दो बदमाश बड़े हैं ख़ास
दिनभर ऊधम मचाते हैं ।
घर की थाली और कटोरी
दूर फेंक कर आते हैं ।

इक पलंग के नीचे छुपता
इक टेबल पर चढ़ जाता है ।
एक खड़ा होकर खिड़की में
ज़ोरों से चिल्लाता है ।

दूजा घर के बर्तन लेकर
बिना ताल बजाता है ।
एक नींद में सपने देखे
जगकर इक मुस्काता है ।

जब फोन की घण्टी बजती
बड़का दौड़ लगाता है
छुटका छुपकर मार झपट्टा
झट से फोन उठाता है ।

‘हलो-हलो’ जब कोई करता
छुटका खिल-खिल करता है
मुँह बढ़ाकर आगे बड़का
फुर्र-फुर्र कर मन हरता है।

घर के गहरे सन्नाटे पर
विजय इन्होंने पाई है ।
इनके घर में आ जाने से
घर में ख़ुशबू छाई है ।
 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
साहित्यिक आलेख
बाल साहित्य कविता
गीत-नवगीत
लघुकथा
सामाजिक आलेख
हास्य-व्यंग्य कविता
पुस्तक समीक्षा
बाल साहित्य कहानी
कविता-मुक्तक
दोहे
कविता-माहिया
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में