पुस्तक को रश्मि अग्रवाल जी ने अपनी सुविधा के लिए 12 खण्डों में रखा है और परिशिष्ट के रूप में ‘राष्ट्रीय वृद्धजन नीति’ का भी उल्लेख किया है। 

पुस्तक के प्रथम खण्ड में रश्मि अग्रवाल जी मानती हैं, वृद्धावस्था प्राकृतिक बहुआयामी प्रक्रिया है। यह शारीरिक, मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक कारकों की जटिल पारस्परिक क्रिया का परिणाम है। वृद्धावस्था धीरे-धीरे आने वाली अवस्था है। वृद्धावस्था की सीधी-सादी परिभाषा नहीं दी जा सकती क्योंकि इसकी सारी प्रक्रियाएँ अत्यन्त जटिल होती हैं। शरीर और आयु के आधार पर जिसे हम वृद्ध मानते हैं, वह मन से बहुत सक्रिय रहता है और अधिक समय तक कर्मठ जीवन जीता है। बहुत सारे लोग ऐसे भी होते हैं जो शरीर से स्वस्थ दिखते हैं परन्तु वृद्धों से भी बदतर अवस्था में पड़े रहते हैं। नयी और पुरानी पीढ़ी को लेकर अनेक वृद्ध विद्वतजनों के विचार पठनीय है। रश्मि अग्रवाल जी ने अध्ययन किया है, लोगों के अनुभवों का विश्लेषण किया है और सार्थक विवेचना करके वृद्धावस्था को श्रेष्ठ सिद्ध किया है। 

“बुढ़ापा आह! जवानी वाह!” में रश्मि जी लिखती हैं, “वृद्धावस्था में आनंद एवं कुंठाएँ मन में जागृत होने लगती हैं।” नौकरी-चाकरी से मुक्ति, ज़िम्मेदारियाँ पूरी होने से जीवन में तनाव कम होना और भरा-पूरा परिवार, सुख-समृद्धि देख वृद्ध आनंदित होते हैं। जब स्वजन ही उपेक्षा व तिरस्कार करने लगते हैं तो कुंठाएँ घेर लेती हैं। अपने ही लोगों के बीच उपेक्षित, अनादृत होकर घर का पूज्य व्यक्ति मृत्यु की कामना करते हैं। वृद्धाश्रम में भेजने की परम्परा अत्यन्त दुखद है। दुनिया भर में यह चिन्ता का विषय बना हुआ है। रश्मि जी ने उन कारणों की चर्चा की है जिनसे हमारे वृद्धजनों को अक़्सर गुज़रना पड़ता है। घर के मुख्य हिस्से से वंचित होना, आसपास किसी का न रहना, छोटी-छोटी ज़रूरतों के लिए प्रतीक्षा करना और स्वजनों की झिड़कियाँ व विरोध झेलना पड़ता है। सामान्यतः उनकी ज़रूरतें अत्यन्त कम होती हैं, उतना भी स्वजन देना नहीं चाहते। वृद्धजनों के साथ दुर्व्यवहार करना महापाप है। रश्मि जी के बाल्यकाल की बूढ़ी अम्मा जी की स्मृति द्रवित करती है। ऐसे हज़ारों उदाहरण हैं हमारे समाज में। पढ़े-लिखे, बड़े पदों वाले शहरी लोगों में ऐसी कृतघ्नता अधिक है। गाँव की संस्कृति आज भी बची हुई है। पढ़-लिखकर विदेश चले गये अधिकांश लोग अपने माता-पिता को असहाय छोड़ देते हैं। उनका अकेलापन जीते-जी मार देता है। रश्मि जी कुछ उपाय बताती हैं और लोगों से संवाद करती है। 

’जीवन संध्या और समृद्धि’ खण्ड में रश्मि जी ने बहुत महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर चिंतन किया है। हर किसी को युवा काल से ही वृद्धावस्था की तैयारी करनी चाहिए और अपनी आर्थिक नीतियाँ तय करनी चाहिए। छोटी-छोटी बचत उम्र ढलने पर बड़ा सहारा होती है। यह सुझाव अच्छा है, अपने जीते जी अपनी सम्पत्ति का बँटवारा मत कीजिए। वसीयत और नामिनी जैसे विकल्पों का रास्ता चुनना चाहिए। बच्चों की मोह माया उतनी ही हो जितना कर्तव्य सें बँधा हो। गुणवत्तापूर्ण जीवन शुरू से जीना चाहिए और परिजनों को शामिल करना चाहिए। विदेशों में सरकारें वृद्धावस्था के लिए नीतियाँ बनाकर सहयोग करती हैं, हमारे यहाँ इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना बाक़ी है। बिखरा परिवार और भटकता बुढ़ापा दुखदायी ही है। इससे बचने की कोशिश शुरू से करनी चाहिए। हमें अपने वृद्धों के प्रति आदर, सम्मान का भाव रखना चाहिए। सुखद है, पूरी दुनिया में यह चिंतन का विषय बना हुआ है, लेखक, साहित्यकार लगातार लेखन कर रहे हैं और नित्य नये-नये सुझाव सामने आ रहे हैं। 

