"कही-अनकही" पुस्तक समीक्षा - आचार्य श्रीनाथ प्रसाद द्विवेदी

01-01-1970

"कही-अनकही" पुस्तक समीक्षा - आचार्य श्रीनाथ प्रसाद द्विवेदी

आशा बर्मन

समीक्ष्य पुस्तक: कही-अनकही
लेखिका: आशा बर्मन
प्रकाशक: हिन्दी राइटर्स गिल्ड
कैनेडा, hindiwg@gmail.com
मूल्य: $10.00

आशा बर्मन का यह "कही अनकही" काव्य संकलन रचनाकार के उन अछूते अनुभवों का वह ख़ूबसूरत दस्तावेज़ है जिसमें भावाभिव्यक्ति की परिपक्वता पूर्णरूपेण परिलक्षित होती है। इस संकलन का शीर्षक अपने आप में ऐसे अनेक प्रश्न छुपाये है जिनमें व्यक्त-अव्यक्त की

संभावनाओं का सागरीय विस्तार है जो हमें सोचने-विचारने के लिये विवश करता है। ऐसा आभासित होता है कि आशा की वैयक्तिक संवेदना तथा आत्मानुभूतियों की अभिव्यक्ति का पहिया अपनी सहज गति से घूमता है और जीवन से जुड़े तमाम संदर्भों और प्रसंगों को स्पर्श करता है जिनमें उनकी गहरी सोच, वैचारिक सूझ और दार्शनिक समझ प्रतिबिंबित है। इसमें कोई संदेह नहीं कि कविता आशा की आत्मा में रची-बसी है। शायद उनकी गहरी जीवन दृष्टि ने उन्हें कविता लिखने के लिये प्रेरित किया है।

संकलन में शुद्ध गीत, कवितायें और मुक्तक हैं जो गीतात्मकता से सराबोर हैं। वास्तव में गीत लय, सरलता, तरलता और मधुरता के सतरंगी परिधान से आवेष्ठित हैं जिन्हें जी-भर पढ़ने और गुनगुनाने को दिल करता है। विषयों की विविधता के छिटके-गहरे रंगों का अपना आकर्षण है। प्रवाहपूर्ण शैली में लिखी गयी रचनायें हैं जिनमें शब्दों तथा भावों का चयन सुरुचिपूर्ण है। संकलन की रचनायें हृदय में गहरे चिह्न छोड़ जाती हैं जो इनके व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करती हैं। गीतों में आदि से अन्त तक आत्मिक संवेदनशीलता व्याप्त है।

आशा के कतिपय गीतों में भारतीय आस्था-उपासना का अविरल स्रोत प्रवाहित है जिसे उन्होंने पूर्ण गरिमा के साथ रूपायित किया है। "मन वचन और कर्म से हम एक ही रहें…. सब के प्रति सबके मन में प्रेम रस बहे" (पृ.123) अथवा- "लोभ, मोह, क्रोध, क्षोभ भावना का नाश हो" (पृ. 124), ये कर्म, विश्व प्रेम और शान्ति के उदात्त विचार आशा को "मानवता का राजदूत" बनाते हैं।

"अहं", "दिशाभ्रम", "मन" और "अपराध बोध" गीतों में मनोदशाओं के द्वंद्व से हम परिचित होते हैं इसके अलावा इनमें मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की परतें-दर-परतें खुलती हैं जो मन को झंकृत करने में सफल हैं और जिनमें है चिन्तन की कस्तूरी की सुगंध।

आशा ने भावों और विचारों को ध्यान में रखकर शब्दों का सुरुचिपूर्ण चयन किया है लोक गीतों में- "सैंया काहे करे कविताई" तथा "होली गीत" में लोक बोली; "छोटी छोटी बातें" ,"बीते ऐसे दिन" और "बरसों पहले" आदि कविताओं में सामान्य बोल-चाल की भाषा- और "अभिशप्त", "आत्मबोध" तथा "सम्बल" में साहित्यिक भाषा का प्रयोग बेजोड़ है; यह अतिशयोक्ति नहीं कि भाषा एवं भावों की ताज़गी की कोमल उंगलियों का स्पर्श हमें प्रफुल्लित करता है।

