रूह भटकती

15-12-2021

रूह भटकती

संजय वर्मा 'दृष्टि’ (अंक: 195, दिसंबर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

प्यार के हसीं पल 
समय के साथ खिसक जाते 
जैसे रेत मुठ्ठी से खिसकती
 
निशा विस्मित नज़रों से देखती
वो स्थान जो अब
अपनी पहचान खो चुके। 
 
दरख़्त उग आए 
इमारतें ऊँची हो गईं 
खिड़कियाँ चिढ़ा रहीं 
सड़कें हो गई भुलैया। 
 
प्रेम पत्र के कबूतर मर चुके 
आँखों से ख़्वाब का पर्दा 
उम्र के मध्यांतर पर गिर गया। 
 
कुछ गीत बचे 
वो जब भी बजे 
दिलों के तार छेड़ गए 
प्यार के हसीं पल 
वापस रेत मुठ्ठी में भर गए।
  
ख़्वाब हटते नहीं 
इसलिए रूह भटकती। 

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