दादा जी

आशा बर्मन

स्मृति के तारों की झंकार के तीव्र स्वरों में एक स्वर अत्यन्त स्पष्टता से मुखरित हो रहा है। वह स्वर अत्यन्त पुराना तो है पर चितपरिचित भी । वह स्वर है दादाजी का। दादाजी के लिये मेरे मन में आरम्भ से ही अत्यन्त श्रद्धा रही है। इस्लिये नहीं, कि वे कोई महान ज्ञानी थे, समाजसेवी थे या समाज में किसी उच्च पद पर आसीन थे वरन इसलिये कि हमारे दादाजी के व्यक्तित्व के रेशे-रेशे में, उनके हृदय के कण-कण में मात्र एक ही वस्तु थी- प्यार। सरल निश्छल प्यार, ऐसा प्यार जो गंगा की तरह सबके लिये समान रूप से प्रवाहित हुआ । ऐसा प्यार, जो आसमान की तरह सबके लिये छाया, ऐसा प्यार जिसने धरती की तरह सबको सहारा दिया, जिस प्यार में छोटे-बड़े, अपने-पराये, धनी-निर्धन का कोई भेद-भाव न था।

अपने मनस्तल के एलबम के पुराने बदरंग हुये चित्रों को मैं अपनी स्मरणशक्ति से गहराने का प्रयास करती हूँ। कई चित्र मेरे सम्मुख आते हैं। बचपन में याद है पास-पड़ोस के घरों मे कई वृद्ध वृद्धायें, प्रातकाल स्नान-ध्यान करके जय जगदीश हरे की स्वरभेदी आरती के पश्चात, अपने इष्टदेव को भोग लगाकर ही सुबह का भोजन करते थे। हमारे दादाजी का इष्टदेव को भोग लगाने का तरीका सबसे पृथक था। नहा-धोकर जब सुबह वे खाने बैठते तो ताली बजाकर बड़े मधुर स्वर में बच्चों आवाज देते- "जिन्ने जिन्ने खाना है, आ जाओ।" पता नहीं क्या था उस स्वर में, हम बच्चे जो अपनी माँ के अनेक मनुहार करने पर भी ठीक से नहीं खाते, दादाजी की उस पुकार को सुनते ही सबकुछ छोड़ के,गिरते पड़ते उनके कमरे की ओर दोड़ते जैसे शायद कृष्ण की वंशी को सुनकर गोपियाँ दोड़ती होंगीं। दादाजी भी सभी बच्चों को भोग लगाकर खाना खाते। बच्चे भी खुश और दादाजी भी, ऐसे होता था हमारे घर में दिन का आरम्भ।

छुट्टी के दिन दादाजी बच्चों को पार्क ले जाते। पड़ोस के बच्चे भी हाथ हो लेते, कोई उनकी अंगुली पकड़े, कोई गोद में और कोई कंधों पर सवार होकर। घर लौटते समय यथाशक्ति बच्चों की फरमाइश पूरी करते जाते । घर पहुँचने पर पड़ोस के कुछ गरीब बच्चों का समूह हमारे पास आता, और इससे पहले कि वे कुछ माँगें, दादाजी स्वयं ही बचे हुये पैसे उनमें बाँट देते। इस समय वे बिल्कुल ही भूल जाते कि कुछ ही देर बाद जब दादी उनसे पैसे का हिसाब माँगेगी, तो वे क्या जबाब देगें?
दादी के नाम से एक और बात याद आयी। जैसे यहाँ विदेश में लोग प्यार से अपनी पत्नी को ’हनी’ और भारत में ’भागवान’ कहते हैं, हमारे दादाजी ने, जिनके जीवन का मूल आधार ही प्रेम था, पचास बरस की उमर में ही अपनी पत्नी को प्यारभरा स्म्बोधन दिया था ’बुढ़िया’ और आजीवन इसका प्रयोग भी किया।

