गुलमोहर
संजय वर्मा 'दृष्टि’माँ को गुलमोहर का पेड़ बहुत पसंद था। उनकी इच्छा थी कि अपने बाड़े में गुलमोहर का पेड़ होना चाहिए लेकिन गुलमोहर का पौधा लाएँ कहाँ से? नर्सरी में बहुत से पौधे थे मगर उस समय गुलमोहर नहीं था। पत्नी ने सास की इच्छा जान ली। उसका अपने रिश्तेदार के यहाँ शहर जाना हुआ तो उसे सास की गुलमोहर वाली बात याद आ गई। उसने पौधे बेचने वाले से एक गुलमोहर का पौधा ख़रीद लिया। और उसे बस में अपनी गोद में रख कर सँभाल कर घर ले आई। घर पर स्वयं गढ्ढा खोदकर उसे रोपा और पानी दिया।
क़रीब चार साल बाद नन्हा पौधा, जो बड़ा हो चुका था, उसमें पहली गर्मी में फूल खिले। पूरा गुलमोहर सुर्ख़ रंगों से मनमोहक लग रहा था और आँखों को सुकून प्रदान कर रहा था। माँ खाना खाते समय गुलमोहर को देखती तो उसे ऐसा लगता मानो वो बग़ीचे में बैठ कर खाना खा रही हो। मन की ख़्वाहिश पूरी होने से जहाँ मन को सुकून मिल रहा था वहीं बहू ने अपनी सेवा भाव को पौधारोपण के ज़रिए उसे पूरा किया था।
अब आलम ये है कि जब सास बहू में कुछ भी अनबन होती है तो गुलमोहर के पेड़ को देखकर छोटी-छोटी ग़लतियाँ माफ़ हो जाती है। रिश्तों को सुलझाने में किसी माध्यम की ज़रूरत होती है ठीक उसी तरह आज उनके बीच माध्यम गुलमोहर का पेड़ एक सेतु का कार्य कर रहा है।
2 टिप्पणियाँ
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कौन कहता है कि उलझे रिश्ते सुलझाना नामुमकिन है?
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बहुत बढ़िया
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