‘वृद्धावस्था में दरकते रिश्ते’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मसला है। वृद्धों की अत्यन्त कम आवश्यकताएँ हैं। उन्हें अपनो का साथ, थोड़ा समय, थोड़ी सेवा-सुश्रुषा और थोड़ा आदर-सम्मान चाहिए। यह उनका हक़ और परिजनों का कर्तव्य है। अक़्सर सुनने में आता है, माता-पिता अपने चार बच्चों का पालन करते हैं, पढ़ा-लिखा कर योग्य बना देते हैं परन्तु वे चार मिलकर अपने बुज़ुर्गों का पालन-पोषण नहीं करना चाहते। रश्मि जी ने अपनी पुस्तक में ऐसे अनेक आँकड़े एकत्र किए हैं और उनका निष्कर्ष निकाला है। आपके बचपन को उन्होंने सँवारा है, सहारा दिया है, अब आपका कर्तव्य है उनके बुढ़ापे को गरिमा के साथ सहारा देना, सँवारना। समाज के विभिन्न लोगों के विचारों, अनुभवों और सुझावों को रश्मि जी ने एकत्र किया और उनका चिंतन हमारे सामने है। वृद्ध पुरुष और वृद्ध महिला में अंतर होता है, वैसे ही भारतीय और विदेशी वृद्धों में भी अंतर है। दुखद है, आज बुढ़ापा वृद्धाश्रमों की ओर ढकेला जा रहा है। यह हमारे ऊपर कलंक की तरह समझा जाना चाहिए। यह सब कुल मिलाकर जटिल समस्या की तरह है और सबको मिलकर समाधान खोजना चाहिए। 

रश्मि अग्रवाल जी लिखती हैं, ‘कमज़ोर नहीं, मजबूर है बुढ़ापा’ और प्रश्न करती हैं-बूढ़े कब बोझ थे? सच देखा जाये तो आज भी नहीं है। उन्होंने बहुत काम किया है, बस अब आराम के दिन हैं। देखा जाये तो बुढ़ापा एक अद्भुत लीला है, परम स्वाभाविक, परम प्राकृतिक। वृद्धावस्था को सँवारने हेतु स्वयं निर्मित भाव व उपायों में किसी से अपेक्षाएँ, नकारात्मक भाव, अपशब्दों का प्रयोग, अहंकार का भाव एवं स्वयं को स्वयं में बोझ समझकर जीवन पूरा न करें, बल्कि कुछ कार्य ईश्वर पर छोड़कर, स्वयं की चेतना जागृत रखें ताकि मन बुढ़ापे को महसूस न करे। आज वृद्धावस्था के प्रति दृष्टिकोण बदल गया है। वृद्धों की सहायता के नाम पर भारत सहित दुनिया भर में सरकार, संगठनों और धनाढ्य लोगों से राशि पाने का हथकंडा अपनाया जाता है। बूढ़ों को परिजन अपने साथ रखें, सेवा करें और उनके जीवन को सुखमय बनाएँ। अत्यन्त दुखद है, आज का वृद्ध अपनी संतानों के प्रति आश्वस्त नहीं है कि वे उनकी देखभाल करेंगे, उन्हें भोजन, वस्त्र और चिकित्सकीय सुविधाएँ मिल पायेंगी। उनके नाम धन-सम्पत्ति हो तो भी देखभाल के लिए व्यक्ति चाहिए। इन्हीं हालातों में वृद्ध कुंठित होने लगते हैं। रश्मि अग्रवाल जी ने इस खण्ड में विस्तार से अनेक मुद्दों पर ध्यान आकृष्ट किया है जिन्हें वृद्धों के प्रति लागू किया जाना चाहिए। 

सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष है, हर किसी को जीवन जीने की कला सीखनी चाहिए। हमारा जीवन संतुलित और अनुशासित होना चाहिए। हर अवस्था को सहज रूप से स्वीकार करना चाहिए। छोटी-छोटी चीज़ों के लिए उत्तेजित न होकर, दृढ़ संकल्प व विश्वास के साथ सन्तुलन व धैर्य बनाकर चलना चाहिए। हर व्यक्ति को अपनी सीमा का ज्ञान होना चाहिए, वृद्धजनों को कुछ अधिक ही सचेत रहना चाहिए। किसी भी तरह की तुलना से बचें। अर्थशास्त्र में उपयोगिता के सिद्धान्त की चर्चा होती है। जो उपयोगी है, उसी की ज़रूरत है। वृद्धजन यथा अपनी उपयोगिता बनाए रखें। भावुकता, संवेदनशीलता या अधिकार केवल आपका ही नहीं है, सबका है। अतः स्वार्थ की बातें न करें। 

रश्मि जी लिखती हैं, “बदलते परिवेश में भी मनाएँ ज़िन्दगी का जश्न।” उदास रहने या रोने वालों के साथ दुनिया खड़ी नहीं होती। आप ख़ुश रहेंगे, हँसेंगे, बोलेंगे और पहल करेंगे तो स्वयं भी आनंदित होंगे और लोगों को भी आनंद देंगे। वृद्धावस्था को उत्साह और आनंद से जीना है। पुरानी और नयी पीढ़ी में टकराव को अपनी ओर से शुरू मत कीजिए बल्कि नयी पीढ़ी की बातों को ख़ूब ध्यान से सुनिए, यथा स्वयं को बदलिए। जहाँ भी दो पक्ष होते हैं, दोनों के विचारों, तर्कों को समझना होगा। जहाँ तक हो सके, नकारात्मक विचार मत रखिए। आपकी सकारात्मक सोच ही मार्ग प्रशस्त करेगी, आदर दिलवायेगी और आप का सम्मान बना रहेगा। 

पूर्वाग्रह के साथ जीना मनुष्य की सबसे बड़ी विडम्बना है, वृद्धजनों को इससे बचना चाहिए। हर स्थिति में युवाओं पर दोषारोपण और उनके हर कार्य में वृद्धों का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। क्रियाशील एवं विचारों से समृद्ध लोग सामाजिक सेवाओं में व्यस्त रहक़र समादृत जीवन जी सकते हैं। इसलिए वृद्धों को चिन्तनशील रहते हुए अपनी दशा-दिशा स्वयं सँवारनी चाहिए। रश्मि अग्रवाल जी सनातन धर्म में प्रतिपादित ‘श्राद्ध’ को पूर्वजों के प्रति संचित श्रद्धा का पर्व मानती हैं। उनका विचार यह भी है कि अनाथालयों और वृद्धाश्रमों को एक साथ कर देना चाहिए। बच्चों एवं वृद्धों का सुखद संयोग अत्यन्त फलदायी हो सकता है। भारतीय संस्कृति में वानप्रस्थ आश्रम की संकल्पना की गयी है। यह चौथा चरण है जिसमें घर का मुखिया अपना सारा अधिकार पुत्रों को सौंप देता है और जंगल की राह पकड़ता है। वर्तमान समय में जंगल जाना सम्भव नहीं लगता, फिर भी अधिकार सौंप देना कठिन नहीं है। बहुत सारी समस्याएँ स्वतः कम हो जायेंगी। वानप्रस्थ आश्रम बनाये जा रहे हैं और स्वेच्छा से लोग रह रहे हैं। वैदिक व सनातन मान्यताओं के अनुसार ये आश्रम कार्य कर रहे हैं। 

वृद्धावस्था को सरल बनाने के लिए रश्मि अग्रवाल जी ने बहुत से सुझाव दिए हैं, इन्हें ध्यान से पढ़ा और समझा जाना चाहिए। रश्मि जी ने अविवाहित युवा पीढ़ी के विचारों को सुनने, समझने पर ज़ोर दिया है। भविष्य युवाओं का ही है, सब कुछ उन्हीं के हाथों में जाने वाला है, ऐसे में उन्हें सहजता से स्वीकारना चाहिए। रश्मि जी ने उदाहरणों से स्थिति को समझाने का प्रयास किया है। पुस्तक के अंत में ‘उपसंहार’ के माध्यम से अनेक सारगर्भित विचारों का उल्लेख करके रश्मि अग्रवाल जी ने वृद्धावस्था पर विशद ग्रंथ लिख दिया है। पुस्तक के परिशिष्ट के रूप में ‘राष्ट्रीय वृद्धजन नीति’ को जोड़कर उन्होंने सरकारी चिंतन की जानकारी दी है। यह पुस्तक वृद्धजनों, वृद्धावस्था पर महत्त्वपूर्ण चिंतन करते हुए मार्ग-दर्शन करने वाली है। रश्मि अग्रवाल जी का प्रयास स्तुत्य है और मैं उन्हें हृदय से बधाई देता हूँ। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में