धूप उड़ गई
प्रभुदयाल श्रीवास्तव
अभी-अभी छत पर बैठी थी,
अभी हो गई फुर्र।
काना बाती कुर्र चिरैया,
काना बाती कुर्र।
उदयाचल के नरम बिछौने,
पर सूरज का डेरा।
पकड़ हाथ में किरणें उसने,
भू पर झाड़ू फेरा।
फैली थी कोहरे की चादर,
फटी ज़ोर से चुर्र चिरैया।
काना बाती कुर्र।
धूप खिली तो आँगन चूल्हे,
चाय चढ़ाती दादी।
चाय नाश्ता आकर कर लो,
घर में पिटी मुनादी।
कप सॉसर से चाय सभी के,
मुँह में जाती सुर्र चिरैया।
काना बाती कुर्र।
भाभी हँसकर दाल धो रही,
चाची बीने चावल।
सूरज खेल रहा बादल संग,
पल-पल छुपा छुपऊ अल
अम्मा मटके से ले आई,
मुट्ठी भर अम चुर्र चिरैया।
काना बाती कुर्र।
ज़रा देर में फिर कोहरे ने,
अपनी चादर तानी।
आसमान में देख रहे सब,
किसकी यह शैतानी।
पल भर में ही धूप उड़ गई,
आँगन में से हुर्र चिरैया।
काना बाती कुर्र।