रूहें भटकती हैं
संजय वर्मा 'दृष्टि’प्यार के हसीं पल
समय के साथ खिसक जाते
जैसे रेत मुठ्ठी से खिसकती
निशां विस्मित नज़रों से देखते
वो स्थान जो अब
अपनी पहचान खो चुके
दरख़्त उग आए
इमारतें ऊँची हो गईं
खिड़कियाँ चिढ़ा रहीं
सड़कें हो गईं भुलैया
प्रेम पत्र के कबूतर मर चुके
आँखों से ख़्वाब का पर्दा
उम्र के मध्यांतर पर गिर गया
कुछ गीत बचे
वो जब भी बजे
दिलों के तार छेड़ गए
प्यार के हसीं पल
वापस रेत मुठ्ठी में भर गए
दिल से ख़्वाब हटते नहीं
शायद रूहें भटकतीं इसलिए
उन्होंने कभी प्यार
ख़ुमार लिपटा हो