पतंग

संजय वर्मा 'दृष्टि’ (अंक: 174, फरवरी प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

आकाश में उड़ती 
रंगबिरंगी पतंगें 
करती न कभी 
किसी से भेद-भाव 
 
जब उड़ नहीं पातीं 
किसी की पतंगें
देते मौन हवाओं को 
अकारण भरा दोष 
मायूस होकर 
बदल देते दूसरी पतंग 
भरोसा कहाँ रह गया
पतंग क्या चीज़ 
 
बस हवा के भरोसे 
ज़िंदगी हो इंसान की 
आकाश और ज़मीन के 
अंतराल को पतंग से 
अभिमान भरी निगाहों से
नापता इंसान 
और खेलता होड़ के
दाव-पेंच धागों से 
 
कटती डोर दुखता मन 
पतंग किससे कहे 
उलझे हुए 
ज़िंदगी के धागे सुलझने में 
उम्र बीत जाती 
 
निगाहें कमज़ोर हो जातीं 
कटी पतंग
लेती फिर से इम्तहान
जो कट के 
आ जाती पास हौसला देने 
 
हवा और तुम से ही 
मैं रहती जीवित 
उड़ाओ मुझे ?
मै पतंग हूँ उड़ना जानती 
तुम्हारे काँपते हाथों से 
नई उमंग के साथ 
तुमने मुझे 
आशाओं की डोर से बाँध रखा 
दुनिया को ऊँचाइयों का 
अंतर बताने उड़ रही हूँ 
खुले आकाश में।
 
क्योंकि एक पतंग जो हूँ 
जो कभी भी कट सकती 
तुम्हारे हौसला खोने पर। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें