हरिशंकर शर्मा का लेखन: समय की शिला पर

01-04-2023

हरिशंकर शर्मा का लेखन: समय की शिला पर

विजय कुमार तिवारी (अंक: 226, अप्रैल प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

समीक्षित कृति: समय की शिला पर
लेखक: हरिशंकर शर्मा
प्रकाशक: दीपक प्रकाशन,जयपुर
मूल्य: ₹395/-

कुछ उमड़ता-घुमड़ता रहता है भीतर ही भीतर, उसकी अभिव्यक्ति हुए बिना सुकून-शांति नहीं मिलती। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, वह उन सभी संगतियों-विसंगतियों को भीतर की संवेदना, करुणा के आधार पर महसूस करता है। महसूस ही नहीं करता, बेचैन होता है और समाज को मुक्ति दिलाना चाहता है। यह सारा व्यवहार अत्यन्त जटिल है। जीवन की इन जटिलताओं से बाहर निकलने का मार्ग साहित्य के पास है। यही कारण है कि दुनिया में आदिम काल से लेखन शुरू है। अभिव्यक्त होने का सहज माध्यम लेखन है। आज लेखन का जो विकसित वर्तमान स्वरूप है, एक दिन में नहीं हुआ है, सदियाँ लगी हैं और हर काल में लोगों ने लिखा है। पत्थरों पर लिखा, ताड़-पत्रों पर लिखा, काग़ज़ों पर लिखा और आज कम्प्यूटर आधारित लेखन है। ऋषियों ने वेद ऋचाओं को हज़ारों सालों तक अपनी स्मृतियों में धारण किए रखा। हमारी पीढ़ी बड़भागी है, भाग्यशाली है, हमें बहुत कुछ स्वाभाविक तौर पर बिना संघर्ष किए मिला है, हमें परिष्कृत भाषा के संस्कार मिले हैं, विपुल शब्द भंडार मिले हैं और आज अभिव्यक्त होना उतना कठिन नहीं है। 

मेरे सामने जयपुर, राजस्थान के चर्चित लेखक, कहानीकार, गद्यकार पुरस्कृत और सम्मानित रचनाकार श्री हरिशंकर शर्मा जी की सद्यः प्रकाशित “समय की शिला पर” पुस्तक है। अपने ‘पुरोवाक’ में शर्मा जी महाभारत की ध्वनि को याद करते हैं—‘मैं समय हूँ।’ पूर्णावतार में श्रीकृष्ण कहते हैं, “मैं नहीं समझ पाया काल की गति। मैं पूर्णावतार मानकर चला।” समय की गति को पकड़ना और समझना सहज नहीं है। शर्मा जी लिखते हैं, “कवि, लेखक केवल लिख रहे हैं और समय से बेख़बर समय को छोड़ रहे हैं। हमें लेखन के साथ-साथ समय को पकड़ना और उसके अनुकूल गढ़ना भी आना चाहिए।” उन्होंने आगे लिखा है, “मैंने समय को पकड़ने का प्रयास अवश्य किया है।” ऐसा भाव-चिन्तन किसी भी लेखक के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। ये सभी लेख समय की शिला पर खरे उतरे लोगों के जीवन-कर्म पर आधारित हैं और देश-समाज को दिशा देने वाले हैं। 

हरिशंकर शर्मा जी ने बेबाकी से लिखते हुए ‘गाँधी की नीतियों का विस्मरण’ लेख में बाबा प्रेमदास को उद्धृत किया है, “जब तक भारत रहेगा तब तक बापू के सिद्धान्त सामयिक रहेंगे।” ग्रामराज, नशाबंदी, नैतिक मूल्यों का प्रजातंत्र सब राजनीति के गलियारे में घसीटे गये हैं। गाँधी जी कहते थे, “भारत की आत्मा गाँवों में बसती है।” वे मशीनीकरण-पश्चिमीकरण के विपरीत थे। शर्मा जी ने ज्वलन्त तरीक़े से विस्तार से गाँधी जी को लेकर लिखा है। उनके विचारों से असहमत नहीं हुआ जा सकता। आज सारी विसंगतियाँ फल-फूल रही हैं जिससे गाँधी जी देश को मुक्त करना चाहते थे। आज गाँधी पूजे जाते हैं, जीवन में उतारे नहीं जाते। गाँधी सभी धर्मों के प्रति आदर रखते थे और त्यागपूर्ण जीवन जीते थे। संग्रह का दूसरा लेख है—‘प्रेमचंद की जीवन-दृष्टि’। शर्मा जी लिखते हैं-उनकी कहानियों में समाज का आदर्शोन्मुखी स्वरूप मुखरित हुआ है। वे निर्बल लोगों के पक्षधर थे। स्वयं उन्होंने आर्थिक तंगी, ग़रीबी झेली थी और अपनी रचनाओं में उसका यथार्थ चित्रण किया है। हरिशंकर शर्मा जी ने इस लेख में प्रेमचंद के व्यक्तित्व-कृतित्व पर प्रकाश डाला है और हिन्दी साहित्य में उनके योगदान को नमन किया है। 

