इश्क़ में नदीः जीवन के विविध आयाम दिखाती कविताएँ
विजय कुमार तिवारीसमीक्षित कृति: इश्क़ में नदी (कविता संग्रह)
कवि: अमित कुमार मल्ल
प्रकाशक: अंश प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य: ₹225/-
जीवन में राग है, स्नेह-प्रेम और संवेदनाएँ हैं, तो अवश्य ही वहाँ काव्य है, कविता है। कवि का मन आह्लादित, आंदोलित होता है, भीतर संवेदनाओं का ज्वार उमड़ता है, तो काव्य का प्रवाहित होना स्वाभाविक है। मात्र इतना ही नहीं, अनेक-अनेक आधार होते हैं काव्य-प्रस्फुटन के। दुनिया की ख़ूबसूरती, प्रकृति की कमनीयता, भाषा का सौन्दर्य, वाणी की मधुरता इन सबकी अनुभूति एक साथ यदि कहीं हो सकती है तो वह धरातल कविता के अलावा दूसरा कोई नहीं है। कवि हो या चित्रकार उसके देखने की दृष्टि भिन्न होती है। वह भी हमारे-आपके तरह ही दुनिया के साथ रहता है, व्यवहार करता है परन्तु उसकी रसानुभूति अलग तरह की होती है और जीवन्तता, मधुरता अपनी कविता के माध्यम से चतुर्दिक बिखेर देता है। आदिकाल से और दुनिया भर में रचा गया विपुल साहित्य इसका प्रमाण है।
ऐसा ही एक काव्य-संग्रह ‘इश्क़ में नदी’ मेरे सामने है। कवि अमित कुमार मल्ल जी का यह संग्रह 2021 में छपा है और ख़ूब चर्चा में है। प्रयागराज में रहनेवाले मल्ल जी साहित्यिकों के बीच सुपरिचित नाम हैं और उनकी सक्रियता का प्रमाण लगातार छप रही उनकी पुस्तकें हैं। उन्हें साहित्य के अनेक पुरस्कार मिले हैं और उनकी रचनाएँ साहित्य को समृद्ध कर रही हैं। ‘इश्क़ में नदी’ संग्रह का शीर्षक संकेत कर रहा है कि कवि प्रेम से भरा हुआ है, प्रेम का मारा हुआ है या प्रेम में ही उसका बहुत कुछ है। इस संग्रह की श्रेष्ठता का एक आकर्षण यह भी है कि इसकी भूमिका हंसराज कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय की प्राचार्या डॉ. रमा जी ने लिखी है। उन्होंने जिस तरह इन कविताओं को लेकर विवेचना की है, मेरे लिए समीक्षात्मक चिन्तन करना सुगम हो गया है। कवि अमित कुमार मल्ल जी ने ‘मेरी बात’ में लिखा है, “ये कविताएँ छोटी हैं, लेकिन इनमें से अधिकतर बहुत प्रभावी हैं, जो जीवन को देखने का एक अलग नज़रिया देती हैं, जीवन के कई आयाम दिखाती हैं।”
कवि ने हर एक वस्तु को सँजोकर रखा है, वह सब उनके प्रेम की धरोहर है और उनका जीवन है। ‘तुम्हारे पत्र’ कविता में, पत्र पढ़ते ही—तेरी ख़ुशबू/आँखों में भर गयी/तेरी आहट/ दिल सुनने लगा/शब्दों में/तुम्हारा चेहरा दिखने लगा। मल्ल जी आगे लिखते हैं—तुझे/एक लम्बी साँसों में भरते हुए/मैं/फिर जी उठा। प्रेम में कवि की स्थिति देखिए—ख़ुशबू आँखों में, आहट दिल को, शब्दों में चेहरा। ‘आजकल’ कविता में सारे बिम्ब सहज और अनुकूल हो गये हैं, निश्चित ही प्रेम के कारण ऐसा