स्वप्न

धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’ (अंक: 264, नवम्बर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

जागते हुए! देखता मैं . . . 
 
सफ़र सुनहरा है मेरा, यूँ तो। 
अपने आप में पूर्ण है। 
लाँघ कर मीलों की दूरी, 
तय करना अत्यधिक सरल, 
प्रतीत होता है। 
तुम्हारे हृदय की छुअन को, 
समेट लेने की ख़ातिर . . . 
सच कहूँ! 
मेरे लिए यह पर्याप्त है . . . 
 
किन्तु! 
सदैव!! अनेक स्वप्न बुनकर, 
उत्सुकतावश बढ़ता है मेरा हृदय, 
तुम्हारी ओर . . . 
एवं संशयों से परिपूर्ण मन, 
लपेट लेता है, अपने भीतर . . . 
मेरे अनेक प्रयासों को। 
और . . . 
पुनः खटखटा देता है, 
मेरे हृदय की कुंडी, 
ताकि!! यह सिलसिला, 
बरक़रार चलता ही रहे . . . 
 
कुछ तो है . . . 
बदलाव, अज्ञानता, स्वार्थ
या तुम्हारे प्रति, 
पनपता हुआ अनुराग . . . 
जो सही मार्ग को, 
मुझसे वंचित रखे हुए है। 
कभी महसूस कर पाता हूँ, 
हृदय के अंदरूनी हिस्से में
कुछ अनोखापन . . . 
तो कहीं घिरे हैं स्याह मेघ, 
जो पुनः थाम लेते हैं, 
मेरे हृदय की गति को . . . 
 
अतः प्रेम पनपता है, 
मेरे मन में . . . 
हरेक क्षण, हरेक घड़ी, हरेक पहर। 
तुम्हारे प्रति। 
क्या हृदय में घिरे बादल, 
बह जाएँगे मन रूपी हवा से? 
क्या लगी हुई कुंडी, पुनः खुल जाएगी
प्रेमरूपी कुंजी द्वारा? 
क्या थमी हुई गति, 
पुनः सामान्य होने लगेगी, 
तुम्हें समीप पाकर? 
न जाने! 
यह कैसा अनोखा स्वप्न है मेरा? 

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