अपने अगले लेख ‘भाषा की सांस्कृतिक-भावात्मक एकता के पुरोधा’ में शर्मा जी ने अनेक साहित्यिक मनीषियों की चर्चा करते हुए पं. भोलाशंकर व्यास जी के वक्तव्य को उद्धृत किया है। इस वक्तव्य में हिन्दी को लेकर, अपनी मातृभाषा को लेकर व्यापक तरीक़े से अनेक बिन्दुओं पर चिन्ताएँ जताई गई हैं और उनके सुधार के लिए उपाय सुझाए गये हैं। व्यास जी का यह चिन्तन हर तरह से नूतन है, सामयिक और विचारणीय है। उन्होंने कहा है—भाषा में प्रवाह होना चाहिए। हमें समन्वयवादी हिन्दी को अपनाना होगा। किसी भी राष्ट्र के तीन प्रतीक होते हैं: राष्ट्रध्वज, भाषा और वेशभूषा। हमें अंग्रेज़ी सीखनी चाहिए किन्तु उसकी ग़ुलामी को स्वीकार करना हितकर नहीं। उन्होंने आज का सच भी बताया है—आज हिन्दी का विरोध हिन्दी भाषियों द्वारा ही किया जा रहा है। शर्मा जी का यह लेख पठनीय और जीवन में उतारने योग्य है। 

‘ज्ञेय और अज्ञेय का समीकरण’ हरिशंकर शर्मा जी का लेख साहित्य के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर ‘अज्ञेय’ पर विशद जानकारी देता है। शर्मा जी लिखते हैं—अज्ञेय सैनिक रहे, क्रांतिकारी रहे। इसके बाद कवि, पत्रकार, निबन्धकार, शैलीकार, छायाकार और चिन्तक के रूप में उभरते गये। वे ख़ूब चर्चित भी रहे और विवादास्पद भी। अपने चिन्तन में अज्ञेय किसी दार्शनिक से कम नहीं हैं। वे स्वयं को कर्मवादी मानते हैं। प्रेम व सौन्दर्य पर अज्ञेय का चिन्तन अद्भुत है। मनुष्य जगत प्रेम का चलता-फिरता चलचित्र है—प्यार मिलता है, व्यथा भी मिलती है, साथ भोगा हुआ क्लेश भी मिलता है। शर्मा जी अपने संक्षिप्त लेख में अज्ञेय को समझे हैं और समझा भी रहे हैं। ‘नदी के द्वीप’ का उद्धरण बहुत कुछ कहता है—मेरे पास दर्शन अभी कुछ नहीं है, एक आस्था है और कुछ श्रद्धा और सीखने की, सहने की और यत्किंचित दे सकने की लगन है। 