हो रहा है। ‘नहीं बता सकता’ में कवि इतना ही बता सकता है—जंग जारी है/समय से/समाज से/हालात से। ‘धीरे-धीरे’ कविता मनुष्य के जीवन के मनोविज्ञान को बताती है। जीवन में उत्थान या पतन, सृजन या विध्वंस, निर्माण या विनाश सबकी अपनी प्रक्रिया है, सब धीरे-धीरे होता है—धीरे-धीरे/आँख की गरमी मरती है/विचारों की बेचैनी मरती है/बाजुओं की ऐंठन मरती है/हौसला मरता है/जुझारूपन मरता है/लड़ने की ताक़त मरती है/ज़मीर मरता है/धीरे-धीरे/आती है/शांति/सामंजस्य/समन्वय। अंत में कवि का निष्कर्ष देखिए—धीरे-धीरे/बनता है/एक अच्छा आदमी। ‘फूल न झरे’ कविता में प्रेम का विलक्षण सम्बन्ध कविता और जीवन से है। ऐसी ही सोच जीवन का संकेत देती है।
‘हर बार’ कविता में जीवन के अनुभव उभरते हैं और संदेश भी कि हर बार बुरा ही नहीं होता, चाहे जो हो रहा हो। ‘शरीर’ कविता जीवन की सच्चाई बयान करती है। संवेदना, दया, करुणा, प्रेम, ज़मीर आदि न हो तो यह मात्र चलता-फिरता शरीर है। हम सहमत हों या नहीं, कवि का संकेत व्यवस्था, उसके नियमों और प्रक्रियाओं की तरफ़ है जिसमें पक कर आदमी अपने भीतर की संवेदनाएँ खो देता है। ‘शब्दों की शकल’ अद्भुत रचना है और भिन्न-भिन्न तरह से तुलना कवि के विशद ज्ञान-समझ की सामर्थ्य है। ये सारे बिम्ब सटीक स्थितियों का संकेत दे रहे हैं। ‘डर’ कविता की परिकल्पना कवि के संवेदनशील मन की उपज है। नदी जीवन की परिचायक है। उसका रेत में विलीन होना भयावह और हृदय विदारक है क्योंकि उसके साथ भीतर पल रहा सम्पूर्ण जीवन समाप्त हो जाता है। ‘हम’ कविता कवि के संघर्षपूर्ण यथार्थ का वर्णन करती है और भीतर की पीड़ा का भी।
'प्रेम’ कविता में मल्ल जी ने बड़ी सादगी से लिखा है, घर-परिवार के बीच रहते हुए, सबको साथ लेकर चलते हुए कभी-कभी प्रेम पीछे छूट जाता है परन्तु वह कभी भी जूठा या मैला नहीं होता। वैसे ही हमारे रिश्ते कभी झूठे और मैले नहीं होते। शर्त एक ही है, मन मैला ना हो तो रिश्ते जुड़ते हैं और प्रेम भी मिलता है। आदमी चेहरा, विचार, जज़्बात और लिबास पहचानता है, मछलियाँ नहीं पहचानतीं, इसलिए पकड़ ली जाती हैं। कभी पाल ली जाती हैं और कभी मार दी जाती हैं। ‘गिद्ध’ कविता के माध्यम से कवि का व्यंग्यात्मक, मार्मिक चित्रण इतिहासकारों को गिद्ध की संज्ञा से विभूषित करता है। ‘कष्ट’ कविता में सहजता से कवि ने बता दिया है कि कष्ट के साथ लालसा, मोह, द्वेष, राग आदि के चलते मनुष्य दुख भोगता रहता है। ‘उसने’ कविता के भाव निराले हैं। भीतर प्रेम हो, संतोष हो तो ऐसा ही होता है—उसने/मुट्ठी भर/ख़ुशियों को/छींट दिया/बटोरते/बटोरते ज़िन्दगी/जी ली मैंने। वैसी ही अद्भुत है कविता ‘तेरी आँखें’—मेरे/खुरदरे चेहरे को/सहलाती है/तेरी आँखें/पत्थर हो चुकी/ज़िन्दगी को/जिन्दा/कर गई। ‘ज़िन्दगी’ कविता में कवि पूछता है, जीवन में सब कुछ है, ज़िन्दगी! तुम कहाँ हो? ‘आदमी’ कविता के पीछे गहरे संकेत हैं—वह आदमी है/खा रहा है/गोश्त। ‘प्यार’ भावना की सहज उपलब्धि की बेहतरीन कविता है। मन हो, पसंद हो, लगाव हो तो प्यार दिख ही जाता है। यह प्यार ही है/मन उड़ता है/जमीन पर/मन ठंडा महसूस करता है/तपती दोपहरी में।
