गालियों पर ताली

15-08-2020

गालियों पर ताली

ज़हीर अली सिद्दीक़ी  (अंक: 162, अगस्त द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

कॉमेडी का तड़का कहूँ
या गालियों की बरखा
कॉमेडियन के आते ही
बरसती है गालियाँ और
बजती हैं तालियाँ
विचित्र संगम! वरना
गालियों पर ताली कहाँ!
गाल पर ताल बजते हैं।
अपशब्दों का जाल है या
अंदर का भूचाल है।
समझ से परे है वाक्य
अश्लीलता से भरा है वाक्य
फिर भी ऐसे ठहाके
मानो अधूरी चाहत थी
वर्षों बाद पूरी हो गयी हो
सभ्यों के इस समाज को
सलाह भी गाली लगती है
पर आज कॉमेडी की गाली
जश्न-ए प्याली लगती है
दुनिया है विशिष्ट लोगों की
विशेष बनाने वाली गाली को
शहद के माफ़िक चाटते हैं
कॉमेडी हास्यप्रद तो है
परन्तु विशिष्ट वर्ग के लिए
जिनका रक्त समूह 'अ' है
पर अश्लीलता वाला 'अ'
तभी गालियों पर  मिलती है
प्रसन्नता और तालियाँ॥

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