‘निरंकार और उनका देव बोलता है’ लेख में शर्मा जी ने कवि निरंकार देव सेवक के बारे में चिन्तन किया है। उन्होंने बाल-साहित्य, काव्य-लेख तथा समीक्षा द्वारा साहित्य की अमूल्य सेवा की है। उनका जीवन एक व्यक्ति नहीं संस्था है। वे मानते हैं—हमें कविता में नहीं, जीवन में प्रतिष्ठित होना चाहिए। सेवक जी किसी वाद के पिछलग्गू नहीं रहे। शर्मा जी ने सेवक जी की साहित्य सेवा, चिन्तन-दर्शन पर विस्तार से चर्चा की है और उनके व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला है। हरिशंकर शर्मा जी ने पं. राधेश्याम कथावाचक जी के जीवन, व्यक्तित्व, कृतित्व व कथावाचन पर ख़ूब लिखा है। कथावाचक जी ने फ़िल्म-लेखन, संशोधन, निर्देशन किया है, उन्होंने धार्मिक, सामाजिक नाटक लिखे और फ़िल्में बनाई। सनातन धर्म की पताका फहराना उनका उद्देश्य था। वह फ़िल्मों के माध्यम से समाज सुधार, वेश्यावृत्ति, विधवाओं की समस्या और शोषण, स्त्री शिक्षा, देश प्रेम, भाषा का प्रचार-प्रसार, जाति प्रथा, ऊँच-नीच-छुआछूत की समस्या तथा भारतीय सनातन संस्कृति का उज्ज्वल चेहरा दिखाते हैं। रामायण पर फ़िल्म बनाने को लेकर शर्मा जी ने विस्तार से कथावाचक जी के सद्प्रयासों की चर्चा की है। वे कहते हैं—मनुष्य भोग और धन को ध्यान रखकर, सनातन धर्म के विरुद्ध, विदेशी प्रभाव लेकर, आसक्ति से ओतप्रोत होकर वहाँ की फ़िल्में आईं। उनके अनुसार सिनेमा ने भारतीय संस्कृति को पतन का मार्ग दिखाया। वे अपना भोजन स्वयं पकाते थे या किसी ब्राह्मण का पकाया खाते थे। नाटक हो या सिनेमा उन्होंने कम्पनी में स्त्रियों की उपस्थिति को कभी स्वीकार नहीं किया। ‘सुदामा की ग़रीबी और संघर्ष की दास्ताँ’ लेख भी कथावाचक राधेश्याम जी के जीवन को लेकर ही है। उन्होंने 50 से अधिक पुस्तकें लिखी और 100 से अधिक ग्रंथों को संपादित किया है। सुदामा की ग़रीबी के माध्यम से बरेली के सुर्खा मोहल्ला के किसी ग़रीब परिवार की घटना का नाट्य रूपान्तरण भावुक कर देने वाला है। सुदामा-शीला संवाद राधेश्याम जी की लेखन शैली, भाषा का परिचय देती है। 

‘समय की शिला पर’ पुस्तक में प्रूफ़ की गड़बड़ियाँ हैं। कहीं-कहीं प्रवाह टूटता सा दिखता है। हरिशंकर शर्मा जी ने बहुत श्रम किया है, अपने समय के बड़े लेखकों को पढ़ा है, समझा है, पत्राचार किया है और अपने अनुभवों को इन लेखों के माध्यम से साहित्य को समर्पित किया है। ‘एक युग का अंत हो गया’ लेख में धर्मवीर भारती को उनकी पुस्तक ‘अंधायुग’ के क्रम में याद किया है और कहते हैं—अंधायुग में वे आज भी अमर हैं। वे आधुनिक संवेदनाओं के कवि हैं। ‘अंधायुग’ पर शर्मा जी की विवेचना भिन्न तरीक़े से प्रभावित करती है। शर्मा जी किसी शहर में, किसी कार्यक्रम में हुई भेंट को अपने लेखों में पिरोकर नूतन अनुभूतियों की रचना करते हैं। यह उनके भीतर की ग्रहणशीलता, स्वीकार्यता और भाव-संवेदना का प्रमाण है। ‘और वे ‘किस्सा’ हो गए’ लेख में ‘किस्सा’ पत्रिका के संपादक, लेखक शिव कुमार ‘शिव’ को याद किया है। शर्मा जी अपने मिलन को आत्मीय बनाते हैं, अपने लेखन में सम्मिलित करते हैं और एक सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। शिव कुमार ‘शिव’ प्रसंग का विस्तार पढ़ने योग्य है और आज की पीढ़ी के रचनाकारों को शर्मा जी से सीखना चाहिए। पं. राधेश्याम कथावाचक पर उन्होंने बहुत लिखा है। हालाँकि मैंने पढ़ा नहीं है फिर भी उम्मीद करता हूँ, उन्होंने कथावाचक जी पर बड़ा काम किया है। उनके लेखकों के साथ पत्राचार बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। 

