अग्निदेही
रामदयाल रोहजअवनि मीरा सी हुई
कान्हा हुए वसंत
पांखी पेड़ पशु जैसे
तप करते हो संत
विरह नाग दिन रात सताता
तीखे डंक मारता जाता
नोच नोच देह को खाता
सूखे नयन नीर नहीं आता
विष का प्याला पीकर भी
क्षण में कर गई हज़म
जग से नाता तोड़ चली
पल पल रटती प्रियतम
चला जेठ अग्निदेह धारी
महाकाल, लू की असवारी
जल जंगल संजीव आहारी
सूरज लेता ताप उधारी
धरा बनी अग्नि-गोला
जल गया गगन, लाचार
जन जन जीवन को ढूँढ़ रहा
मरुथल में हाहाकार
मृगजल प्रवाहित होता
सारंग ख़ूब लगाता गोता
साँस फूलती धीरज खोता
फिर भी वो प्यासा ही रोता
गर्मी से पागल होकर
भंभूल घूमता गोल
धरा शीश पर रेत का गठ्ठर
गाँठ रहा है खोल
भागा प्राण बचाने को
वायु सागर के पास
चरण पकड़ कर बैठ गया
कुछ दिन करने को वास
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