"आज का सत्य", "दोहरा जीवन", "बंधे-बंधे लोग", "वे पत्र" और "प्रश्न" आदि रचनाओं में जीवन के इर्द-गिर्द फैले वातावरण में पसरी-बिखरी विसंगतियों-विशृंखलाओं को आशा ने शब्द दिये हैं और कहीं-कहीं यथार्थ के धरातल से उठकर वायवी रूप तलाशने की उनकी कोशिश भी इनमें नज़र आती है।

आदि युग से प्रेम साहित्य एवं समाज का केन्द्रबिन्दु रहा है और आशा जी की अभिव्यक्ति की परिधि में वह न आये यह असम्भव था। उनके गीतों में प्रेम के विभिन्न रूप-पारिवारिक ("बाबू जी", "माँ", "फुर्सत") और भारत-मातृ भूमि ("भारत दर्शन") के अनेक रंग बिखरे हुए हैं किन्तु जिसका संबंध निजी जीवन से है उसे उन्होंने निश्छलता तथा ईमानदारी से व्यक्त किया है। यद्यपि "मौन बहुत है" (पृ. 42) में शबनमी उलाहना तो "जागृति" में नारी की समानता का शंखनाद है तथापि उनमें भी वे अपनी अस्मिता और आस्था का संतुलन बनाये रखती हैं।

ये मार्मिक पक्तियाँ- "गगन सा निस्सीम, धरा सा विस्तीर्ण… तुम्हारा प्यार" (पृ.30) अथवा "खोने लगा निजस्व, तुम ही तुम रहे इस सृष्टि में" (पृ.37), "स्वप्नदर्शी मन मेरा ,चाहता छूले गगन को" (पृ.43) आदि में छायावाद की झलक मिलती है और जो हमें महादेवी वर्मा के गीतों का स्मरण कराती हैं। कुल मिलाकर आत्मकथा का झीना आवरण है जिनमें आत्मस्तुति अधिक और आत्मलोचन कम है।

इन गीतों -"याद आती है", "हिन्दुस्तान की पहचान", "प्रवासी की पीड़ा", और "अनचाहा अतीत", में प्रवासी जीवन की छटपटाहट, स्वदेश की मीठी स्मृतियाँ और विवशता तो अवश्य प्रतिबिंबित है किन्तु उसमें खीझ, झुँझलाहट और कड़ुवाहट लेशमात्र नहीं। लगता है जो आशा ने लिखा है उसे जिया भी है इसलिये उनकी आहत अनुभूतियों भी हमें उद्धिग्न करने की क्षमता रखती हैं। यह सत्य है कि अतीत की खरोंचें तथा भावों की आड़ी तिरछी लकीरें उनके गीतों में रसी-बसी हैं।

इस धनात्मक मानसिकता- "नई शरूआत करें" (फुर्सत पृ.47) और "आज तुम जी भर जियो, ख़ुशी के घूँट तुम पियो" (जीवन की साँझ पृ. 39) में जीवन जीने की कला का सार्थक संदेश और आशा, विश्वास और कर्मठता के विचारों की छोटी-मोटी मोमबत्तियों का धीमा-धीमा प्रकाश व्याप्त है।

"मैं और मेरी कविता" में कविता का मानवाकार, और "मैं टप-टप रोऊँ" में ध्वन्यात्मकता है। मूलतः मिट्टी-धूल में सने शब्द दुलराते-सहलाते हैं जो शिल्प एवं संवेदना के राजमार्ग को प्रशस्त करते हैं।

आशा की रचनाओं को समीक्षा के खाली फीते से नापना मुश्किल है। फिर भी मैं कहना चाहूँगा कि इस संकलन के कुंठाहीन गीतों में वाह्य प्रकृति के साथ अन्तः प्रकृति का सहज समन्वय है जिनमें ज़िन्दगी के तमाम रंग छलछलाते नज़र आते हैं। साथ में इनमें खिले पलाश की सी भीनी-भीनी महक भी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि आशा ने अपने गीतों की ज़मीन को खुली आँखों से रचा है और करीने से खोला है और यह ही उनकी सच्ची पहचान है।

आचार्य श्रीनाथ प्रसाद द्विवेदी,
अध्यक्ष हिन्दी साहित्य परिषद, केनेडा

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