“‘पूर्णावतार’ समय की शिला पर” लेख में शर्मा जी ने डॉ. हेतु भारद्वाज के काव्य नाटक ‘पूर्णावतार’ पर गहन चिन्तन किया है। यहाँ प्रश्न हैं, उत्तर हैं और अर्थपूर्ण संवाद है। शर्मा जी की विवेचना अपनी तरह की है और पाठकों को समझाने में सर्वथा समर्थ है। पात्र वही हैं परन्तु उन्हें नये अर्थों-सन्दर्भों में ‘पूर्णावतार’ में दर्शाने की कोशिश की गयी है। यह सार्थक व भावपूर्ण लेखन पर विस्तार के साथ सम्यक समीक्षा-चिन्तन है। ‘तेरा दर्द, मेरा दर्द और हमदर्द’ लेख में हरिशंकर शर्मा ने तीखे अंदाज़ में नारी-संघर्ष और दलित-विमर्श पर प्रश्न उठाए हैं। इसके जनक उनकी दृष्टि में राजेन्द्र यादव हैं। शर्मा जी की पंक्तियाँ देखिए, “यह नारी-विमर्श धीरे-धीरे नारी देह में बदल गया। रचनाकारों ने नारी को केन्द्र में रखकर ख़ूब लिखा लेकिन उनकी दृष्टि नारी देह से आगे नहीं गयी। नारी को वस्तु मानकर परोसा गया। दलित-विमर्श के नाम पर साहित्य की राजनीति जारी है। राजेन्द्र यादव का ‘दलित-विमर्श’ और सवर्ण-साहित्य की विभाजन रेखा खींचता है। यह कैसा दलित-विमर्श कैसा साहित्य-विमर्श?” शर्मा जी साहस पूर्वक लिखते हैं—साहित्यिक गतिविधियों में साहित्य ग़ायब है। नाना तरह के प्रचलित विमर्शों पर उन्होंने ज़बरदस्त आक्रमण किया है और किन्नर समाज पर लेखन की गहरी छानबीन की है। डॉ. एम फिरोज खान, डॉ. लवलेश दत्त जैसे रचनाकारों पर शर्मा जी का चिन्तन पढ़ने योग्य है। ‘सवालों के बीच उठते सवाल’ में शर्मा जी सम्मान और पुरस्कारों को लेकर संकेत करते हैं, “आज पुरस्कार और पुरस्कारों से जुड़ा महिमामण्डन के कारण साहित्य में भ्रम की स्थिति है।” इस क्रम में उन्होंने सुरेश बाबू मिश्र को याद किया और उनकी लघुकथा पर लिखा है। 

‘पुरुष मन का नारी स्पर्श’ हरिशंकर शर्मा जी का डॉ. लवलेश दत्त के कहानी संग्रह ‘स्पर्श’ पर समीक्षात्मक चिन्तन है। इन कहानियों में उपलब्ध नारी-विमर्श शर्मा जी की दृष्टि में अपनी तरह का नारी-विमर्श है। ‘स्पर्श’ कहानी पर उनका चिन्तन समझने योग्य है। यहाँ वे कहानीकार को सलाह देते दिखते हैं। शायद इसे किसी समीक्षक का अनावश्यक हस्तक्षेप समझा जाए। ‘एक गुरुदक्षिणा ऐसी भी’ में शर्मा जी डॉ. सुरेशचन्द्र गुप्त जी के बारे में बताते हैं। गुप्त जी कहा करते हैं—साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं स्मारक भी होता है। उन्हीं गुप्त जी के अभिनंदन ग्रंथ में यह लेख गुरुदक्षिणा के रूप में है। अगला लेख हरिशंकर शर्मा जी ने लिखा है—‘दिलजीत दिव्यांशु की कविताओं का वटवृक्ष’। वे लिखते हैं, “दिलजीत दिव्यांशु ने जो भोगा है वह उनकी कविताओं में ध्वनित भी हुआ है। लेकिन ये कविताएँ केवल यथार्थवाद का प्लैटफ़ॉर्म नहीं हैं, उसमेंं उनके संघर्ष के पदचाप सुनाई देते हैं।” उन्होंने ‘पढ़े जाते हुए शब्द’ नामक संग्रह की कविताओं की अपने तरीक़े से विवेचना की है, भले कोई सहमत हो या न हो। वैसे ही डॉ. मधु दीक्षित द्वारा लिखित शोध-समीक्षा ग्रंथ ‘हिन्दी नवगीत में बिम्ब और प्रतीक’ पर उन्होंने चर्चा की है और इसे नवगीत के इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटना माना है। नवगीत यात्रा अनेक पड़ाव पार करते हुए समकालीन यात्रा पर है। साथ ही नवगीत विधा आज गहरे संकट के दौर से गुज़र रही है। उनके अनुसार डॉ. मधु दीक्षित ने बड़े मनोयोग से युग के ज्वलन्त प्रश्नों को भी उभारा है। ‘मौन संवाद’ शीर्षक वाला लेख सुधा तिवारी के “निःशब्द हुआ मन” काव्य संग्रह पर मन का मौन संवाद है। शर्मा जी लिखते हैं—आपकी कविता दिमाग़ की नहीं दिल की उपज है। एक गहन पीड़ा अपने आराध्य के प्रति समर्पण भाव के रूप में हृदय के किसी कोने में सिमटी बैठी है। कवयित्री का कथन है—“मौन को परिभाषित मत करो।” सुधा तिवारी के संग्रह की कविताओं के मर्म की विवेचना बहुत अच्छे तरीक़े से हुई है और उनका सत्व प्रस्तुत हुआ है। 

