प्रदूषण
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’मन्दिर के प्रांगण में जागरण का कार्यक्रम था। औरत, मर्द, बच्चों को मिलाकर दो सौ की भीड़। शहर के दूसरे छोर तक लाउडस्पीकर बिजूखे की तरह टँगे थे। गायक की तीखी आवाज़ से सिर भन्ना गया था।
वह एकदम बाहरी सड़क पर निकल आया । सूखे ठूँठ के पास कोई बैठा था।
"कौन?" उसने पूछा ।
"मैं भगवान हूँ" मरियलसी आवाज़ आई।
"भगवान का इस ठूँठ के पास क्या काम? उसे तो किसी मन्दिर में होना चाहिए।"
"मैं अब तक वहीं था," आकृति ने दुःखी स्वर में बताया "शोर के कारण कुछ तबियत गड़बड़ हो गई थी; इसीलिए यहाँ भाग आया हूँ।"
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- आग के ही बीच में
- इस रजनी में
- उगाने होंगे अनगिन पेड़
- उजाले
- एक बच्चे की हँसी
- काँपती किरनें
- किताबें
- क्या करें?
- खाट पर पड़ी लड़की
- घाटी में धूप
- जीवन के ये पल
- नव वर्ष
- बच्चे और पौधे
- बरसाती नदी
- बहता जल
- बहुत बोल चुके
- भोर की किरन
- मुझे आस है
- मेघ छाए
- मेरी माँ
- मैं खुश हूँ
- मैं घर लौटा
- शृंगार है हिन्दी
- सदा कामना मेरी
- साँस
- हैं कहाँ वे लोग?
- ज़रूरी है
- साहित्यिक आलेख
- बाल साहित्य कविता
- गीत-नवगीत
- लघुकथा
- सामाजिक आलेख
- हास्य-व्यंग्य कविता
- पुस्तक समीक्षा
- बाल साहित्य कहानी
- कविता-मुक्तक
- दोहे
- कविता-माहिया
- विडियो
-
- ऑडियो
-