मल्ल जी में साहित्य की गहरी समझ है और शब्दों से खेलने का उनका हुनर ध्यान खींचता है। उनकी कविताएँ भले ही छोटी हैं परन्तु भाव-सम्प्रेषण की उनमें अद्भुत क्षमता है। कोई सुलझा हुआ प्रेमी मन ही ऐसा सृजन कर सकता है। ‘जीने का दिल करता है’ कविता की मासूमियत और सच्चाई से भला किसे इनकार होगा? कवि सहजता से अपनी बातें कहता है और ये बातें हम सबकी हैं। कमरे की बंदिशों से निकलकर खुली हवाओं को छूने का, तहज़ीब की खोल से निकलकर यूँ ही मुस्कराने का, बच्चे की तरह मनमानी करने का और समाज द्वारा पैदा की हुई दूरी को मिटाकर तुम्हारे साथ हँसने-खिलखिलाने का कवि को मन करता है। ‘इश्क़’ कविता में प्रेम देखिए—इश्क़ खो गया/सुर खो गया/रंग खो गया/सिलवटें पड़ी हैं/तेरी यादों के चादर पे/राग खो गया/जिंदा हूँ फिर भी/तेरे सहारे। ‘फिर’ कविता में विरह के बावजूद कवि का हौसला समझिए—कवि अपनी प्रिया की बंदगी करना, मुस्कराहट में जीना और तनहाइयों के शोर के रुकने पर उसकी यादों में गुनगुनाना चाहता है।
जीवन के कटु अनुभवों की कविता ‘सूखी संवेदनाएँ’ कवि की बदलती मनःस्थितियों को उजागर करती है—टूट गये हैं रिश्ते, जज़्बात, हँसी, ख़ुशी, उत्साह, ललक आदि। मल्ल जी लिखते हैं—अब मैं हूँ/सूखी संवेदनाएँ हैं/तटस्थ जीवन है/यथास्थिति की आड़ में/छिपा मन है/कुछ आकांक्षाएँ हैं। ऐसे ही ज़िन्दगी कट रही है। ‘कभी बेवजह भी’ किसी मिलते-जुलते फ़िल्मी गीत की याद दिला देता है। कवि के भाव अच्छे हैं। मल्ल जी को जीवन से बहुत शिकायतें हैं, कहीं न कहीं असंतोष है। उनकी पीड़ा उभर आती है जब वे लिखते हैं—ज़िन्दगी कट ही रही है। यह उनके मन का कोई स्थायी भाव है जिससे उनकी कविताएँ संघर्ष करती दिखती हैं। यह एक पक्ष है, दूसरा पक्ष है, जब प्रेम की कोई टीस उभरती है। इस भाव की भी कविताएँ कम नहीं है।
'बंजारा’ कविता में कवि मानो निराश हो चला है, कहता है—ज़िन्दगी तेरे खेल में/हारा मैं हारा। –न मैं लहरों संग बहा/न मैं लगा किनारा/मौजों से लड़ते-लड़ते/रह गया थका हारा। अगली कविता ‘सुर’ में ज़िन्दगी की परिभाषा बताते हुए मल्ल जी ने लिखा है—शब्द हो/सुर हो/राग हो/उल्लास हो/इश्क़ हो/खुमारी हो/तो ज़िन्दगी है। ‘कागज पर उतारने के लिए’ कविता की पंक्तियाँ चोट की गहरी अनुभूतियाँ दर्शाती हैं। कवि अपने प्रेम को अमर करने के लिए साहित्य में दर्ज करना चाहता है। सहज और सरल तो नहीं है। इसके लिए ख़्वाब नोचता है, यादें सहेजता है, जज़्बात माँजता है, घाव हरा करता है और दर्दीली ज़िन्दगी के हर लम्हे से गुज़रता है। इतनी तपस्या के बाद उसके सामने उसका प्रेम दिखाई देता है।
