पाँच बज गये

09-04-2017

पाँच बज गये

रामदयाल रोहज

जैसे ही दिन ढलने लगता है
शुरू हो जाती है खुसुर-फुसुर –
पाँच बज गये हैं!
और देह पर दौड़ने लगती चींटियाँ सी।
मधुशाला की ओर हो जाती है 
मेले सी चहल-पहल 
लोग बोतल लिए बैठे हैं –
जैसे बहुत बड़ा ख़ज़ाना हो
धीरे-धीरे मदिरा बोतल से उदर में जा बैठी 
और अंदर शुरू करती है रावण राज्य
बुद्धि घबराकर पथभ्रष्ट हो जाती है 
तब ख़ूब चलती हैं गप्पें 
पास के पेड़ पर अचानक बोला घुग्गू

 

"तन धन व घर की बर्बादी 
देकर पैसे लेते व्याधि"

 

"चुप रह पगले! 
बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद?"

 

अब हवा में झूलते चले घर को
पत्नी पतिदेव की प्रतीक्षा में बैठी है
चूल्हे का सहारा ले विरहिनी हंसिनी सी 
पतिदेव को देखते ही खिल उठती है 
सेमल के फूल की तरह
फटाफट परोसती है पकवान 
जो बना पड़ोसिन की झिड़की खाकर 
उधार लाए आटे से 
गर्म ठण्डी के बहाने बेचारी बेरहम मार खाती 
उम्रभर सिर्फ यही सोचती रहती है 
"मैंने क्या बुरा किया है?"

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें