हुई पेंसिल दीदी ग़ुस्सा

01-02-2022

हुई पेंसिल दीदी ग़ुस्सा

प्रभुदयाल श्रीवास्तव (अंक: 198, फरवरी प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

हुई पेंसिल दीदी ग़ुस्सा, 
लगी इरेज़र को धमकाने। 
ठीक न होगा अगर आज तुम, 
आईं मेरा लिखा मिटाने। 
 
लिखती हूँ मैं, चित्र बनाती, 
और बनाती हूँ रेखाएँ। 
चेताती हूँ तुम्हें इरेज़र
मेरा लिखा न कभी मिटाएँ। 
 
ज़ुर्रत की तो चित्त करूँगी, 
पटक-पटक चारों चौखाने। 
 
मेरे काग़ज़ पर कैसे भी, 
मैं उछलूँ, कूदूँ या नाचूँ। 
तुम्हें शिकायत क्यों होती है, 
अपना लिखा जब कभी बाँचूँ। 
 
अब ज़िद की तो “पिलो“ बनाकर, 
रख लूँगी मैं तुम्हें सिरहाने। 
 
अरे पेंसिल दीदी! मुझसे, 
इतना क्यों ग़ुस्सा होती हो? 
मैं न रहता साथ तुम्हारे
तब तो तुम हरदम रोती हो। 
 
हम दोनों को साथ रचा है, 
बचपन से ऊपर वाले ने। 
 
बिना पेंसिल, रबर अधूरी, 
रबर बिना, पेंसिल क्या पूरी? 
ग़ैर ज़रूरी लिखा मिटाने, 
रबर/ इरेज़र बहुत ज़रूरी। 
 
हम आए ही हैं दुनियाँ में, 
एक दूजे का हाथ बटाने। 

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