'लड़ता रहा’ कविता में कवि की पीड़ा और संघर्ष है। उनका दर्द आँखों से बहता है, यादें ज़ख़्म की तरह हैं, मुस्कराहट बन बिखरना है, रात में नींद नहीं आती, जागकर सन्नाटों से लड़ना है। ‘रात गुलाबी’ कविता में कवि का अपना चिन्तन है। ‘मेरी कविताएँ’ कविता में कवि की रचना-प्रक्रिया देखी जा सकती है। ‘मिटाना’ कविता में अन्तर्विरोध है। कवि विसंगतियों के वर्तमान को मिटाना चाहता है, एक नयी दुनिया बनाने के लिए। ‘सन्नाटा’ कविता के सारे प्रश्न कवि के ज़ेहन में हैं परन्तु वह मानता है—हर हाल में/सन्नाटा/डराता है/सहमाता है। ‘शुक्र है’ कविता में कवि की आशावादी भावनायें उभरती हैं कि रोटी जैसी भी हो भूख मिटा देती है, पानी प्यास बुझा देता है, नींद आ ही जाती है, ज़िन्दगी आगे बढ़ती रहती है, समय व उम्र के साथ-साथ साँसेंं और ज़िन्दगी दोनों चल ही जाती हैं। ‘प्यार’ को सभी दबाना, मारना, कुचलना चाहते हैं चाहे कोई भी हो। कुंठा, बेरोज़गारी, हताशा, निराशा, ग़ुस्सा, आक्रोश, टूटते रिश्ते या जड़ होती संवेदनाएँ सभी धीरे-धीरे प्यार को ख़त्म करते हैं। कवि का निष्कर्ष है, कदाचित इसीलिए प्यार समाज से, परिवार से या स्वयं से लुकता-छिपता रहता है। ‘बस’ कविता की ऊँचाई देखिए—बस! /साँस भर/हवाएँ मुझे चाहिए/पूरी दुनिया! तुम्हारी है।
'कहने को तो’ कविता में सघन आबादी के बीच मनुष्य के जीवन का सजीव चित्रण है, जहाँ हवा, पानी, आसमान, धूप का मिलना मुश्किल हो गया है—मेरे लिए/मुट्ठी भर आसमान है/जीने भर हवाएँ/कदम भर धूप/क्षण भर भी साँस। आज की त्रासदी का भावपूर्ण वर्णन कवि की लेखनी से हुआ है। ‘रुकना’ कविता में कवि मनोवैज्ञानिक शिक्षा देता है, रुकना, पीछे देखना, बीता समय याद करना। सुस्ताना, साँस लेना, सँभलना, सीखना और साहस बटोरना होता है। यह हारना नहीं, हताश होना भी नहीं और पाप भी नहीं है। ‘चाहत’ कविता में देह, मन और आदमी की भिन्न-भिन्न चाहतों का कवि की समझ और अनुभूतियों का प्रमाण है। ‘मिट्टी’ कविता के भाव और अन्तर्विरोधों को कवि सहजता से समझा देता है—भूख को पकाता हूँ, अंत में जीवन को खाता हूँ। ‘दर्द नहीं होता’ में पहाड़, नदी और पिता के रोने की परिस्थितियों का मार्मिक उल्लेख है। इसका व्यंग्यात्मक मानवीय पक्ष है कि इनके रोने पर कोई नहीं रोता। दुनिया ने मान लिया है कि पिता, पहाड़ या नदी को दर्द नहीं होता। ‘यदि होता’ कविता की कल्पना अद्भुत है, ज़िन्दगी सहज होती यदि परस्पर विरोधी चीज़ें, भावनाएँ नहीं होतीं। कवि प्रश्न करता है—तब/इंसान/कहाँ होते? यह विचार करने योग्य है, ऐसी कविताएँ भीतरी तड़प या बेचैनी के बाद ही लिखी जा सकती हैं। कवि का भीतरी मन और बाहरी विम्बों के साथ उसका तालमेल ऐसे चिन्तन और सृजन का आधार हो सकता है हिन्दी, अँग्रेज़ी, भोजपुरी के शब्दों का चयन कवि के सामर्थ्य को दिखाता है और कम शब्दों में वाक्य बनाने वाली शैली अद्भुत ढंग से प्रभावित करती है।
मल्ल जी की कविताएँ सहज सीधे शब्दों के साथ संयोजित होती हैं, परन्तु उनका आभा-मण्डल व्यापक होता है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो उनकी अधिकांश कविताएँ चमत्कृत करती हैं। भले ही मंचों पर वाह-वाही न मिले, पाठकों को ख़ूब प्रभावित करती हैं। ‘न्याय’ कविता में घटना इतनी ही है कि बादलों ने बरसकर अपना वादा निभा दिया, परन्तु प्रकृति का न्याय, कवि की व्यापक दृष्टि से प्रभावकारी दिखाई दे रहा है। ‘बेदखल’ कविता में कवि के मन की पीड़ा की यथार्थ अभिव्यक्ति हुई है। जीवन की मार्मिकता और जटिलताएँ बेहतर तरीक़े से उभरी हैं। ‘अच्छा आदमी’ कविता में व्यंग्य है। ‘लड़कियाँ’ नारी जाति के साहस, पौरुष और संघर्ष में विजेता भाव की कविता है। ‘जान’ कविता बहाव के साथ जीवन की उपस्थिति का अनुभव करवाती है। बहाव हो, गतिशीलता हो, संघर्ष हो तो निर्जीव भी सजीव हो उठता है। ‘प्रेम करती लड़की’ में लड़की और लड़के के प्रेम में होने पर भी सरोकार किंचित अलग-अलग होते हैं। सुन्दर और सत्य अभिव्यक्ति की कविता है।
'तृप्त’ कविता तृप्ति का रहस्य समझा रही है, जब भूख से अंतड़ियाँ कुलबुला रही होती हैं तब अधजली, टेढ़ी-मेढ़ी रोटी भी मिर्च की चटनी के साथ तृप्ति देती है। ‘तराशना’ किंचित दार्शनिकता लिए हुए है। दुनिया, समाज, व्यवस्था, परिवार, जीवन और बौद्धिक लोग, सब अपनी सोच के अनुसार व्यक्ति को तराशना चाहते हैं। कवि कहता है, भाग्य के हाथ का खिलौना मैं आम ज़िन्दगी जीता रहा। ‘सकून’ कविता का भाव यही है, कोई अपना जलजला जलाए रखे, मेरा ज़मीर सोया रहे, उस जलजले से विचलित न हो। कवि कहता है, तुम भी ख़ुश और मैं भी सुकून में। कवि का अनुभव देखिए, उसके हँसते ही, भेड़िया ज़माना, ज़हरीली निगाहें, तेज़ाबी हवाएँ और दरकती आस्थाएँ सब की सब थम गयी अन्ततः। ‘लम्हों की सीढ़ियाँ’ कबीर के निर्गुण भाव की अभिव्यक्ति दे रही है। जीवन तभी तक है जब तक साँसें चल रही हैं—अब/जितनी साँसेंं हैं/उतनी ज़िन्दगी है/उतनी संवेदना है/उतनी ही/सीढ़ियाँ हैं लम्हों की। ‘वह’ गाँव के आम किसान के संघर्ष की कविता है। वह न तो पागल है, ना कोई दीवाना जो दिन-रात मेहनत करके गेहूँ बोता है ताकि गेहूँ की बालियाँ उपजा सके। ‘परमात्मा की आवाज़’ कविता में मार्मिक चित्रण हुआ है। आये