प्रेमचन्दजी ने लिखा है कि वृद्ध लोगों को अपने अतीत की महानता, वर्तमान की दुर्दशा और भविष्य की चिन्ता से अच्छा और कोई विषय बातचीत के लिये नहीं मिलता। पर दादाजी ऐसे न थे। न उन्होंने कभी अपने मातापिताविहीन बचपन की दुखद बातें करके अपने मन को दुखी बनाया और न कभी भविष्य की चिन्ता की। वे वर्तमान में ही जीते रहे। वर्तमान के हर पल को आनन्द के साथ, अत्यन्त सहजता के साथ जीनेवाला ऐसा दूसरा प्राणी मैंने दूसरा आजतक नहीं देखा । न उन्हें राजनीति में दिलचस्पी थी और न ही घर के पचड़ों में। परिवार के व्यवसाय में नियमित रूप से जाते जरूर थे, वहाँ पर भी काम कम करते और हँसी मजाक अधिक।

अधिकतर समय दादाजी बच्चों में ही मन रमाये रहते, जैसे सदैव प्रसन्न रहने का रहस्य उन्हें मिल गया हो। उनके साथ ताश व कैरम खेलते, स्कूल की बातें सुनते तथा कहानियाँ भी सुनते सुनाते। दादी को कला अथवा साहित्य का जञान या परिचय न था। पर कुछ ऐसा हुआ कि कालान्तर में वे प्रेमचन्दजी के अनन्य भक्त हो गये। हुआ यह कि जब हम उनकी पुरानी कहानियों से बोर हो गये, तो एक दिन मैंने उनको प्रेमचन्दजी की सुप्रसिद्ध कहानी ’पाँच परमेश्वर’ सुना दी। वह कहानी उनको इतनी अच्छी लगी कि मुझसे जब तब और कहानियाँ सुनाने की फरमाइश करने लगे। उनका उत्साह देखकर मैने पुस्तकालय से मानसरोवर के कई भाग लाकर उन्हें प्रेमचन्दजी की और भी कहानियाँ सुनाईं। दादाजी को कहानी सुनाने का अनुभव भी अत्यन्त रोचक है । कहानी सुनाने का अभियान बड़ी शान्ति से शुरु होता। ज्यों-ज्यों कथा-सूत्र आगे बढ़ता, घटनायें और चरित्र स्पष्ट होने लगते, दादाजी तन्मय हो जाते। कई बार उनकी आँखों से आँसू बहने लगते, मुँह खुला का खुला रह जाता, कहानी के भाव परिवर्तन के साथ साथ उनके चेहरे के भाव भी बदलने लगते और भर्राये गले से कहते,- "सरवा क्या खूब लिखता है।" प्रेमचन्दजी की प्रशंसा में कई ग्रन्थ लिखे गये होंगे पर ऐसी अभिव्यक्ति शायद ही किसी ने की हो। यही एकमात्र ऐसा समय था कि यदि कोई बच्चा भी उन्हें टोकता तो उसे भी झिड़क कर कहते, "अभी चुप रहो ।" कभी कभी मैं भी उन्हे भावविभोर हुआ देखकर, कहानी पढ़ना भूलकर उन्हें देखने लगती और कहती, "दादाजी इसमें रोने की क्या बात है, कोई मरा वरा थोड़े ही है।" उन्हे मेरी बाधा बिल्कुल भी अच्छी न लगती, कहते, - "तू आगे पढ़, तू नहीं समझेगी।" तब शायद मुझे सचमुच समझ में नहीं आता था।

एक और मर्मस्पर्शी घटना उल्लेखनीय है। एकबार एक अच्छी कहानी सुनाने के उद्देश्य से मैं उनके कमरे में गयी। जो देखा, अवाक रह गयी। दादाजी का नौकर छोटू दर्द से कराह रहा था और दादाजी उसकी पीठ पर मालिश कर रहे थे। छोटू संकोच से गड़ा जा रहा था और दादाजी उसे समझा रहे थे कि इसमें कोई हर्ज नहीं है। यह दृश्य देखकर मेरा हृदय श्रद्धा से भर उठा। उनके मन में छोटा बड़ा, अपना पराया, अमीर गरीब के बीच कोई भेद न था। यद्यपि उन्होंने स्कूल कालेज में कभी कोई शिक्षा पास नहीं की, पर जीवन की पाठशाला में प्रेम की परीक्षा में उन्हें कोई भी जीत नहीं सका था।

पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।।
ढाई अच्छर प्रेम को, पढ़ै सो पंडित होय॥

दादाजी ने उसी ढाई अक्षर को केवल पढ़ा ही नहीं था वरन अपने जीवन में चरितार्थ कर दिया था।

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