समझाइश
संजय वर्मा 'दृष्टि’
अख़बार वाला रोज़ाना अख़बार डालता आ रहा है। मगर कुछ दिनों से अख़बार डाल नहीं रहा था। मैंने अख़बार वाले की दुकान जाकर पूछा, “भाई क्या बात है अख़बार नहीं आ रहा है।”
उसने कहा, “अंकलजी अख़बार तो रोज़ डालता हूँ।”
मैंने कहा, “दो-चार दिन से अख़बार मुझे नहीं मिल रहा है।”
इस तरह आठ दिन हो गए। मैंने पता लगाने की ठान ली। सुबह जब अख़बार वाला आने वाला था। ठीक उसके एक घंटे पहले पुराना अख़बार बाहर रख दिया और मैं दरवाज़े के छेद में से बाहर झाँकता रहा।
तभी एक ग़रीब लड़का आया और जैसे ही उसने अख़बार उठाया तो मैंने झट से दरवाज़ा खोला। वो एकदम से घबरा गया। मैंने उससे कहा, “ये अच्छी बात नहीं है। जो अख़बार तुम आज चोरी कर रहे हो वो पिछले साल का है। नया तो अब आने वाला है। ऐसा कब से कर रहे हो? चलो तुम्हें थाने ले चलता हूँ।”
वो रोने लगा। रोते हुए उसने बताया कि उसे अख़बार पढ़ने का शौक है। उससे अख़बार ख़रीद कर पढ़ा भी नहीं जा सकता। गाँव में लायब्रेरी भी नहीं थी। ताकि वो वहाँ जाकर निःशुल्क पत्र पत्रिकाएँ पढ़ ले।
वह आगे कहने लगा, “अंकल जी मुझे माफ़ कर दो आगे से ऐसा नहीं करूँगा।”
मुझे उसके घर के हालात और उसकी परिस्थिति मालूम थी।
मैंने कहा, “बेटा तुझे अख़बार पढ़ने का शौक़ है तो मेरे घर से ले जाया कर और पढ़ने के बाद वापस लौटा दिया कर।” और मैंने उसे क्षमा कर दिया।
आज वो लोगों की गैस की टंकी लाकर देता है और अपनी मेहनत की कमाई से गर्व से जी रहा है। क्षमा से उसका भला हुआ। एक छोटी सी समझाइश ने उसकी ज़िन्दगी में नया मोड़ ला दिया।
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