दिन लोग चौक-चौराहों पर मूर्तियाँ लगा देते हैं। परमात्मा आवाज़ देता है, मुझे आँसू पोंछना है, किसी का दुख कम करना है, रास्ता देना और मदद करना है। मुझे बख़्श दो, जाने दो। तुम्हें जो करना है करो, मुझे मेरा काम करने दो। ‘मेरा देश’ व्यंग्य और यथार्थ की कविता है। घर के वृद्ध की तरह हो गया है मेरा देश जिसकी कोई नहीं सुनता। ‘ज़िन्दगी’ बच्चा बनकर जीना चाहती है और उम्र, समाज, अनुभव, परिस्थितियाँ बूढ़ा करने पर तुले हैं। कवि का प्रेम और रस्म निभाना देखिए-तुम्हें याद करता हूँ और ख़ुद को भूल जाता हूँ।
मल्ल जी प्रकृति के भीतर से कविता निकाल लाते हैं और प्रश्न करते हैं। ‘पहले कौन’ को देखिए। ‘कोंपल’ में कवि का सृजन देखिए—ख़्वाबों को/नदी में विसर्जित कर/पसीने से/जमीन को खोदकर/साँसों को गाड़ता हूँ। कवि की भावना है कि वक़्त का मौसम आने पर ज़िन्दगी कोंपल बनकर उग आये। ‘वक़्त’ के थपेड़ों से और ज़माने से लड़ते-लड़ते व्यक्ति अनेक टुकड़ों में बिखर जाता है। यह बिखराव थोड़ा दूसरे तरह का है—कहीं जान है/कहीं ईमान है/कहीं ख़्वाब है/कहीं ज़िन्दगी है। ‘गूँगा’ कविता में शब्दों की रोटी खाने की अनुभूति कवि को गूँगा बना देती है। ‘प्रेम’ भूख बनकर शरीर में रहता है, तो ज़िन्दगी का प्रेयसी बनकर खेलने की अनुभूति कवि का गहरा प्रेम-चिन्तन है। कवि ‘मोहब्बत’ से आग्रह करता है कि धूप, हवा, सुबह की तरह रहो। मल्ल जी की कविताओं में एक अद्भुत प्रयोग देखने को मिलता है। वे आँखों से सुनने का और दिल से देखने का काम लेना चाहते हैं। यह प्रेम की तीव्रतर भावना है, साथ चलो, साँसों में रहो और मुझ में जिया करो। ‘इश्क़’ की फ़सल उगाने के लिए कवि खेतों, पहाड़ों, नदियों और मौसम में घुला-मिला देता है। फ़सल तैयार हुई—गुम हो गया तेरी आँखों में/खिल गया तेरे होंठों पर/बस गया तेरे दिल में। यह कवि के प्रेम की ऊँचाई है और रूमानियत भी। कवि का उपदेश बहुत सही है और विश्वास भी-ख़ुशियाँ बाँटते रहिए, मिट्टी में, मानस में, माहौल में। कवि का विश्वास देखिए—हर बार बीज मरा नहीं करते। ‘दूरी’ कविता में अनुभव है, मनोविज्ञान है और सच्चाई है—ज़िन्दगी हो या पुस्तक या कवि की प्रियतमा, सबको जानने, पहचानने के लिए पास जाना और पढ़ना पड़ता है। यह दूरी है-सोच की, प्रयास की और भाग्य की। चंद शब्दों की कविता गूढ़ भाव समेटे हुए है। मनुष्य और प्रकृति के बीच की स्थिति की व्याख्या ‘नदियाँ’ कविता में हुई है। एक तरफ़ आबादी बढ़ रही और दूसरी तरफ़ इस बोझ से नदियाँ डरने, दुबकने, सड़ने और मरने लगी हैं। ऐसी स्थिति केवल नदी के साथ नहीं, प्रकृति का संतुलन हर क्षेत्र में प्रभावित हुआ है।
