सूर्य की क्रोधाग्नि में
सर, नदियों का जल जल रहा
मर रहे प्यासे हिरण
पत्थर भी परुष पिघल रहा
लू के थापों से मूर्छित
हारा खिन्न विपिन है खड़ा हुआ
पर ताल ठोंकता अमलतास
मल्ल सा दंगल में अड़ा हुआ
देख बड़ी बाधाओं को
यह सैनिक कब घबराता है
जितने ही संकट आते हैं
उतना ही खिलता जाता है
पीले वस्त्र पहन लिए
तपसी सा ध्यान लगाता है
मरुथल तपभूमि बनी हुई
जीवन का अलख जगाता है
पाग बाँध ली फूलों की
चंवरी पर सजकर आता है
मधुर इशारों से, दुल्हन
वर्षा को पास बुलाता है।