अनमोल ओस के मोती
रामदयाल रोहजतरु पल्लव सा झर गया साल
प्रातः रश्मि की पहन माल
धर स्वर्ण मुकुट द्युतिमय भाल
सुख बाँट रहा भर थाल थाल।
विरहिनी रजनी बरसाती है
आँखों से इकलौती
अनमोल ओस के मोती।
सरसों का सँवरा अंग अंग
नम पीत वसन पर तंग तंग
बढ़ रहे कुसुम कलि संग संग
कर रहे ध्यान अलि भंग भंग
बालों में ख़ूब सजाती है
दूर्वादल सोती सोती
अनमोल ओस के मोती।
गेहूँ पल्लव से फिसल फिसल
छिप रहे धरा में रूप बदल
अपलक चकित बगुला पागल
लघु चटुल जीव या कतरा जल!
अब फिर से ध्यान लगाता है
भोजन की करे मनौती
अनमोल ओस के मोती।
नीहार-छाछकण रहा उछल
मक्खन सा पल पल रहा मचल
कर अनिल-नेतरा थाम युगल
पर्वत-पीढ़े पर बैठ कुशल
धरती का दीर्घ बिलौना है
प्रकृति दही बिलौती
अनमोल ओस के मोती।
नेतरा=मथनी घुमाने की रस्सी (आंचलिक शब्द)
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- अग्निदेही
- अचला सुन्दरी
- अनमोल ओस के मोती
- कार्तिक पूर्णिमा
- गर्मी की चुड़ैल
- चाँद का जादू
- छोटा सा गाँव हमारा
- तलवार थाम बादल आया
- ताल ठोंकता अमलतास
- थार का सैनिक
- धनुष गगन में टाँग दिया
- नाचे बिजली गाते घन
- नीली छतरी वाली
- पर्वत
- पर्वत की ज़ुबानी
- पाँच बज गये
- पानी
- पैर व चप्पलें
- प्यासी धरती प्यासे लोग
- फूलों की गाड़ी
- बरसात के देवता
- बरसात के बाद
- मरुस्थल में वसंत
- रोहिड़ा के फूल
- वसंत
- सच्चा साधक
- साहित्य
- स्वर्ण टीले
- हवन करता जेष्ठ
- हिम्मत की क़ीमत
- हे! नववर्ष
- कहानी
- किशोर साहित्य आलेख
- विडियो
-
- ऑडियो
-