‘कुछ नया-कुछ पुराना’ लेख में शर्मा जी प्रश्न खड़े करते हैं—आज की कविताओं में कविता कितनी है, कितना कविता का शौक़ अथवा कितनी कविता की भड़ास। आगे लिखते हैं—सन्नाटे को चीरता हुआ डॉ. हरीशचन्द्र झण्डई का काव्य संग्रह ‘नये रास्ते-नई नज़र’ को नई नज़र से पढ़ने की आवश्यकता है। कवि की कविताओं में फैला हुआ सारा उजास, आलोक, प्रकृति के विविध रंग सब समीक्षक ने पकड़ा है। डॉ. गुंजन उपाध्याय पाठक के काव्य संग्रह ‘अधखुली आँखों के ख्वाब’ पर शर्मा जी का लेख ‘कविता की उत्कट ललक’ अच्छी विवेचना करता है। उन्होंने लिखा है—कविता जीवन का बिम्ब प्रस्तुत करती है। वह लुकाछिपी का खेल नहीं खेलती। शर्मा जी अक़्सर कवियों-लेखकों को सार्थक संदेश देते हैं। डॉ. हरीशचन्द्र झण्डई के लघुकथा संग्रह ‘थोड़ी सी ज़िन्दगी और अन्य लघुकथाएं’ पर शर्मा जी ने ‘लघुकथाएं और चाय की चुस्की’ शीर्षक से समीक्षा की है। वे लिखते हैं—यह लघुकथा संग्रह सामाजिक परिदृश्य पर आधारित है, इसमेंं बहुत सी समस्याओं को लिया गया है और जीवन के अनेक दृश्य उभरते हैं। ‘होली उपभोक्ता संस्कृति का अंग नहीं’ लेख में शर्मा जी लिखते हैं—बसंत ऋतु में मनाया जाने वाला पर्व होली प्रकृति का संदेश है। होली मनाने के पीछे वैदिक विधान है। उनका लेख स्वतः बहुत सही संदेश दे रहा है और सुधार के उपाय भी बताए गये हैं। संग्रह का अंतिम लेख है—हिन्दी का पहला सचित्र प्राइमर। शर्मा जी ने लिखा है—उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जनपद के ककहरे से देशभर ने हिन्दी सीखी थी। चौबीस पृष्ठों में “रामकुमार का कायदा” (सचित्र हिन्दी प्राइमर) काले पृष्ठों पर उभरे सफ़ेद अक्षरों में प्रकाशित होती थी। इसमेंं हिन्दी वर्णमाला सचित्र प्रकाशित होती थी, साथ ही बारह खड़ी ककहरा, स्वर-व्यंजन, मात्रा ज्ञान, 100 तक गिनती, 20 तक पहाड़ा, आना-पाई, अद्धा-पौना आदि का समाहार था। यह हिन्दी की पहली और सम्पूर्ण पुस्तिका थी। इस पुस्तिका के बारे में हरिशंकर शर्मा जी ने अच्छी और सम्यक जानकारी दी है। 

इस तरह हरिशंकर शर्मा जी ने ‘समय की शिला पर’ संग्रह के द्वारा अनेक मूर्धन्य विद्वानों, कवियों और लेखकों को याद किया है। सुखद यह भी है, इनमेंं से अधिकांश लोगों के साथ उनके आत्मीय सम्बन्ध रहे हैं। विरल ही है, उन्होंने अत्यन्त कम शब्दों में पुस्तकों की समीक्षाएँ की है और सार-तत्व प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा और शैली का अपना प्रभाव है। सही मायने में उन्होंने समय को पकड़ने की कोशिश की है और अपने लेखन द्वारा पाठकों को बहुत कुछ सीखा-पढ़ा रहे हैं। 

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