चंद्र ग्रहण
प्रभुदयाल श्रीवास्तव
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ,
मन में कब से लगी लगन है।
आज बताओ हमें पिताजी,
कैसे होता सूर्य ग्रहण है।
कहा पिताजी ने प्रिय बेटे,
तुम्हें पड़ेगा पता लगाना।
तुम्हें ढूँढ़ना है सूरज के,
सभी ग्रहों का ठौर ठिकाना।
ऊपर देखो नील गगन में,
हैं सारे ग्रह दौड़ लगाते।
बिना रुके सूरज के चक्कर
अविरल निश दिन सदा लगाते।
इसी नियम से बँधी धरा है,
सूरज के चक्कर करती है।
अपने उपग्रह चंद्रदेव को,
साथ लिये घूमा करती है।
चंद्रदेव भी धरती माँ के,
लगातार घेरे करते हैं।
धरती अपने पथ चलती है,
वे भी साथ चला करते हैं।
कभी कभी चंदा सूरज के,
बीच कहीं धरती आ जाती।
धरती की छाया के कारण,
धूप चाँद तक पहुँच न पाती।
इसी अवस्था में चंदा पर,
अंधकार सा छा जाता है।
समझो बेटे इसे ठीक से,
चंद्र ग्रहण यह कहलाता है।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- किशोर साहित्य कविता
- आत्मकथा
- किशोर साहित्य नाटक
- बाल साहित्य कविता
-
- अंगद जैसा
- अच्छे दिन
- अब मत चला कुल्हाड़ी
- अम्मा को अब भी है याद
- अम्मू भाई
- आई कुल्फी
- आदत ज़रा सुधारो ना
- आधी रात बीत गई
- एक टमाटर
- औंदू बोला
- करतूत राम की
- कुत्ते और गीदड़
- कूकर माने कुत्ता
- गौरैया तू नाच दिखा
- चलना है अबकी बेर तुम्हें
- चलो पिताजी गाँव चलें हम
- चाचा कहते
- जन मन गण का गान
- जन्म दिवस पर
- जब नाना ने रटवाया था
- धूप उड़ गई
- नन्ही-नन्ही बूँदें
- पिकनिक
- पूछ रही क्यों बिटिया रूठी
- बादल भैया ता-ता थैया
- बिल्ली
- बिल्ली की दुआएँ
- बेटी
- भैंस मिली छिंदवाड़े में
- भैया मुझको पाठ पढ़ा दो
- भैयाजी को अच्छी लगती
- मान लिया लोहा सूरज ने
- मेंढ़क दफ्तर कैसे जाए
- मेरी दीदी
- रोटी कहाँ छुपाई
- व्यस्त बहुत हैं दादीजी
- सड़क बना दो अंकलजी
- हुई पेंसिल दीदी ग़ुस्सा
- बाल साहित्य कहानी
- किशोर साहित्य कहानी
- बाल साहित्य नाटक
- कविता
- लघुकथा
- आप-बीती
- विडियो
-
- ऑडियो
-