आधुनिक
संजय वर्मा 'दृष्टि’क्या ज़िंदगी आधुनिक हो गई
अब कोई नहीं देखता
दीवार पर धूप आने का समय
पूछने का किसी के पास समय नहीं
क्या ज़िंदगी आधुनिक हो गई।
पाँव छूना तो जैसे खड़ा हो
विलुप्ति की कगार पर
काम के बोझ तले थके बुज़ुर्गों के पग
अब क्यों नहीं दबाए जाते
क्या ज़िंदगी आधुनिक हो गई।
चश्मे के नम्बर बढ़ गए
सुई में धागा नहीं डलता
काँप रहे हाथ कोई मदद नहीं
बूढ़ों को संग ले जाने में
शर्म हुई पागल अब क्यों
क्या ज़िंदगी आधुनिक हो गई।
घर के पिछवाड़े से
आती बुज़ुर्गों की खाँसी की आवाज़ें
कोई सुध लेने वाला क्यों नहीं
संयुक्त दिखते परिवार
मगर लगता अकेलापन
कुछ खाने की लालसा
मगर कहने में संकोच क्यों
क्या ज़िंदगी आधुनिक हो गई।
बुज़ुर्गों का आशीर्वाद, सलाह, अनुभव
पर लगा हो भागदौड़ भरी ज़िंदगी में जंग
उनके पास बैठ बतियाने का समय क्यों नहीं
वे गुमसुम से बैठे पार्क में
और अकेले जाते धार्मिक स्थान अब क्यों
क्या ज़िंदगी आधुनिक हो गई।
बुज़ुर्ग हैं तो रिश्ते हैं, नाम है, पहचान है
अगर बुज़ुर्ग नहीं तो
बच्चों की कहानियाँ बेजान हैं
ख़्याल, आदर सम्मान को
लोग करने लगे नज़र अंदाज़ अब क्यों
क्या ज़िंदगी आधुनिक हो गई।
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