'पिता’ कविता में मल्ल जी की संवेदना और भाव देखिए—उसके/हथेलियों में/उसके/बच्चों की/इच्छाओं का सूरज/जल रहा था। जो दुख और दुश्वारियों से जूझकर मुस्कुराते हुए चल रहा था, वह पिता था। ‘इश्क़ में नदी’ कविता में इश्क़ का प्रभाव दोनों प्रेमियों पर पड़ा है, आप भी देखिये—वह/मेरे इश्क़ में/नदी बन के/मचलती रही/खिलती रही/लिपटती रही/बहती रही। मैं/उसके इश्क़ में/जरूरतों और ज़िम्मेदारियों के/जंगल में/पहाड़ होकर/खड़ा रहा/घिसता रहा/मिटता रहा। यह प्रेम की पराकाष्ठा है। ‘मौन’ की भी एक भाषा है जो समय को, प्रकृति को और भावनाओं को वाणी देता है। सहज, शान्त होकर चिन्तन करने वाला कवि ही ऐसी बात कह सकता है। ‘घाव’ कविता की अभिव्यक्ति से कौन इनकार कर सकता है। ऐसा ही तो होता है। ‘समय’ कविता में जीवन की बुनावट अद्भुत है। ‘अनुभव’ कविता जीवन का यथार्थ दिखलाती है। कवि की वाणी में सुनिए—इस/रंग भरी ज़िन्दगी में/जीते-जीते–मैं/ बेरंग हो गया। यहाँ पीड़ा है और ख़ुशी भी। ‘प्रश्न’ कविता हृदय की गहराई तक उतरती है, यहाँ संवेदना है और सच्चाई भी-टकटकी/लगाकर/देखती/ मायूस आँखों में/धुली/प्रश्नों की/बेबसी/वक़्त आने पर/पिघला देती है/लोहे की दीवारों को। ‘कोरोना में लाक आउट’ की पीड़ा पूरी दुनिया झेल रही है। कवि किसे दोष दे? कमी तो यही है, बस मुलाक़ात नहीं हो पाती। चतुर्दिक सन्नाटा पसर गया है। जंगल के जानवरों को लगता है कि अब चारों ओर जंगल सी शान्ति है। ‘घर’ इस संग्रह की सबसे लम्बी कविता है। घर मनुष्य का पता-ठिकाना तो होता ही है, पहचान भी होता है। आवंटित आवास में जुड़ाव नहीं महसूस होता। घर तब होता है जब पूरा परिवार साथ रहता है। रिश्ते-नाते के लोगों का मिलना-जुलना होता है। कवि का भाव देखिए—बढ़ती/पूरी उम्र में/पहचान खो गया/रिश्ते खो गये/घर खो गया। घर का दर्द वह पौधा जानता है जो हर साल एक गमले से उखड़ कर दूसरे गमले में रोपा जाता है। इसमें जड़ें टूटती हैं/जमीन छूटती है/माहौल छूटता है/संवेदनाएँ दरकती हैं/लगाव छूटता है/रिश्ते मरते हैं/वह/बेदखल हो जाता है। कवि की पीड़ा घनीभूत हुई है—न तो पौधे को घर मिला, न मुझे।
मल्ल जी की कविताएँ अलग तरह के धरातल पर आमंत्रित करती हैं और बाध्य करती हैं उनके साथ डूबने-उतराने के लिए। छोटे-छोटे सुपरिचित से सामान्य शब्द उनकी भाव संवेदना से जुड़कर चमत्कृत करते हैं। यहाँ प्रेम अनेक रूपों में पुष्पित-पल्लवित हुआ है, साथ ही जीवन के सत्य कवि को ही नहीं, पाठकों को भी बेचैन करते हैं। कहीं-कहीं भाषा-प्रवाह टूटता सा है या उनकी शैली का कोई प्रभाव हो।
विजय कुमार तिवारी
(कवि, लेखक, कहानीकार, उपन्यासकार, समीक्षक)
टाटा अरियाना हाऊसिंग,टावर-4 फ्लैट-1002
पोस्ट-महालक्ष्मी विहार-751029
भुवनेश्वर,उडीसा,भारत
मो.-9102939190
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